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वामपंथ ही आधुनिक युग का ब्राह्मणवाद है

Toyaj Bhushan Mishra द्वारा Toyaj Bhushan Mishra
12 March 2016
in मत
Communists
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वामपंथ ही आधुनिक युग का ब्राह्मणवाद है

बचपन से ही हम पढ़ते आ रहे हैं कि सदियों पहले से भारत एक ऐसा भू-खंड रहा है जो अपने प्राकृतिक संसाधनो एवं जलवायु विविधता कारण विदेशियों को आकर्षित करता रहा है | इसकी प्रारम्भिक कल्पना ही ऐसे तृतीय-विश्व साम्राज्य के तौर पर की गयी जिसके सभी निवासी आर्थिक एवं सामजिक दृष्टि से पतित थे | इन सभी को इतिहासकारों द्वारा ‘मूलनिवासी’ माना गया जो कि प्राचीन काल में ‘दास’ और ‘दस्यु’ में वर्गीकृत थे | यहाँ सिंधु घाटी सभ्यता एक अपवाद थी परन्तु इसका विस्तार सीमित था और यदि इस कहानी को सत्य माना भी जाए तो इसके अनुसार तिथियों का मिलान करने पर इतिहासकारों ने ये पाया की ऋगवेद काल और बौद्ध काल लगभग एक ही था जो कि असंभव है क्यूंकि भगवान बुद्ध ने कथित हिन्दू धर्म की कुरीतियों का विरोध किया था और कुरीतियों के फैलने से पहले ही उनका विरोध भला कैसे संभव है ? फिर आगमन हुआ खनाबदोश प्रवृत्ति के कुशल घुड़सवार एवं युद्धकला में प्रवीण विदेशियों का जो मध्य यूरोप से पलायन कर सिंधु नदी को पार करते हुए भारत में आ बसे थे | आधुनिक तथा आवश्यकता से अधिक कल्पनाकार इतिहासकारों द्वारा इनको ऐसे खलनायकों के रूप में दर्शाया गया जिनको भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक विरासत की संरचना का श्रेय तो दिया गया परन्तु साथ ही उनको हज़ारों साल बाद के भारत के सामजिक विभाजन का उत्तरदायी घोषित कर दिया गया | इतिहासकारों की इस बौद्धिक-स्वछंदता की उपज को ‘आर्यन’ की संज्ञा दी गयी | मैक्स मूलर जैसे इतिहासकारों द्वारा प्रसारित किये गए इस सिद्धांत को हमारे यहाँ के छात्र  ‘Aryan Invasion Theory ‘  नाम से पढ़ते हैं जिसकी विश्वसनीयता पंचतंत्र की कथाओं से भी कम परन्तु कल्पना बराबर की ही है |

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दोनों विश्वयुद्ध में नहीं मारे गए जितने लोग, उससे अधिक को भारत में ‘लाल आतंकवाद’ ने लील लिया: बुद्धिजीवी के वेश में ‘अर्बन नक्सली’ भी अब समस्या

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की टूटने लगी कमर।

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अंग्रेज़ों के शासनकाल और तत्पश्चात कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में तथाकथित बुद्धिजीवियों के ऐसे वर्ग का वर्चस्व रहा जो थे तो भारतीय परन्तु अपनी इस पहचान में उन्हें गर्व की अनुभूति कभी भी नहीं हुई | इस विभाजित तथा विभाजक भारतीय सामजिक परिवेश में ऐसी अनैतिक व्यवस्था में प्रवेश कर उसको अंदर से बदलने की अपेक्षा इन्होने तटस्थ रहकर समाज को कोसना शुरू किया | ये व्यवस्था परिवर्तन की मांग तो करते रहे पर कभी भी उस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की | स्थापित विचारधारा के समानांतर एक वैकल्पिक विचारधारा की इन्होने वकालत तो की परन्तु खुद अपनी विचारधारा के विरोध पर सहनशीलता कभी भी नहीं दिखाई | इनकी रूचि सामजिक परिवर्तन में कम और सत्ता- परिवर्तन में अधिक रही | इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण ही यही है कि आज़ादी के उपरान्त साठ सालों तक इनके मन-माफ़िक़ सरकार के बाद भी भारतीय समाज की कुरीतियों के अवमूलन में कोई प्रगति नहीं दिखी | बदलाव की राजनीति की बात करने वाले ये लोग विरोध की राजनीति तक ही सीमित रह गए | तर्क-संगत विरोध को हमेशा समाज ने अपनाया है | परन्तु सिर्फ विरोध के लिए किये जाने वाला विरोध, अपने मूल उद्देश्य का ही विरोधाभास है |

आखिर कौन लोग थे ये जिन्होंने इस देश में ऐसा निराशा का माहौल उत्पन्न किया ? ये वो थे जो आदि काल में ब्राह्मणो द्वारा दलितों पर अत्याचार के लिए आज की ब्राह्मण पीढ़ी को तो हाशिये पर खड़ा कर देते थे परन्तु मुग़लों और तुर्कों द्वारा किये गए अत्याचार के लिए कभी मुस्लिमो को दोषी नहीं ठहराया | ऐसा करना भी नहीं चाहिए |  ये थे हमारे-आपके बीच ही रहने वाले वामपंथी |   शुरुआत इन्होने वैचारिक स्वतंत्रता की मांग से की | देश में वैचारिक स्वतंत्रता आज़ादी के बाद प्राप्त भी हो चुकी थी |

तो वामपंथ की दुकान ने मानवाधिकार और पर्यावरण-रक्षा का झुनझुना बेचना शुरू कर दिया |

इससे भी बात नहीं बनी तो जातिवाद और सम्प्रदायवाद की दुकान लगायी | यहां इनकी दाल गल गयी | जय भीम के चार नारे और कश्मीर की आज़ादी का कॉम्बो धुआंधार बिका और अब भी बिक रहा |  परन्तु समय के साथ-साथ इनकी विकास विरोधी छवि भी निखरती गयी |

दक्षिणपंथी विचारधारा की सरकार के केंद्र में आने के बाद से इनके कुनबे में अजब से बेचैनी है | अपना ही गला दबा के ये कह रहे कि इस माहौल में हमारा दम घुट रहा है | इसको साबित करने के लिए हर राज्य में जहाँ दक्षिणपंथी सरकार है वहाँ दलित और मुस्लिमों के मसीहा बनने का प्रयास कर रहे ये लोग | अन्य राज्यों में दलितों और मुस्लिमों पर होने वाले अत्याचार पर इन्होने चुप्पी साध रखी है | क्योंकि एजेंडा तो सदैव ही एजेंडा-बेस्ड होता है | हाल-फिलहाल कि कुछ घटनाओं पर नज़र डालेंगे तो ये पूर्णतयः स्पष्ट भी हो जाएगा | कुछ दिन पहले बिहार में सौ दलितों के घर फूँक दिए गए पर शायद ही कोई वामपंथी इसका विरोध करने बिहार गया हो |  इनके मुंह से हमेशा आप लोकतंत्र, धर्म-निरपेक्षता, जातीय समानता आदि की रट सुन सकते हैं | परन्तु जब दादरी की एक घटना को धार्मिक रंग दे कर पूरे देश को ही असहिष्णु बता दिया जाये तो समझिये कि ये धर्म-निरपेक्षता झूठी है । जब हैदराबाद के दलित छात्र की आत्म-हत्या पर राजनीति हो और लखनऊ के ब्राह्मण छात्र की आत्म-हत्या पर ख़ामोशी तो समझिये कि ये जातीय-समानता का आपका नारा झूठा है । जब जे०एन०यू० के राष्ट्रद्रोही नारे को अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाए और कमलेश तिवारी को बयान पर जेल तब आपकी अभिव्यक्ति की आज़ादी झूठी है । जब मालदा की हिंसा आपको मामूली घटना और वकीलों द्वारा पिटाई लोकतंत्र की हत्या लगे तो आपकी लोकतंत्र की समझ ही झूठी है । ऐसी न जाने कितने ही उदाहरण हैं जिसमें वामपंथियों ने पाखण्ड में वैदिक काल के ब्राह्मणों को पीछे छोड़ दिया । दरअसल वामपंथी बनने की पहली शर्त ही यही है कि hypocrisy में आपको स्नातक की डिग्री प्राप्त हो । निज-स्वार्थ के लिए गरीब को बेचिए तो आप बन गए पूंजीवादी और अपने स्वार्थ के लिए यदि आपने गरीबी बेची तो आप बन जायेंगे वामपंथी । अतः यह कहना गलत न होगा की वामपंथ ही आधुनिक युग का ब्राह्मणवाद है ।

आज़ादी के बाद का माहौल भी वामपंथियों के फलने-फूलने के लिए सर्वोत्तम समय था । गरीब और गरीबी ही हमारे देश की पहचान थी । दक्षिणपंथी तनिक उग्र स्वभाव के थे । देश और ईश दोनों की ही निंदा उनके लिए निंदनीय थी । इसका उत्तर तर्क की जगह बल से देना वो उचित समझते थे । यही वामपंथ उन पर भारी पड़ा । वो खुद तो अहिंसा की बातें करते थे पर नक्सलियों द्वारा हिंसा को न केवल जायज़ ठहराया अपितु उसकी योजना में लिप्त भी रहे । मीडिया ने भो इनका बखूबी साथ निभाया । सनसनी पसंद मीडिया को भी विद्रोह पसंद है । विकास कार्यों में रूचि रखने वाले लोग ही कम हैं । जब दिल्ली में जली किताब बिहार में जली सौ झोपड़ियों से ज्यादा सुर्खी बटोर ले तब समझ आता है कि आखिर मीडिया में गड़बड़ क्या है !

भारतीय समाज अपरिपक्व है । इसमें वैकल्पिक विचारधारा के लिए जगह तो है पर वो विचारधारा वामपंथ नहीं हो सकती । समाजवाद कुछ हद तक इस कसौटी पर सही बैठता है । पर भगत सिंह का समाजवाद और लोहिया का समाजवाद ही केवल । दलाली कर जनता के बीच समाजवादी का नकाब ओढने वालों की यहाँ कोई जगह नहीं । समाजवादी भी आपको किसी पार्टी विशेष में नहीं हर दल में मिलेंगे । जरूरत है ऐसे लोगों के दल से ऊपर उठ कर संगठित होने की । समाजवाद का यह प्रयोग खतरनाक भी तब साबित हो जाता है जब समाज के इस शून्य को कुछ लोग आम आदमी की राजनीति के नाम पर विकृत समाजवाद से भर देते हैं । ये वामपंथ का सबसे निचला स्तर है । उपयुक्त विकल्प मिलने तक पूंजीवाद और समाजवाद का अधपका मिश्रण ही सर्वश्रेष्ठ है । विकास की ओर बढ़ा ये कदम धीमा जरूर है पर इसका पथ लक्ष्य से महक रहा है ।

Tags: ब्राह्मणवादवामपंथ
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