भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बिहार की राजनीति ने कई बार देश के सामने गंभीर सबक पेश किया है। 1990 के दशक में राज्य में सत्ता पर काबिज हुए लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने बिहार में जातिवादी राजनीति की ऐसी हवा फैलाई कि इसके परिणाम आज भी राजनीतिक और सामाजिक अध्ययन के लिए एक चेतावनी बने हुए हैं। इस दौर का सबसे भयावह और प्रतीकात्मक उदाहरण था उनका विवादित चुनावी नारा “भूरा बाल साफ करो”, जिसे राजनीतिकरण के माध्यम से हिंसा और भय का हथियार बनाया गया।
“भूरा बाल साफ करो”: नारा नहीं, राजनीतिक हथियार
यह नारा केवल एक चुनावी स्लोगन नहीं था, यह सीधे तौर पर एक समुदाय के खिलाफ हिंसा की उद्घोषणा था। ‘भूरा’ शब्द एक संक्षिप्त रूप (acronym) था:
Bhu – भूमिहार
Ra – राजपूत
Ba – ब्राह्मण
L – लाला / कायस्थ
इस तरह, एक ऐसा कथित सामाजिक न्याय के नाम पर तैयार किया गया नारा, जिसमें कथित ऊपरी जातियों को समाप्त करने का संदेश छिपा था। इसे आरजेडी ने अपनी जाति आधारित वोट बैंक रणनीति के हिस्से के रूप में अपनाया।
सामाजिक अध्ययन और राजनीतिक विश्लेषण यह बताते हैं कि इस नारे ने बिहार की जनता के बीच गहरी ध्रुवीकरण की स्थिति पैदा की। गाँवों में हिंसा फैल गई, ऊपरी जातियों के लोग मारे गए या विस्थापित हुए, और समाज में भय और अविश्वास की भावना ने जन्म लिया।
जंगलराज का जन्म: शासन और व्यवस्था का पतन
लालू यादव और बाद में राबड़ी देवी के शासन में बिहार में ‘जंगलराज’ का युग शुरू हुआ। कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो गई। पुलिस और प्रशासन राजनीतिक दबाव और अपराधियों के हाथों में खिलौने बन गए। इस दौर में मुहैया कराई गई सुरक्षा केवल उन लोगों के लिए थी जो सत्ता से जुड़े थे। गिरोह और अपराधियों ने स्वतंत्रता की स्थिति में राज्य में राज किया। नामी गिरोहों, जैसे मोहम्मद शहाबुद्दीन और मोहम्मद तसलीमुद्दीन ने अपने निजी क्षेत्र स्थापित कर लिए और हिंसा का शासन चलाया।
उद्योग और व्यवसाय इस माहौल में असुरक्षित हो गए। निवेशक और व्यापारी राज्य छोड़कर चले गए। युवा शिक्षित वर्ग बिहार छोड़कर अन्य राज्यों की ओर पलायन करने लगे। इस तरह, “सामाजिक न्याय” के नाम पर फैलाई गई राजनीति ने राज्य की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना को गहरे संकट में डाल दिया।
मीडिया की मौन सहमति और दमन की राजनीति
इस पूरी प्रक्रिया में मीडिया का रवैया भी सवालों के घेरे में आया। कई पत्रकारों और आउटलेट्स ने जातिवादी हिंसा और नफरत के प्रचार को सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया की तरह प्रस्तुत किया। राजनैतिक विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट है कि मीडिया ने लालू-आरजेडी के नारे और हिंसा को व्याख्या के बजाय “सामाजिक आंदोलन” के रूप में पेश किया।
अगर वही हिंसा किसी भाजपा या अन्य राष्ट्रीयवादी पार्टी की ओर से होती, तो मीडिया उसकी आलोचना और शब्दों के स्तर पर कटाक्ष करता। यहाँ चयनात्मक दृष्टिकोण और नैतिक पक्षपात साफ दिखाई देता है।
जातिवादी राजनीति और ‘एमवाई’ फॉर्मूला
लालू यादव ने अपनी राजनीतिक रणनीति में मुस्लिम-यादव (MY) गठबंधन की नींव रखी। इस फॉर्मूले ने ऊपरी जातियों के हिंदुओं को रणनीतिक रूप से अलग-थलग करने और राजनीतिक आधार बनाने का काम किया। यह गठबंधन संवेदनशील सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण पर आधारित था।
भूरा बाल साफ करो का नारा इस रणनीति का प्रतीक था। यह केवल एक नारा नहीं रहा, बल्कि बिहार की राजनीतिक संस्कृति में हिंसा और भय का स्थायी प्रतीक बन गया।
आज भी छाया है ‘भूरा बाल साफ करो’
दशकों बाद भी, इस नारे की राजनीतिक और सामाजिक धारा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। 2025 में गाया में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में आरजेडी के नेता ने इसे फिर से दोहराया। इस प्रकार, यह स्पष्ट हो गया कि यह नारा पार्टी के कुछ सदस्यों के भीतर अब भी प्रभावी है और जातिवाद को राजनीतिक लाभ के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति कायम है।
लोकतंत्र और इतिहास की भूल
भूरा बाल साफ करो न केवल बिहार के लिए, बल्कि पूरे देश के लोकतंत्र के लिए चेतावनी है। यह दिखाता है कि कैसे राजनीतिक नेतृत्व और उसकी रणनीति एक समाज को भय और विभाजन के दलदल में धकेल सकती है।
ऐसी घटनाओं को नजरअंदाज करना या उन्हें सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया की तरह पेश करना इतिहास और नैतिकता दोनों की अनदेखी है। पत्रकारिता और नीति निर्माण में इस त्रुटि ने लोकतंत्र की मजबूत नींव को कमजोर किया।
भूरा बाल साफ करो नारा और आरजेडी की जातिवादी राजनीति बिहार में हिंसा, सामाजिक ध्रुवीकरण और आर्थिक पतन का प्रतीक बन गई। इसका असर आज भी राजनीतिक चेतना और सामाजिक संरचना पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह नारा केवल एक चुनावी रणनीति नहीं, बल्कि इतिहास की सीख है कि जातिवादी राजनीति और चयनात्मक मीडिया समर्थन समाज को कितने बड़े संकट में डाल सकते हैं।
इस घटना का अध्ययन यह भी दिखाता है कि लोकतंत्र के मजबूत होने के लिए राजनीतिक नेतृत्व, सामाजिक चेतना और मीडिया की निष्पक्षता अनिवार्य हैं।




























