प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज शनिवार को घोषणा की कि 14 अगस्त को लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि विभाजन के दर्द को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने उल्लेख किया कि लाखों लोग विस्थापित हुए तथा विभाजन और हिंसा के कारण कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। प्रधानमंत्री ने कहा, “हो सकता है कि ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’, हमें सामाजिक विभाजन, असामंजस्य के जहर को दूर हटाने की आवश्यकता की याद दिलाते रहें और एकता, सामाजिक सद्भाव और मानव सशक्तिकरण की भावना को और मजबूत करने मे मदद करें।” यानि देखा जाए तो प्रधानमंत्री ने एक तीर से दो लक्ष्यों को साधा है। पहला तो यह कि इससे कांग्रेस की विभाजन में भूमिका को याद रखा जाएगा और साथ ही पाकिस्तान की करतूतों को भी जनमानस के बीच जिंदा रखा जाएगा।
14 अगस्त अर्थात 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' #PmModi #PartitionHorrorsRemembranceDay pic.twitter.com/aZSJ1D4mcI
— tfipost.in (@tfipost_in) August 14, 2021
भारत का विभाजन उपमहाद्वीप के इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से एक रहा है। यह मानव इतिहास में सबसे बड़ा अनियोजित प्रवास था जिससे 20 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए थे। विभाजन की भयावहता आज भी कई लोगों को परेशान करती है। हालांकि, कई लोग केवल जिन्ना को दोषी मानते हैं, परंतु इस विभीषिका के लिए ब्रिटिश, कांग्रेस और गांधी समान रूप से जिम्मेदार थे।
इकहत्तर साल पहले, 3 जून, 1947 को, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ एक संयुक्त सम्मेलन में, भारत के अंतिम वायसराय, माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की घोषणा की। इसके बाद पूर्ण आतंक का दौर था, जिसमें कुछ अनुमानों के अनुसार, एक मिलियन से अधिक लोग मारे गए, और 14 मिलियन से अधिक लोगों को जबरन स्थानांतरित किया गया। हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इस बात का सामना करें कि यह तबाही क्यों हुई?
विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस : विभीषिका का कारण
भारत के विभाजन का कारण क्या था? क्या इससे बचा जा सकता था? विभाजन एक ऐसा खूनखराबा था जिसने दस लाख से अधिक लोगों की जान ले ली? 1947 में क्या हुआ, स्वतंत्रता और उसके बाद के घटनाओं को एक शानदार, अवश्य पढ़े जाने वाले प्रयास में, प्रसिद्ध सैन्य इतिहासकार बार्नी व्हाइट-स्पूनर ने 12 अध्यायों में एक पुस्तक ‘Partition: The story of Indian independence and the creation of Pakistan’ लिखा है।
भारत में कई – और हमारी सभी पाठ्यपुस्तकें – जिन्ना को विभाजन के लिए पूरी तरह जिम्मेदार मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम यह स्वीकार करें कि सिर्फ जिन्ना उस दुखद घटना के लिए अकेले दोषी नहीं थे बल्कि जबकि ब्रिटिश, कांग्रेस और गांधी भी समान रूप से दोषी थें।
1930 और 1940 के दशक के दौरान भारत के मुसलमानों ने – यहां तक कि जो कभी एक अलग मुस्लिम राज्य नहीं चाहते थे – उन्होंने शासन में अधिक से अधिक हिस्सेदारी की आवश्यकता महसूस की। यह एक कारण था कि उन्होंने 1946 में पूरे उपमहाद्वीप में मुस्लिम लीग को लगभग सामूहिक रूप से वोट दिया। हालांकि, काँग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार भी मैदान में थें, लेकिन काँग्रेस के सिद्धांतों और गांधी की धर्मनिरपेक्षता को नकारते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों ने जिन्ना के पक्ष मे मतदान कर के द्विराष्ट्र के सिद्धांत को बल दियाI
20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई विकसित हुई। यह सार्वजनिक जीवन में दोनों पक्षों के हाशिए पर जाने के कारण और गहरा हुआ। हिंदुओं ने नागरिक प्रशासन की निचली शाखाओं में अधिकांश नौकरियों का आयोजन किया और शिक्षा में, वे तुलनात्मक रूप से आगे थें। परंतु, सिर्फ इस कारण की वजह से ही मुसलमान अलग राष्ट्र के लिए मुखर नहीं हुएI अलग राष्ट्र के पीछे मुसलमानो मे हिंदुओं से श्रेष्ठ होने की मानसिकता, धर्मांधता, काँग्रेस और अंग्रेजों का समर्थन तथा गांधी की छद्म धर्मनिरपेक्षता मुख्य कारण थेI
और पढ़ें: NDTV बेशर्मी से बना तालिबान का प्रोपगैंडा चैनल, इसके लिए इसे कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए
दोनों पक्षों के उत्थान की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर थी
मुसलमानों के उत्थान की जिम्मेदारी का एक हिस्सा खुद मुसलमानों के पास थाI परंतु, जिन्ना, लियाकत और इकबाल जैसे उनके सत्ता के भूखे नेतृत्वकर्ता पुरानी यादों में खो गए और समाज के आधुनिकीकरण में विफल रहे। इस कारण मुस्लिम समाज और गर्त में जाता चला गयाI
मुस्लिम समुदाय में उस समय राजा राम मोहन राय जैसे सुधारकों का अभाव था जिन्होंने सती प्रथा को विलियम बेंटिक के साथ मिल कर समाप्त कियाI यही नहीं ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी थे जिन्होंने लॉर्ड डलहौजी के साथ मिलकर विधवा प्रथा का उन्मूलन किया।
लेकिन कहीं ऐसा न हो कि हम भूल जाएं कि कांग्रेस के पास भी जवाब देने के लिए बहुत कुछ था। वर्ष1937 के चुनावों में अपनी शानदार चुनावी सफलता के बाद, कांग्रेस ने अपने शासित प्रांतों में भारतीय मुसलमानों के विश्वास के स्तर को बढ़ाने के लिए शायद ही कुछ किया।सार्वजनिक सेवाओं में समुदाय का घोर कम प्रतिनिधित्व इसके पिछड़ेपन के रूप में जारी रहा।
जिन्ना को लगा था कि वह विभाजन के बाद अपने समुदाय का उत्थान करेंगे। परंतु उन्होंने खुद को एक बोझिल राज्य का नेतृत्व करते हुए पाया। एक ‘विकृत, कीट-भक्षी पाकिस्तान’, जैसा कि उन्होंने खुद एक बार इसका उल्लेख किया था। ऐसे देश को टूटने से पहले 25 साल भी नहीं लगे और कर्म के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए बांग्लादेश के उदय हुआI
और पढ़ें: आखिर क्यों तालिबान के खिलाफ युद्ध में भारत को अफगानिस्तान की मदद करनी चाहिए?
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व, 1906 स्वतन्त्रता के समय भारत को विभाजित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक में से एक था। पहली बार मुसलमानों की ओर से आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने वायसराय को इसकी मांग की थी। जिन्ना ने इसे बहुत बाद में अपनाया और यहां तक कि कांग्रेस के साथ एक समझौता भी कियाI परंतु, काँग्रेस की अदूरदर्शिता और सत्ता की लोलुपता ने उस समय की इस नाजायज मांग और संभावित खतरे को बहुत कमकर के आँकाI
आज बहुत कम ही लोग जानते हैं कि लखनऊ समझौता, जैसा कि लोकप्रिय रूप से जाना जाता था, वर्ष 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संयुक्त सत्र में हुआ था। जिन्ना ने समझौते को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभाई, तथा सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में सम्मानित किया। यह कांग्रेस थी जिसने बाद में इस समझौते को खारिज कर दिया। जिन्ना की कहानी भारत के लिए एक चेतावनी है। उनकी कहानी 1920 के दशक की शुरुआत से कांग्रेस द्वारा उन्हें सह देने और छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ मे कट्टरता और द्विराष्ट्र के सिद्धान्त के निरंतर प्रयासों की कहानी है।
नागरिकता संशोधन विधेयक पर संसद में अपने भाषण में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि भारत को विधेयक की आवश्यकता है क्योंकि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर देश को विभाजित किया है। तब अमित शाह ने कहा था, “आज हमें इस विधेयक की आवश्यकता क्यों है? स्वतन्त्रता के बाद, अगर कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन नहीं किया होता, तो आज हमें इस विधेयक की आवश्यकता नहीं होती। कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन किया।” वर्ष 2019 के आम चुनाव में, कई भाजपा नेताओं ने भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस और नेहरू को दोष देना शुरू कर दिया था। अपने चुनाव के दौरान भाजपा के रतलाम-झाबुआ लोकसभा उम्मीदवार गुमान सिंह डामोर ने यह दावा करते हुए विवाद खड़ा कर दिया कि यदि नेहरू ने जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने दिया होता तो विभाजन को टाला जा सकता थाI
भारत के विभाजन को सिर्फ जिन्ना के हठ से जोड़ कर देखना कांग्रेस की गलतियों से मुंह मोड़ने जैसा हैI जिन्ना जिम्मेदार है इसमे कोई संशय नहीं हैंI इतिहास सदा सर्वदा उन्हें दोषी ठहराएगाI पाकिस्तान को उनके सिद्धांतों का फल 25 साल बाद ही बांग्लादेश के रूप मे देखने को मिलाI लेकिन, भारत अगर अपने नज़रिये से देखें तो नेहरू की सत्तालोलुपता, गांधी की छद्म धर्मनिरपेक्षता, अंग्रेज़ो की ‘’फूट डालो और राज़ करो’’ की नीति और मुसलमानों की अपने धर्मा के प्रति कट्टरता ने राष्ट्र की तिलांजलि दे दी थीI अब इन्हीं पापों को याद रखने के लिए तथा भविष्य में इन गलतियों से सीख लेने के लिए प्रधानमंत्री ने 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है।