आयोध्या अर्थात जो अजेय है। जिसे जीता नहीं जा सकता क्योंकि यह साक्षात धर्म अर्थात राम की जन्मभूमि है। यह भूमि किसी भी तीर्थ और स्वर्ग से सर्वोच्च है। इसकी सर्वोच्चता बनी रही। यह अजेय रहा। आखिर हो भी क्यों ना? यतो धर्मास्ततो जयः अर्थात जहां धर्म है, वहां जीत है। जहां की माटी में स्वयं धर्म ने खेला हो, वो कैसे हार सकती है? वैसे सर्वोच्च न्यायालय का सूत्रवाक्य भी यही है। शायद, इसीलिए आज से दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सत्य को विजयी घोषित किया। आज इस आनंद को 2 वर्ष पूर्ण हुए हैं। राम जन्मभूमि विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को 2 वर्ष हो चुके हैं।
एक समाज और राष्ट्र के तौर पर हमने जो समग्र सहिष्णुता और साहस का परिचय देते हुए, जिस धैर्य के साथ इस निर्णय की प्रतीक्षा की वह अतुलनीय है। यह प्रतीक्षा 1528 इस्वी से सतत चली आ रही थी। धर्म स्थापना हेतु धर्मयुद्ध करने वाली सभ्यता ने पहली बार धर्म-ध्वंस हेतु धर्मानुशंसित युद्ध देखा जब 1528 ईसवी में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने राम का मंदिर ध्वस्त कर वहां मस्जिद स्थापित कर दी। जिस राष्ट्र और सनातन संस्कृति के आत्मा और अस्तित्व का आधार ही राम हो, उस बहुल समाज ने किस तरह धैर्य रखा होगा? यह धैर्य की पराकाष्ठा है। क्या आप काबा या वेटिकन सिटी में ऐसी किसी परिस्थिति की कल्पना कर सकते हैं? शायद नहीं। परंतु, इस सनातन समाज ने धैर्य की परिभाषा को परिष्कृत करते हुए न्याय व्यवस्था में विश्वास बनाए रखा। लोकतंत्र, राष्ट्र और विधि व्यवस्था के प्रति अपने समर्पण को सशक्त रखा। अगर विश्वास ना आए तो विधायिका और न्यायपालिका के प्रतिनिधि स्वरूप दो व्यक्तित्वों का कथन पढ़िए:
न्याय और न्यायालय का सम्मान एक सुदृढ़ लोकतंत्र की स्थापना हेतु नितांत आवश्यक है। विधि राजनीति धर्म, आस्था और विश्वास सभी से सर्वोच्च है।
—– सर्वोच्च न्यायालय, भारत
अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला आएगा वह किसी की हार जीत नहीं होगा। देशवासियों से मेरी अपील है कि हम सब कि यह प्राथमिकता रहे यह फैसला भारत की शांति एकता और सद्भावना की महान परंपरा को और बल दे।
—- नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत
गोगोई द्वारा निरंतर सुनवाई के निर्देश
राम जन्मभूमि विवाद पर प्रयागराज उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट पांचो पक्षकारों ने 2011 में सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। माननीय मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के कार्यकाल का यह अंतिम वर्ष था। भारत के भावी मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे होने वाले थे। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस मामले को आए हुए 8 वर्ष बीत चुके थे। न्यायमूर्ति गोगोई ने भारतीय समाज के अंतहीन प्रतीक्षा को समाप्त करने का निश्चय किया। 6 सितंबर 2019 को उन्होंने निर्णय दिया कि आज से राम जन्मभूमि विवाद की सुनवाई प्रतिदिन होगी, तबतक जबतक कि इस विवाद पर कोई निर्णय नहीं होता।
सारे पक्षकार, कानूनविद, अधिवक्ता और संपूर्ण समाज न्यायालय के इस निर्णय से सकते में था। आखिर, 20000 पन्नों की फाइल, हजारों कानूनी कागजात दस्तावेज, अभिलेख, ऐतिहासिक प्रमाण, पुस्तक और धर्म ग्रंथ का इतने कम समय में किस तरह सत्यापन और साक्षी प्रस्तुतीकरण होगा? रंजन गोगोई ने निर्देश देते हुए 5 सदस्य संवैधानिक पीठ का गठन किया। इसके पांचो न्यायाधीश थे- रंजन गोगोई, एस ए बोबडे, अशोक भूषण, डीवाई चंद्रचूड़ और अब्दुल नजीर। 40 दिनों के अनवरत श्रम के पश्चात सर्वोच्च न्यायालय कि इस संवैधानिक पीठ द्वारा 600 पृष्ठों का एकमत निर्णय आया। ऐसा निर्णय जो विधिक इतिहास और धार्मिक धैर्य के मामले में “मील का पत्थर” है ।
प्रयागराज उच्च न्यायालय का निर्णय
आपको बता दें कि प्रयागराज उच्च न्यायालय की पीठ ने इस विवाद पर 2:1 से विखंडित निर्णय दिया था। प्रयागराज उच्च न्यायालय के समक्ष विवाद में 3 पक्षकार थे- राम जन्मभूमि न्यास, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड। प्रयागराज उच्च न्यायालय ने गुंबद के नीचे की जमीन राम जन्मभूमि न्यास को दे दी, उस परिसर में मौजूद सीता रसोई और राम चबूतरा निर्मोही अखाड़ा को दे दिया और बाकी भूमि वक्फ बोर्ड के हिस्से आई अर्थात इस पीठ ने 2.77 एकड़ की इस भूमि को तीनों पक्षों के बीच समान रूप से विभाजित कर दिया। यह निर्णय कुछ कानून विधि द्वारा त्रुटिपूर्ण मन गया क्योंकि यह 2.77 एकड़ की भूमि पर स्वामित्व अधिकार का विवाद था। विधि अनुसार, इस पर किसी एक ही पक्ष का अधिकार होना चाहिए था। परंतु, अप्रायोगिक भूमि विभाजन कि इस निर्णय से असंतुष्ट तीनों पक्षकार सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए। सर्वोच्च न्यायालय पहुंचते-पहुंचते इस विवाद में दो पक्षकार और जुड़ गए। एक रामलला स्वयं और दूसरा शिया पक्ष जो मीर बाकी के शिया होने के कारण इस इस जमीन पर अपना दावा करने लगा था।
रामलला को स्वामित्व, निर्मोही आखाड़े और शिया वक्फ बोर्ड के दावे ख़ारिज
सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वप्रथम साहसिक और तार्किक निर्णय लेते हुए निर्मोही अखाड़े और शिया वक्फ बोर्ड के दावों को पूर्णता खारिज कर दिया। रामलला विराजमान को सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य पक्षकार माना। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को रेखांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी खाली स्थान पर नहीं हुआ था, इस विवादित ढांचे के नीचे एक संरचना थी जो इस्लामिक नहीं थी तथा इस बात के भी पूर्ण प्रमाण और पारदर्शी साक्ष्य उपलब्ध है कि हिंदू सदियों से इस भूमि पर पूजन करते आए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदुओं के विश्वास की पुष्टि करते हुए यह माना की मस्जिद के आंतरिक क्षेत्र ही रामलला का जन्म स्थान है।
सर्वोच्च न्यायालय की इस संवैधानिक पीठ ने रामलला विराजमान को एक विधिक पक्षकार के रूप में स्वीकारते हुए इस भूमि पर उनके स्वामित्व को स्थापित किया। निर्मोही अखाड़े, जिसने राम के विधिक सेवक के रूप में याचिका दायर की थी, के पक्ष को यह निर्णय देते हुए निरस्त कर दिया गया कि जब पक्षकार स्वयं स्वामी हो तो ऐसे विवाद में सेवक कभी एक विधिक पक्ष नहीं हो सकता। शिया वक्फ बोर्ड के पक्ष को भी खारिज कर दिया गया। सारे सबूतों, गवाहों, साक्ष्यों, प्रमाणों, अभिलेखों, दस्तावेजों पुस्तकों, धर्म ग्रंथों और सारी विधिक प्रावधानों को समग्र रूप से ध्यान में रखते हुए इस भूमि का मालिकाना हक रामलला को सौंपा गया और इसके प्रबंधन का दायित्व राम जन्मभूमि न्यास को। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश देते हुए 3 महीने के भीतर न्यास का गठन कर मंदिर के निर्माण कार्य शुरू करने का निर्देश दिया।
अधिवक्ताओं और न्यायधीशों के बीच रोचक तर्क-वितर्क
रामलला विराजमान की ओर से उपस्थित अधिवक्ता के परासरन से न्यायमूर्ति एस ए बोबडे ने पूछा कि – “क्या बेथलेहेम में येसु मसीह के जन्म का मुद्दा न्यायालय के समक्ष आया है?” हिन्दू महासभा के अधिवक्ता ने जहां एक आक्रांता के स्वामित्व अधिकार को राष्ट्रपुरुष श्री राम के आगे अनुचित ठहराया तो वहीं सुन्नी वकफ़ के अधिवक्ता राजीव धवन ने न्यायालय को हिन्दू और मुस्लिम आक्रांताओं के बीच भेद न करने का तर्क दिया। सबसे आश्चर्यजनक तो ये कि शिया वकफ बोर्ड के अधिवक्ता ने तो इसपर अपना अधिकार जताते हुए कुछ कट्टरपंथी मुस्लिमों के हिन्दुओं से मध्यस्थता के मार्ग को रोड़ा बता दिया। रामलल्ला विराजमान के पक्ष में जब साक्ष्य के रूप में विवादित जन्मभूमि का मानचित्र प्रस्तुत किया गया तो सुन्नी वाकफ बोर्ड के अधिवक्ता राजीव धवन ने इसे अप्रमाणिक बताते हुए फाड़ दिया। हालांकि, बाद में उन्होंने न्यायालय से क्षमा भी मांगी।
होई है सोई जो राम रची राखा
को करी तरक बढ़वाहुं साखा
जो राम चाहते है, वहीं होता है। इतने वर्षों का संघर्ष शायद उन्ही की इच्छा हो। हो सकता है इस अनवरत प्रतीक्षा के परिमाण स्वरूप ही हमें इस एकमत निर्णय का प्रसाद मिला हो। इतने वर्षों का वनवास सहन कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम शायद एक समाज के रूप में हमारे धैर्य, संस्कार, धर्म और सहिष्णुता को परिष्कृत करना चाहते हों। जो भी हो, राम की नियति राम ही जाने। आप तो बस इतना समझिए, भारत की विधि व्यवस्था ने पुनः न्याय की सर्वोच्चता को स्थापित किया। विधायिका और कार्यपालिका ने संयम, सद्भाव और राजधर्म का परिचय दिया। समाज ने व्यवस्था और आस्था के बीच समन्वय और समर्पण को बनाए रखा। दो वर्ष पूरे हुए। राष्ट्रपुरुष हेतु राष्ट्र मंदिर का निर्माण कार्य तीव्रता के साथ सतत प्रगति पर है। जाइए, श्रम करिए, अर्पण करिए, नेत्रों को तृप्त करिये। आयोध्याजी देखिए। अपने शरीर को तरुण प्राप्त करने का सौभाग्य दीजिए क्योंकि आपके जैसा सौभाग्य ऐसा स्वप्न देखनेवाले और रामकाज में प्राण देनेवाले हुतात्मा को भी प्राप्त नहीं हुआ।
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