संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है। पूरे भारतवर्ष में संघ के शताब्दी वर्ष के कार्यक्रम हो रहे हैं । इन सौ वर्षो में संघ ने बिना किसी दिखावे के सतत चलते हुए समाज में भारत के लोगो के मन में अपना एक स्थान बनाया। अनेक उतार चढ़ाव भरी सौ वर्ष कि यात्रा करने के बाद संघ ने अपने समाज को मजबूत और स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से ऐसे पंच मंत्र दिए हैं जिनके अनुसार भारत के लोग सही ढंग से आचरण करें तो भारत में बहुत बड़ा सकारात्मक परिवर्तन हो सकता है। ये पांच मंत्र वास्तव में महाभारतकालीन पांच पांडवों जैसे हैं, जो आज के युग के महाभारत में धर्म को विजयी बनाने में सहायक होंगे । जिस प्रकार से महाभारत के पांच पांडवों के अपने अपने व्यक्तित्व के गुण थे ठीक उसी प्रकार से आज के समय में इन पांच मंत्रों या पंच परिवर्तनों के भी अपने गुण हैं, जो समाज में समावेशी हो कर समाज की दशा और दिशा बदल सकते हैं । इन पंच परिवर्तन के पाँच बिंदु हैं- सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्व का बोध और नागरिक कर्तव्य और शिष्टाचार।
सामाजिक समरसता:
आज पूरा विश्व एक दौड़ में है। फिर भारत भी अछूता कैसे रह सकता है। समय के साथ-साथ समाज में कई प्रकार के बदलाव आ चुके हैं और आ भी रहे हैं। अतीत में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ सतत चले संघर्ष के उपरांत भी भारत कि संस्कृति अक्षुण बनी रही। भारत के समाज को तोड़ने का पुरजोर प्रयास किया गया और उस प्रयास में समाज को तोड़ने वाली असुरी शक्तियां कुछ हद तक सफल भी हो गई । भारत वर्ष एक पुण्य भूमि है और समय समय पर इस पुण्य भूमि पर समाज को जोड़े रखने के लिए महापुरुष भी आते रहे और आन्दोलनों के माध्यम से समाज में जाग्रति लाते रहे। समरस समाज का मन्त्र संघ नें समाज को दिया है। समरस समाज से तात्पर्य है एक ऐसे समाज का निर्माण जिस में ना तो कोई ऊँच नीच हो । ना कोई अगड़ा या पिछड़ा हो । जहाँ पर रंग, रूप, भाषा, वृति के आधार पर कोई भेद भाव ना हो । प्रकृति में विविधिता सहज और स्वाभाविक है इसलिए इस विविधिता में एकता को अंगीकार करते हुए सभी को मिल कर अपने भारतवर्ष की उन्नति के लिए मिल कर आगे आना होगा । जिस प्रकार से आजादी कि लड़ाई में पूरे भारतवर्ष के क्रान्तिकारियो ने मिल कर इस देश को आजाद करवाया था। ठीक उसी प्रकार से सभी भारतीयों को मिल कर एक समरस समाज की नीव को रखना हैं । आज हिन्दू समाज को अपने तीन स्थान पर समरसता स्थापित करनी है मंदिर ,पानी का स्थान और शमशान। जिस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने चारों भाईयों को उनकी विविध क्षमताओं के बावजूद एक सूत्र में बांधे रखा उसी प्रकार सामाजिक समरसता वह मन्त्र है जो धर्मराज युधिष्ठिर की भान्ति धर्म के मार्ग पर चलने कि प्रेरणा देता है और इसी मार्ग से ही भारत व मानवता का भला हो सकता है। इसी से देश और धर्म का पुनरुत्थान संभव है।
कुटुम्ब प्रबोधन
सीधे शब्दों में कहें तो मजबूत परिवार से मजबूत राष्ट्र का निर्माण होता है। भारतवर्ष की संस्कृति ही ऐसी है कि इस राष्ट्र में जो परिवार व्यवस्था रही है उस के कारण भारत अनेक वर्षो के संघर्ष के बाद भी आज तक अपनी संस्कृति को बचा पाया है। परन्तु समय के साथ साथ हमारी इस अनुपम व्यवस्था पर भी आघात किया गया और इसे तोड़ने का भरपूर प्रयास किया गया। आज संघ ने इस पुरातन परिवार व्यवस्था को पुनः समाज में अपनाने पर बल दिया है और इसके सफल परिणाम भी सामने आ रहे हैं। आज विश्व कि कुल आबादी का 18% लगभग 140 करोड़ जनसंख्या भारत में रहती है । हमारी परिवार व्यवस्था में संयुक्त परिवार व्यवस्था रहती है जिस में दादा-दादी, ताया-ताई, चाचा-चाची, बुआ, मासी, मामा, ननद, जेठ-जेठानी, देवर–देवरानी आदि रिश्तो का हम सब को ध्यान है । एक ही छत के नीचे तीन-तीन पीढ़िया हंसी ख़ुशी अपना जीवनयापन करती हैं। कुछ महानगरों को छोड़ दे तो आज भी ग्रामीण भारत में संयुक्त परिवार व्यवस्था देखने को मिल जाती है। आज भौतिक जगत के भागम भाग में परिवार पीछे छूट रहे हैं । मोबाइल फोन के कारण और समस्या उत्पन्न हुई है। कलह कलेश बढ़ने लगे हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि लोगों के पास परिवार के साथ बात करने का समय ही नहीं है। भारत की पुरातन संवाद करने की संस्कृति क्षीण होती जा रही है। ऐसे समय में परिवार को संभलाने की आवश्यकता है। इसके लिए ही संघ ने परिवार प्रबोधन के इस मन्त्र को समाज को दिया है । परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर सम्वाद करना अत्यंत आवश्यक है, परिवार, समाज और देश के इतिहास का बोध होना बहुत जरूरी है। जिस तरह से अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए भीम ने अपने बल से पुरुषार्थ किया था, कुछ ऐसा ही ‘परिवार प्रबोधन’ भी भीम की वही शक्ति समान है जो परिवार व्यवस्था को समाप्त करने में लगी आंतरिक और बाह्य दुष्ट शक्तियों से परिवार की सुरक्षा करने में सहायक होगी।
पर्यावरण संरक्षण
भारतीय जीवनशैली पूरी तरह से प्रकृति प्रेमी रही है । कण कण में भगवान का वास होता है यह सनातन संस्कृति का विश्वास है । केवल सनातन संस्कृति में ही प्रकृति पूजन और प्रकृति संरक्षण के रूप में मान्यता दी गयी है। पश्चिम के देशों में प्रकृति केवल उपभोग की वस्तु है, उनका मानना है कि प्रकृति का जितना ज्यादा दोहन कर सकते है उतना कर लेना चाहिये। इस के ठीक विपरीत सनातन संस्कृति में प्रकृति को माता तुल्य माना गया है । सनातन संस्कृति में पेड़- पौधों , नदी – पर्वत , ग्रह – नक्षत्र , अग्नि, वायु , जल , थल सहित प्रकृति के विभिन स्वरूपों को मानवीय संबंधों के साथ जोड़ा गया है । भारतीय परंपरा का पालन करते हुए जन्मदिन के अवसर पर पेड़ लगाने की परंपरा है, पेड़ को भाई , मित्र या संतान के रूप में देखते हैं । नदियों को ममतामई माँ के रूप में देखते हैं इसलिए भारत में हर नदी का नाम माता के रूप लिया जाता है। भारतीय दर्शन में प्रकृति की हर चीज़ के साथ मानवता का एक सम्बन्ध स्थापित किया गया है और यह परंपरा प्राचीन समय से चलती आ रही है। पशु-पक्षिओं को देवताओं के साथ जोड़ा गया इसलिए उन सभी की रक्षा करना सभी का धर्म माना गया । पर्यावरण को लेकर भारत में एक नए आन्दोलन को जागृत करने का प्रयास चल रहा है। इसमें तीन काम हैं जो सभी को करने है जिन्हें हम तीन P भी कहते हैं “पेड़ लगाना, पानी बचाना और प्लास्टिक को ना कहना” । ये सब बातें हम सब को अपने परिवार से प्रारंभ करनी हैं। प्रकृति के साथ संतुलन की भावना ही नकुल के सौंदर्य और संतुलन की अभिव्यक्ति जैसा है।
स्व का बोध
स्व के भाव का जागरण ही वास्तव में आत्मशक्ति का जागरण है । स्व यानि स्वाभिमान, स्वदेशी, स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता आदि। स्व के जागरण का सीधा सा अर्थ है कि अपने समाज के उच्च जीवन मूल्यों का बोध होना । स्व के जागरण से ही समाज में अपनी संस्कृति अपने इतिहास और अपने उच्च आदर्शों के प्रति उच्च कोटि के सम्मान व स्वाभिमान का बोध होना । स्वदेशी का होना यानि कि अपनत्व का भाव । स्वदेशी का सीधा सा अर्थ है कि जो भी हमारी संस्कृति , परम्पराओं , रीति – नीति से सम्बंधित हो । स्वदेशी वह उर्जा है कि जिसकी तपिश से अंग्रेजी सरकार को भी भारत के वीर सपूतों ने हिला दिया था । आज समाज में आवश्कता है कि जिस पुरातन परंपरा को हम भूल चुके हैं उस भव्य विरासत को पुनः अपने समाज में स्थापित करें । सनातन संस्कृति में यदि हम देखें तो पाएँगे की हमारी संस्कृति तो विश्व की सब से भव्य और समृद्धशाली संस्कृति रही है । आज योग को पूरा विश्व अपना रहा है । भारतीय कालगणना का विश्व में कोई तोड़ नहीं है । सदियों से स्थापित मंदिर भारत की उच्च वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। भारत का आयुर्वेद प्राचीन समय से विश्व की सेवा करता आ रहा है । ऐसा और भी बहुत कुछ है जिस पर हम सभी को गर्व है । आज आवश्कता है तो कवल इतनी की अपने समाज में फिर से उस स्व के प्रति एक आन्दोलन चलाने की कि जिस से हमारा समाज अपने राष्ट्र की उन अनुपम धरोहरों को स्वाभिमान से देखना प्रारंभ कर दे । इसलिए भाषा, भूषा, भोजन, भजन, भ्रमण, भवन हमारे अपने होने चाहिए। इनसे हमारे ‘स्व’ यानी हिंदुत्व का प्रकटीकरण होना चाहिए। महाभारत में गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्व का भी बोध कराया था। अर्जुन की भांति एकटक अपने लक्ष्य पर दृष्टि स्थापित करते हुए हम सबको संघ द्वारा दिए गए इस मन्त्र का आचरण करना ही होगा।
नागरिक कर्तव्य और शिष्टाचार
किसी भी देश के नागरिक यदि अनुशासित और संस्कारी हों तो वह राष्ट्र एक समृद्ध राष्ट्र माना जाता है। किसी भी देश व समाज के उतम संचालन और संवर्धन की लिए वहाँ के नागरिकों को कुछ आवश्यक अधिकार और कर्तव्यों का बोध करवाया जाता है। जिससे वहाँ के नागरिक अपने देश की समृधि व रचनात्मक कार्यों में सहयोगी बनते हैं। अनुशासन में बंधे हुए नागरिक ही देश की सब से बड़ी ताकत होते हैं । हर देश ने अपने देश के नागरिकों को अधिकार दिए होते हैं। इसी तरह से भारत में भी नागरिकों को 6 अधिकार भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किये गए हैं समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार , शोषण के विरुद्ध अधिकार , धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार , संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार , संवेधानिक उपचारों का अधिकार । इस के अतिरिक्त भारत के नागरिकों के कुछ मौलिक कर्त्तव्य भी है जिन का पालन करना हर भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य भी बनता है। उदहारण स्वरुप सार्वजनिक स्थान की स्वछता , सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा व् देखभाल, यातायात नियमो का पालन करना , पानी की बर्बादी को रोकना , पर्यावरण की सुरक्षा , जाति धर्म या वर्ग के भेदभाव को अस्वीकार करना , समरसता और बंधुत्व को बढ़ावा देना , राष्ट्रीय मान बिन्दुओं और प्रतीकों का सम्मान करना आदि । जीवन की भागदौड में हम अपने अधिकारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन अपने नागरिक कर्तव्यों के बारे में ध्यान नहीं जाता है। पांडूपुत्र सहदेव की तरह दूरदृष्टि और नैतिक विवेक की आवश्यकता आज भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक है, इसलिए हमें भी उनकी ही तरह अपने भारत राष्ट्र को परम वैभव के सिंहासन पर विराजमान करवाने हेतु इन नागरिक कर्तव्यों का निर्वाहन करना परम आवश्यक है।
संघ का ये पंच परिवर्तन अभियान वास्तव में भारत को विश्व गुरु बनाने का मार्ग खोलने वाली कुंजी है। आज पूरा विश्व भारत की और नजरें टिकाये बैठा है अपने 100 वर्षों की यात्रा के पुरुषार्थ ने संघ का अनुभव 200 वर्षों का कर दिया है और आज जिस भारत की छवि सभी को दिख रही है उस की कल्पना 100 वर्ष पूर्व संघ के स्वयंसेवकों ने कर ली थी और उस मार्ग पर चल पड़े थे । आईये हम सब भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए पंच परिवर्तन अभियान का हिस्सा बनें।






























