“Not in my name” “मेरे नाम पे नहीं” पर मेरे नाम पे क्या नहीं; बेशक मेरे नाम पे गौहत्या रोकने के काम में होने वाली हत्याये नहीं, पर साथ ही मेरे नाम पे गौहत्या भी नहीं, और ना ही गौ तस्करों द्वारा की जाने वाली गौरक्षकों की हत्याएँ। “I am a proud beef eater” वाले वो पोस्टर और वो फेसबुक पोस्ट “मेरे नाम पर नहीं”।
अगर दादरी “मेरे नाम पर नहीं” तो DY SP अय्यूब की हत्या भी “मेरे नाम पर नहीं”। अगर पत्थरबाजो पे पैलेट गन चलना “मेरे नाम पर नहीं” तो देश को तोड़ने की साजिश रचना भी “मेरे नाम पे नहीं”। अगर 2002 “मेरे नाम पर नहीं” तो फिर गोधरा भी “मेरे नाम पर नहीं”। जी हाँ कश्मीरी पंडितों का नरसंहार “मेरे नाम पर नहीं”, सिखों को गाजर मूली की तरह काटना “मेरे नाम पे नहीं”
केरल में स्वयंसेवको को जान से मारना मेरे नाम पर नहीं, विश्वविद्यालयों से माओवाद फैलाना “मेरे नाम पर नहीं”, पत्रकारिता के नाम पर ISI का एजेंडा चलना “मेरे नाम पर नहीं”, कम्युनिस्टो द्वारा “भारत तेरे टुकड़े होंगे” चिल्लाना मेरे नाम पर नहीं, दुश्मन देश पाकिस्तान से देश में सत्तांतर करने के लिए मदद मांगना “मेरे नाम पर नहीं”, किसानों के नाम पे देश में दंगे भड़काना “मेरे नाम पर नहीं”, आतंकियो के लिये रात के दो बजे न्यायालय खुलवाना “मेरे नाम पे नहीं”।
जी हाँ उपरोक्त लिखी सारी बाते “मेरे नाम पे नहीं” क्यों के एक ही विषय पे दो दोहरे मापदंड़ नहीं हो सकते। पर ये ही तो कम्युनिस्टो और माओवादी विचारधारा वाले लोगो की खासियत है। उनके मापदंड वस्तुस्थिति को देख कर तय होते है। दादरी में छाती पीट-पीट कर विधवा विलाप करने वाले हमारे कम्युनिस्ट नेता, मानवतावादी समाजसेवक, देश के बुद्धिजीवी और एजेंडा-ग्रसित पत्रकार, CRPF के DYSP अय्यूब की हत्या पे ऐसे चुप थे मानों साँप सूंघ गया हो। ताज्जुब की बात ये थी की अख़लाक़ और अय्यूब दोनों एक ही धर्म के होने के बावजूद अय्यूब साहब वो भीड़ नहीं जुटा पाये जो अख़लाक़ जुटाने में कामयाब हुआ जब इसकी तह तक जाते है तब तब पता चलता है के जिन्होंने हत्याये की है उनके धर्म भिन्न होने की वजह से ऐसा विरोधाभास है।
वैसे देखा जाये तो देश के बुद्धिजीवी बड़े ही सिस्टेमैटिक होते है, सब कुछ एक सिस्टम से चलता है चलो इसके लिए एक प्रमेय देखते है, जब कोई हत्या होती है तब पहले ये देखा जाता है के मरनेवाला कौन है। अगर मरने वाला हिन्दू है तब पहले उसकी जात पता की जाती है। अगर मरने वाला सवर्ण है तो उस मामले को वैसे ही छोड़ दिया जाता है। मरने वाला दलित है तो देखा जाता है के मारने वाला कोण है। अगर मारने वाला दलित है तो “छोडो भाई उनके आपस का मामला है”। अगर मारने वाला सवर्ण है तो देखो वारदात कौन से राज्य में हुई है। BJP शाषित है या गैर BJP। अगर गैर BJP है तो जाने दो और अगर BJP शासित है तो बिना किसकी गलती है इसकी पड़ताल किये विधवा-विलाप मोड़ एक्टिवेट हो जाता है। अब बात करते है अगर मरने वाला मुस्लिम हो तो। उस मे देखा जायेगा के मारने वाला कौन है। अगर मुस्लिम है तो जाने दो। अगर हिंदू है तो फिर चिल्लाओ असहिष्णुता का नारा जोर से।
हाला की इन सब गतिविधियों से इन देशद्रोहियों को कुछ खास हाथ लग नहीं रहा है। क्यों के जितना देश के बुद्धिजीवी ISI के तय किये अजेंडे पे चल रहे है उतना ही उनका मकसद और धुंधला होता जा रहा है। उनका मुख्य मकसद है ऐसी हरकतों से देश की BJP सरकार और मोदीजी को कमजोर किया जाये। पर अपेक्षा के विपरीत देश में मोदीजी और BJP दोनों ही मजबूत हुए जा रहे है। निकाय चुनावों से ले कर राज्य के चुनावों तक जीतते ही जा रहे है। और बस जीत ही नहीं रहे है तो नए कीर्तिमान स्थापित कर के जित रहे है।
जो लोग अब भी ये सोच रहे है के अब BJP कमजोर हो चुकी है और 2019 में उनके कुछ मौके अब भी मौजूद है तो आईये कुछ तथ्यों को जाने। BJP जो कभी उत्तर पूर्वी राज्यों में अपनी स्थिति ठोस नहीं कर पायी थी आज सात में से पांच उत्तर पूर्वी राज्य सिक्किम, नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में सरकार का हिस्सा है, और त्रिपुरा में हजारो लोग BJP को आ के मिल रहे है। ओडिशा में जहाँ BJP एक कमजोर पार्टी हुआ करती थी वहाँ BJP ने निकाय चुनाव में BJD की नींद उड़ा दे ऐसा प्रदर्शन किया है। तमिलनाडु में भले ही BJP कोई सीट जीत नहीं पायी हो पर अपनी उपस्थिति दर्शाने में कामयाब रही। वही केरल में पहली बार BJP का सदस्य विधानसभा में है, जिस जम्मू और कश्मीर में किसी हिंदुत्ववादी पार्टी की सरकार बनना लगभग नामुमकिन था वहाँ आज BJP सत्ता का हिस्सा है, उत्तर प्रदेश में प्रचण्ड बहुमत के साथ सरकार बना चुकी है, बिहार के मौजूदा हालात देख कर इसका अहसास हो सकता है के बिहार में भी जल्द ही BJP सत्ता का हिस्सा होगी। 2014 के मुकाबले BJP आज काफी बहेतर स्थिति में है।
देश की जनता अब जाग चुकी है, ढकोसलों से तंग आ चुकी है। अब उसे सच्चा विकास चाहिए। जो की देश के प्रधानसेवक मोहय्या करायेंगे इसका विश्वास भी इस जनता को है।
अगर अब भी हमारे देश के बुद्धिजीवियों, कम्युनिस्टों, फर्जी सेक्युलरो और एजेंडा पत्रकारों को ये लगता है के “Not in my name” जैसी ओछी हरकते कर के वो वापस ताकत हासिल कर सकते है तो इसपे इतना ही कहना चाहूँगा “दिल बहलाने के लिये खयाल अच्छा है ग़ालिब”।