बिहार की राजनीति इस वक्त फिर उसी पुराने मोड़ पर लौटती दिखाई दे रही है, जहां गठबंधन एकता का ढोल तो पीट रहा है, लेकिन उसके भीतर अविश्वास का संगीत बज रहा है। 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले INDIA गठबंधन यानी कांग्रेस, राजद, वामपंथी दल और मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी के बीच जो समन्वय दिखना चाहिए था, वह अब आपसी ठिठकन में बदल चुका है।
पप्पू यादव के हालिया बयान ने इस ठिठकन को और उजागर कर दिया है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री कांग्रेस से नहीं होगा, राजद या किसी अन्य पार्टी से होगा। उनका यह बयान महज एक टिप्पणी नहीं, बल्कि पूरे गठबंधन की संरचना का आइना है, जो दिखाता है कि यह साझेदारी विचार की नहीं, गणित की है और यह गणित भी लगातार बिगड़ता जा रहा है।
गठबंधन की अवधारणा से समझौता
बिहार का महागठबंधन दरअसल राजनीतिक आपातकाल में जन्मा गठजोड़ है। इसकी आत्मा मोदी-विरोध है, विचार नहीं। कांग्रेस, राजद और वामपंथी दलों की विचारधारा एक-दूसरे से उतनी ही भिन्न है, जितनी उनकी सत्ता की महत्वाकांक्षाएं। जहां कांग्रेस लोकतंत्र की रक्षा का नारा देती है, वहीं राजद की राजनीति जातीय समीकरणों पर टिकी है और वामदल वर्ग संघर्ष की भाषा बोलते हैं। हां, तीनों के पास एक साझा दुश्मन जरूर है। भाजपा और नीतीश कुमार, लेकिन साझा विज़न नहीं। यही इस महाभ्रम की जड़ है।
महागठबंधन में सीट बंटवारे की प्रक्रिया ने इस अंतर्विरोध को और भी स्पष्ट कर दिया है। कांग्रेस ने 70 सीटों की मांग की, वामपंथी दल 40 पर अड़े रहे और मुकेश सहनी ने तो 60 सीटों के साथ डिप्टी सीएम पद की भी मांग ठोक दी। यह सब तब हो रहा था जब नामांकन की तारीखें नजदीक थीं और गठबंधन की साझा प्रेस वार्ता तक नहीं हो सकी। यह वही गठबंधन है, जिसने 2020 के चुनाव में एनडीए के विकल्प के रूप में अपनी छवि बनाई थी, लेकिन 2025 आते-आते यह खुद अपने विकल्पों में उलझ चुका है।
दोस्ताना लड़ाई या आपसी अविश्वास?
दोस्ताना लड़ाई शब्द इस चुनाव का सबसे बड़ा राजनीतिक जुमला बन गया है। महागठबंधन की सीटों पर कई जगह दो-दो उम्मीदवार खड़े हैं, एक कांग्रेस का तो दूसरा राजद या वामदल का। इसे फ्रेंडली फाइट कहा जा रहा है, लेकिन असल में यह अंदरूनी अविश्वास का दस्तावेज़ है।
जहां एक ओर कांग्रेस चाहती है कि उसका स्थानीय जनाधार बचा रहे, वहीं राजद इस जनाधार को अपनी जातीय बुनावट में समाहित करना चाहती है। यह संघर्ष सीटों का नहीं, राजनीतिक अस्तित्व का है। गठबंधन के भीतर कांग्रेस की स्थिति उस किरायेदार जैसी है, जो घर में रहते हुए भी दरवाजे की चाबी अपने पास नहीं रखता।
पप्पू यादव का बयान कि हमारे नेता ने दोस्ताना लड़ाई की अनुमति नहीं दी। दरअसल डैमेज कंट्रोल है, लेकिन यह स्वीकारोक्ति भी है कि महागठबंधन में अनुशासन नाममात्र का है। हमने कई सीटें छोड़ दीं, यह बात भी उतनी ही प्रतीकात्मक है, क्योंकि गठबंधन में सीटें छोड़ने का मतलब केवल हार का जोखिम उठाना नहीं, बल्कि अपने प्रभावक्षेत्र से पीछे हटना है।
राहुल गांधी का प्रभाव: न जमीन, न जनाधार
राहुल गांधी की बिहार राजनीति में भूमिका 2015 के महागठबंधन की सफलता के बाद कुछ समय तक सीमित उम्मीद का केंद्र रही, लेकिन अब वह प्रतीकात्मक हो चुकी है। राहुल गांधी का प्रभाव राष्ट्रीय विमर्श में दिखता है, बेरोजगारी, संविधान, लोकतंत्र और न्याय की बातों में। लेकिन, बिहार जैसे राज्य में, जहां राजनीति जाति, समाज और जमीन के ताने-बाने से बुनी जाती है, वहां यह विमर्श महज़ एक विचारधारात्मक विलासिता बनकर रह जाता है।
2020 में कांग्रेस को सिर्फ़ 19 सीटें मिली थीं, जबकि उसने 70 पर प्रत्याशी उतारे थे। इस बार पार्टी 60 सीटों पर मैदान में है, यानी आत्मविश्वास के नाम पर एक रणनीतिक जुआ खेला गया है। राहुल गांधी का संगठनात्मक असर लगभग न के बराबर है। उनकी चुनावी सभाएं तो भीड़ खींचती हैं, लेकिन भीड़ वोट में नहीं बदलतीं। कांग्रेस के पास आज बिहार में कोई बड़ा प्रादेशिक चेहरा नहीं है। न कद्दावर यादव नेता, न कोई दलित आइकन और न ही कुर्मी समाज से जुड़ा नेतृत्व।
इस शून्य का फायदा राजद ने बखूबी उठाया है, जिसने तेजस्वी यादव को युवा नेतृत्व के रूप में स्थापित कर दिया है। एक ऐसा चेहरा, जो गठबंधन की पूरी ऊर्जा को अपने इर्द-गिर्द केंद्रित रखता है।
तेजस्वी का आत्मविश्वास और कांग्रेस की चुप्पी
तेजस्वी यादव अब गठबंधन के निर्विवाद नेता हैं। कम से कम बिहार की सीमाओं के भीतर। उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया और कांग्रेस ने इसका कोई विरोध नहीं किया। यही इस गठबंधन का सबसे बड़ा राजनीतिक संकेत है कि राहुल गांधी की पार्टी अब मुख्य सहयोगी नहीं, मुख्य समर्थक बन चुकी है। गठबंधन के चेहरे पर तेजस्वी की तस्वीर है, न कि राहुल की।
पप्पू यादव ने जिस स्पष्टता से कहा कि मुख्यमंत्री कांग्रेस से नहीं होगा, वह दरअसल कांग्रेस की मौन स्वीकृति का भी बयान है। गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका अब निर्णयकर्ता की नहीं, बल्कि औपचारिक उपस्थिति की है। एक ऐसा स्तंभ जो दिखता तो है, लेकिन वजन नहीं उठा पाता।
सीट बंटवारे की राजनीति: अंतर्विरोधों का बारूद
महागठबंधन का सीट बंटवारा 2025 की चुनावी कहानी का सबसे विवादास्पद अध्याय बन चुका है। जबकि एनडीए में सीटों पर सहमति पहले ही बन चुकी थी, महागठबंधन आख़िरी चरण तक संघर्ष में उलझा रहा। यह वही गठबंधन है जो विचारधारा की एकता की बात करता था, पर अपने भीतर के हिस्सों में बिखर गया।
राजद ने 143 सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए, और कई जगहों पर कांग्रेस प्रत्याशी पहले से मैदान में थे। वामपंथी दलों की लिस्ट भी लगभग समानांतर आई। इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि गठबंधन की एकजुटता एक नारा भर ही सीमित है। कई सीटों पर मतदाताओं तक यह भ्रम फैल गया कि कौन असली महागठबंधन उम्मीदवार है।
कांग्रेस ने नामांकन की चार सूचियाँ जारी कीं। पहली में 48 उम्मीदवार, फिर एक-एक कर शेष।राजद की लिस्ट एक्स (पूर्व ट्विटर) पर सीधे जारी हुई, किसी साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस की ज़रूरत तक नहीं समझी गई। यह सब उस मानसिकता को दर्शाता है जिसमें महागठबंधन के भीतर एक-दूसरे को बराबर समझना अब इतिहास हो चुका है।
पूर्णिया और सीमांचल: कांग्रेस का बचा-खुचा गढ़
पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज सीमांचल का यह इलाका पारंपरिक रूप से कांग्रेस का रहा है। यहां मुस्लिम-यादव समीकरण कांग्रेस को दशकों तक सत्ता दिलाता रहा। लेकिन अब यह इलाका AIMIM और राजद के बीच बंट गया है। पप्पू यादव का दावा कि पूर्णिया की चारों सीटों पर कांग्रेस जीतेगी भावनात्मक है, पर व्यावहारिक नहीं।
पूर्णिया जिले की राजनीति में पप्पू यादव स्वयं निर्णायक हैं न कि कांग्रेस के उम्मीदवार, न राजद के। उनका समर्थन कांग्रेस को स्थानीय स्तर पर तो फायदा दे सकता है, लेकिन राज्य-व्यापी लहर नहीं बना सकता। कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उसका जनाधार राजनीतिक निष्ठा से ज़्यादा स्मृति पर टिका है। वह वोट कांग्रेस के लिए नहीं, बल्कि अतीत के प्रति सहानुभूति के रूप में पड़ता है और राजनीति में स्मृति टिकती नहीं, बदल जाती है।
महागठबंधन के भीतर मौन अविश्वास
राजद जानती है कि अगर कांग्रेस को ज़्यादा सीटें मिलती हैं, तो भविष्य में गठबंधन के भीतर नेतृत्व संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिए वह कांग्रेस को सीमित रखकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है। वामदल जानते हैं कि कांग्रेस का वोट उन्हें नहीं मिलता, इसलिए वे कांग्रेस के साथ बस दिखावे के लिए हैं। इधर, मुकेश सहनी भी जानते हैं कि बिना किसी मजबूत जातीय ब्लॉक के उनका अस्तित्व क्षणिक है, इसलिए वे हर बड़ी पार्टी से समझौता कर लेते हैं। इधर, कांग्रेस जानती है कि उसके पास कोई ठोस समीकरण नहीं है, इसलिए वह समझौते की मजबूरी बन गई है। इस तरह, महागठबंधन का ढांचा एक अस्थायी सुविधा-संघ है, जिसमें हर दल दूसरे को आवश्यक मानता है, लेकिन किसी पर विश्वास नहीं करता।
एनडीए की मजबूती: नीतीश की अनिवार्यता
दूसरी ओर, एनडीए में स्थिति कहीं अधिक संगठित है। भले ही भाजपा और नीतीश कुमार के बीच मतभेद हों, पर दोनों जानते हैं कि एक-दूसरे के बिना सत्ता की राह कठिन है। भाजपा को नीतीश की साख और अनुभवी छवि चाहिए और नीतीश को भाजपा का संगठन और संसाधन। यह व्यावहारिक राजनीति है, जो विचारधारा से नहीं, विजय की संभावना से चलती है। महागठबंधन में यह व्यावहारिकता नहीं है, वहां आदर्श और अहम का टकराव है। यही कारण है कि एनडीए ने गठबंधन के फार्मूले पर जल्दी सहमति बनाई, जबकि महागठबंधन सहमति की प्रतीक्षा में असहमति का उत्पादन कर रहा है।
राहुल गांधी का नैरेटिव बनाम बिहार की हकीकत
राहुल गांधी का नैरेटिव संविधान की रक्षा करो, लोकतंत्र बचाओ, नफरत मिटाओ भावनात्मक तो है, लेकिन बिहार की राजनीतिक मिट्टी में उसकी जड़ें कमजोर हैं। बिहार का मतदाता विचार नहीं, परिणाम चाहता है। यहां सत्ता जातीय समीकरण से तय होती है और कांग्रेस अब उस समीकरण की कोई प्रमुख कड़ी नहीं रही।
राहुल गांधी के पास न तो क्षेत्रीय नेतृत्व है, न संगठन की मशीनरी। उनकी सभाएं नेशनल मीडिया इवेंट बन जाती हैं, लेकिन ज़मीनी परिणाम शून्य रहता है। कांग्रेस के पास कोई ऐसी रणनीति नहीं है जो तेजस्वी के बाद की राजनीति को परिभाषित कर सके और यही वह कमी है, जिसने पार्टी को सहयोगी दल की सीमा में बांध दिया है।
2025 की राजनीति: महागठबंधन की संभावनाएं और सीमाएं
अगर 2025 में महागठबंधन को बहुमत मिलता है, तो भी कांग्रेस मुख्यमंत्री पद से दूर ही रहेगी। राजद के पास बहुल सीटें होंगी और तेजस्वी स्वाभाविक रूप से नेतृत्व का दावा करेंगे। कांग्रेस को तब वही भूमिका मिलेगी जो यूपीए में कभी लालू, शरद या पासवान को मिली थी। सहयोगी, लेकिन निर्णायक नहीं।
अगर महागठबंधन बहुमत से दूर रहता है, तो कांग्रेस फिर किंगमेकर बनने का भ्रम पालेगी, पर वास्तविकता वही होगी राजनीतिक उपस्थिती, निर्णायक अनुपस्थिति। कांग्रेस के लिए बिहार अब एक विचारधारा की प्रयोगशाला नहीं, बल्कि जीवित रहने का मंच बन चुका है। वह अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है, और तेजस्वी अपने नेतृत्व को स्थायी करने की।
विचार नहीं, विवशता है महागठबंधन
पप्पू यादव का बयान बिहार की राजनीति के इस क्षण का सबसे सटीक सार है। मुख्यमंत्री कांग्रेस से नहीं होगा। उनका यह वाक्य जितना सरल है, उतना ही गहरा। यह कांग्रेस की भूमिका, राहुल गांधी के प्रभाव और महागठबंधन की आत्मा, तीनों का वर्णन कर देता है। महागठबंधन अब एक राजनीतिक विवशता बन चुका है, जो एक-दूसरे से लड़ते हुए भाजपा का सामना करना चाहता है। कांग्रेस के पास न जनाधार बचा है, न संगठन की धारा। राजद के पास नेतृत्व तो है, लेकिन नियंत्रण नहीं और वामदल के पास न तो संख्या है, न ही साख। इस गठबंधन की स्थिति उस नाव जैसी है जो एक साथ कई पतवारों से चल रही है। लेकिन, दिशा तय करने वाला कोई नहीं।
बिहार में महागठबंधन का भविष्य उतना ही अस्थिर है, जितनी उसकी एकता की भाषा और राहुल गांधी का प्रभाव उतना ही सीमित है, जितनी उनकी उपस्थिति। 2025 के बाद यह गठबंधन चाहे बचे या बिखरे, पर इतिहास यही दर्ज करेगा कि विचार से नहीं, विरोध से बने गठबंधन टिकते नहीं।