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नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी, लॉकडाउन के बहाने भारत को वेनेजुएला या क्यूबा बनाना चाहते हैं

जिस Socialism ने वेनेजुएला को गरीब बनाया, उसी की ओर भारत को ढकेलना चाहते हैं अभिजीत!

Shikhar Srivastava द्वारा Shikhar Srivastava
12 June 2021
in चर्चित
नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी, लॉकडाउन के बहाने भारत को वेनेजुएला या क्यूबा बनाना चाहते हैं

BBC

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अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी ने भारत में आर्थिक सुधार के लिए यह सुझाव दिया है कि सरकार मनरेगा मजदूरी के दिन की संख्या को 100 से बढ़ाकर 150 करे और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जिस प्रकार राशन, केरोसिन आयल आदि बांटा जाता है उसी प्रकार पैसे भी बांटे, जिससे गरीबों के हाथ में पैसे आएं और वह अधिक धन खर्च करें। अभिजीत बनर्जी का मानना है कि अगर गरीबों के पास धन आएगा तो वह खरीदारी करेंगे जिससे मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में तेजी आएगा।

.@OnReality_Check | Prof Abhijit Banerjee, Nobel Laureate and Economist on lockdowns during the pandemic#COVID19 pic.twitter.com/G0VhSFBFOk

— NDTV (@ndtv) June 10, 2021

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सुनने में यह एक फुलप्रूफ प्लान लगता है, लेकिन इसमें कई आशंकाएं हैं। उन्हें समझने से पहले ये समझना जरूरी है कि अभिजीत बनर्जी विश्व के सर्वोत्तम अर्थशास्त्री नहीं है। अगर किसी को यह भ्रम है तो वह यह बात अपने दिमाग से निकालकर तार्किक अन्वेषण के लिए तैयार रहे। दुनियाभर में आधे से अधिक यूरोप, चीन और जापान आदि कई ऐसी अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्होंने तरक्की की है, लेकिन उनके यहाँ एक भी नोबल विजेता नहीं है। उदाहरण के लिए चीन का आर्थिक मॉडल पारंपरिक पश्चिमी आर्थिक मॉडल पर एक करारा तमाचा है। पश्चिम मानता है कि आर्थिक विकास बाजार की स्वतंत्रता पर निर्भर करता है और बाजार की स्वतंत्रता लोकतंत्र से जुड़ी है। चीन का आर्थिक मॉडल बिना लोकतंत्र वाला, स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा वाला आर्थिक मॉडल है। फिर भी विकसित है और अब तो पश्चिम को चुनौती दे रहा है। चीन में कभी भी राजनीतिक आंदोलन की छूट नहीं रही इसलिए व्यापार के लिए जितना स्थिर राजनीतिक माहौल चीन ने दिया, उतना किसी ने नहीं दिया। इसलिए दुनिया की हर बड़ी कंपनी ने चीन में निवेश किया।

रही बात अभिजीत बनर्जी की तो वह जैसे आर्थिक मॉडल सुझा रहे हैं वैसा मॉडल कुछ वर्षों पहले वेनेजुएला ने अपनाया था। सरकारी कंपनी के लाभ को विभिन्न भत्तों के जरिये आम लोगों में बांटा जाता था। लोग बिना काम किए सिर्फ भत्ते पर जीवित थे। सरकारी तेल कंपनी एकमात्र बड़ी कंपनी थी, वही लोगों को रोजगार भी देती थी और इसके अतिरिक्त कोई बड़ी आर्थिक इकाई मौजूद ही नहीं थी जो लोगों को रोजगार (वेतन) देती हो। जैसे ही सरकारी तेल कंपनी को नुकसान हुआ, भत्ते बन्द हुए, लोगों की छंटनी होने लगी, अर्थव्यवस्था में तेल कंपनी के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं होने के कारण सरकार बढ़ती बेरोजगारी को संभाल नहीं सकी और वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था भरभराकर गिर गई। आप क्यूबा के बारे में पढ़ें, कमोबेश यही कहानी देखने को मिलेगी।

यही घटनाक्रम सऊदी में हो इसके लिए मोहम्मद बिन सलमान तेजी से सऊदी की अर्थव्यवस्था को बदल रहे हैं। अब बात करें अभिजीत बनर्जी की तो उनका कहना है कि सरकार को इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में खर्च न करके भत्ते बांटने चाहिए। तो क्या वह भारत को वेनेजुएला बनाना चाहते हैं। हम नहीं मानते की उनकी नियत गलत होगी, लेकिन कल को भारत का हाल वेनेजुएला जैसा हो जाए तो उनका कुछ नहीं जाएगा, क्योंकि तब वो अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय में कोई अन्य रिसर्च कर रहे होंगे।

भारत में 140 करोड़ की जनसंख्या रहती है, इतनी बड़ी जनसंख्या को भत्ता देना क्या सम्भव है? जब US और चीन की ट्रेड वॉर चल रही थी और चीन से विदेशी विनिर्माण इकाइयां बाहर निकल रही थी तो हर बड़ी कंपनी ने भारत से अधिक तवज्जो आसियान देशों को दी थी। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में उतना विकसित इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था। एक्सप्रेस वे सड़कों और तेज गति से दौड़ती रेलवे का जाल नहीं था। बंदरगाहों का वैसा विकास नहीं था जैसा मलेशिया, सिंगापुर, विएतनाम आदि में है।

आज भी भारत की बड़ी आबादी देश के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश आदि अंदरूनी हिस्से में रहती है। जब तक इन राज्यों को एक्सप्रेस वे, रिवर वे और रेलवे नेटवर्क के जरिए बंदरगाहों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर आर्थिक इकाइयां कैसे स्थापित होंगी। अभी भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर इतना पीछे है कि किसी सामान को कंपनी में बनाने में जितना ख़र्च आता है, उससे अधिक खर्च माल को फैक्ट्री से बंदरगाह तक ले जाने में हो जाता है। फिर बंदरगाहों पर भी एक सीमा से अधिक समान स्टोर करने की सुविधा नहीं है। न तो इतने बड़े पैमाने पर कन्टेनर हैं, न ही जगह है। साथ ही यूरोप या आसियान देशों की तरह भारतीय बंदरगाहों की अपनी लम्बी हवाई पट्टियां, रेलवे कॉरिडोर नहीं हैं। इन सबके विकास के लिए पैसे कहाँ से आएंगे।

सरकार आज भत्ते बांटकर लोगों को अल्पकालिक राहत दे सकती है, लेकिन इससे न तो मांग बढ़ेगी और न ही यह कोई दीर्घकालिक समाधान है। भत्ते बांटने के लिए टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। इसमें भी समस्या है। भारत में बेहतर संचार सुविधा का अभाव है इसलिए निवेश आकर्षित करने के लिए सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स कम किया है। अब भत्ते के चक्कर में टैक्स बढ़ाकर अपने आर्थिक विकास को दांव पर नहीं लगाया जा सकता।

भारत की आबादी इतनी अधिक है कि भत्ते बांटने की योजना लागू करना बहुत मुश्किल है। देश के कुछ राज्यों से आय अधिक होती है, कुछ से कम, ऐसे में एक पर टैक्स लगाकर दूसरे को भत्ता देना कितना जायज है। गुजरात पर टैक्स लगाकर, बंगाल में भत्ते बांटना, क्या इससे संघीय ढांचे को खतरा नहीं आएगा।

बनर्जी की बात सुनने में अच्छी लगती है, क्योंकि समाजवाद की यही विशेषता है कि वह कर्णप्रिय बातें करता है, लेकिन विश्व में किसी समाजवादी देश ने आर्थिक तरक्की नहीं कि है। यह सत्य है कि अमेरिका और यूरोप के कई देश भत्ते बांटने का काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी तुलना भारत से नहीं हो सकती। उनकी आबादी के हिसाब से उनका आर्थिक विकास बहुत अधिक है। भारत की आर्थिक नीति भारत के अनुरूप ही बननी चाहिए। अमेरिका में लागू हुई नीतियां भारत में भी कारगर होंगी ये वही सोच सकते हैं जो सुबह के नाश्ते में इंग्लिश ब्रेकफास्ट खाते हैं, पूड़ी सब्जी और जलेबी नहीं।

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