भारत अपने आप में दुनिया का अनोखा देश है इस बात को आप ऐसे समझ सकते हैं कि आज़ादी के ७० वर्ष बाद भी भारतीय अपनी भाषा में न्याय पाने से वंचित हैं .. क्यों? आज भी भारतीय उच्चतम न्यायलय एवं उच्च न्यायालय की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी ही है
पिछले दिनों भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने दो बड़े फैसले दिए हैं जिनमे से एक है ‘ट्रिपल तलाक’ के मुद्दे पर और दूसरा ‘निजता के अधिकार’ पर दोनों ही फैसले भारत के सामाजिक और राजनैतिक चिंतन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालेंगे लेकिन जिस तरह से इन फैसलों को अकादमिक क्षेत्रों में लिया जायेगा क्या सामाजिक स्तर पर भी आम लोगों में भी वैसी चर्चा होगी, शायद नहीं
ए.के.गोपालन बनाम मद्रास राज्य, शंकरी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, इंदिरा नेहरु गाँधी बनाम राज नारायण, मेनका गाँधी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य, मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बनो बेगम, इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, डी. के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया आदि फैसलों ने भारतीय राजनैतिक-सामाजिक चिन्तन एवं प्राशसनिक व्यवस्था को एक दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है लेकिन क्या आमजन इन फैसलों से आये बदलाव को समझने से केवल इस वजह से वंचित कर दिए जायेंगे क्यूंकि वो अंग्रेजी समझने में सक्षम नही है?
सन्देश कैसा भी हो, प्रभावी तभी होगा जब सन्देश उन लोगों तक उनकी भाषा में पहुंचे जिन्हें वह प्रभावित करना चाहता है क्या हमारी अदालतें [सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट] बदलाव को समझने के लिए तैयार है? आज भी हमें अर्थात ‘हम भारत के लोग’ अपनी अदालतों से अपनी भाषा में न्याय पाने के लिए प्रयासरत है सोचिये अगर ये सभी फैसले हमारी अदालतो[सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट] की वेबसाइट पर हिंदी या सम्बंधित राज्य की स्थानीय भाषाओ में भी पीडीएफ फॉर्मेट में उपलब्ध हो जाते तो भारतीय न्यायिक फैसलों की पहुँच कितनी बढ़ जाती आम जन भी उन फैसलों की बारीकियों को आसानी से समझ सकता
१३ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा की बैठक में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा था, विदेशी भाषा आम जन की भाषा नहीं हो सकती और विदेशी भाषा के जरिये कोई भी देश महान नही बन सकता १४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा में बहस के बाद एक मत से निर्णय लिया गया कि हिंदी भारत की राजभाषा होगी, न कि राष्ट्र भाषाक्योंकि कुछ राज्य हिंदी के पक्ष में नही थे और आम सहमती नही थी इसलिए अंग्रेजी को भी हिंदी के साथ राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया
संविधान के भाग – १७, अध्याय – १ में संघ की राजभाषा से सम्बंधित प्रावधान किये गये है जिसके अनुसार –
“अनुच्छेद – ३४३(१) में कहा गया है – संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंको का रूप भारतीय अंको का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा
अनुच्छेद – ३४३(२) में कहा गया है – खंड(१) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से १५ वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था ;
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंको के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा
अनुच्छेद – ३४३(३) में कहा गया है – इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त पंद्रह वर्ष की अवधि के बाद, विधि द्वारा- (क) अंग्रेजी भाषा का, या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का,
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किये जाये”
इसप्रकार, केवल १५ वर्षों के लिए १९६५ तक के लिए अंग्रेजी की व्यवस्था की गई थी ताकि जिन राज्यों में हिंदी नही बोली जाती उन प्रदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार हो सके लेकिन १९६५ में यह प्रस्ताव पारित हुआ की सभी सरकारी कार्यों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का भी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग होता १९६७ में ‘भाषा संसोधन विधेयक’ संसद में पारित कर राजकाज में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया
२००९ में गुजरात हाई कोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, न कि राष्ट्रभाषा का इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा नही है
सभी २४ उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की अधिकारिक भाषा अंग्रेजी है अप्रैल २०१६ में जब मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर के समक्ष हिंदी को उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की अधिकारिक भाषा के रूप मे प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से संविधान में संसोधन के लिए याचिका दाखिल हुई तो उन्होंने इसे ‘frivolous’(तुच्छ) एवं ‘n Abuse of the process of law’ (न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग) कहकर ख़ारिज कर दिया
क्या वाकई अपनी भाषा में न्याय मांगना ‘An Abuse of the process of law’ (न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग) है?
उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की भाषा से सम्बंधित प्रावधान संविधान के भाग – १७, अध्याय – ३ में किये गये है जिसके अनुसार –
“अनुच्छेद ३४८ – उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा –
(१) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक
(क) उच्चतम न्यायालय एवं प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होंगी;
(ख) (i) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुर:स्थापित किये जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किये जाने वाले उनके संसोधनों के,
(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों के, और
(iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बने गई किसी विधि के अधीन निकले गये या बनाये गये सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के,
प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे
(२) खंड (१) के उपखंड (क) में किसी बात के होते हुए भी किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमती से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिंदी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा;
परन्तु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गये किसी निर्णय, डिक्री या आदेशों पर लागू नही होगी”
इसप्रकार, अनुच्छेद-३४८ (२) से स्पष्ट है कि राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिंदी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा इसके लिए सम्बंधित उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय से अनुमति/सहमती लेने की जरुरत नही है संविधान की भावना स्पष्ट है अर्थात् न्यायालय की कार्यवाही राज्यपाल के आदेश द्वारा एवं राष्ट्रपति की सहमति से हिंदी या उस राज्य की राजभाषा में किये जा सकते हैं इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नही है
दरअसल संविधान के प्रावधान स्पष्ट हैं, लेकिन १९६५ का कबिनेट नोट है जो कि इस रास्ते में रुकावट बना हुआ है जिसके तहत उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की भाषा में बदलाव करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति जरुरी है हाल ही में संसदीय समिति ने केंद्र सरकार से १९६५ के उस कैबिनेट नोट पर पुन:विचार करने को कहा है ताकि भाषाई स्तर पर इस रुकावट को दूर किया जा सके उम्मीद है सकारात्मक बदलाव आयेगा