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भारत के स्वतंत्रता की वास्तविक कहानी- अध्याय 6: वह अंतिम वार जिससे ब्रिटिश साम्राज्य के पांव उखड़ गए

इससे महात्मा गांधी का कोई लेना-देना नहीं है!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
24 January 2022
in इतिहास
chapter-6 Indian Independence

Source- TFIPOST

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‘बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति,

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होई न प्रीति’

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श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड के इस बहुचर्चित पद्य का अर्थ बहुत स्पष्ट है, जब अनुनय विनय से काम न बने, तो अपने समक्ष खड़े व्यक्ति में भय का संचार करें और अपना काम कराएं। हमारे स्वाधीनता संग्राम को कोई गंभीरता से नहीं लेता था और महात्मा गांधी के अहिंसा की नीति अंग्रेज़ों के लिए ‘खिलौने’ के समान थी। इसी बीच दूसरे विश्व युद्ध का ग्रहण ब्रिटेन पर हुआ और ब्रिटेन के साथ-साथ उसके कई दास देशों को भी भारी नुकसान हुआ। परंतु इसके बाद भी ब्रिटिश साम्राज्य का ‘सूर्य’ अस्त होने का नाम नहीं ले रहा था। परंतु फिर कुछ ऐसा हुआ कि न केवल ये ‘सूर्य’ अस्त हुआ, अपितु विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में से एक ब्रिटिश साम्राज्य को ऐसी पराजय का सामना करना पड़ा, जिसके बारे में आज भी चर्चा करने से पूर्व वे कई बार सोचते हैं। इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे उस अंतिम वार के बारे में, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के पांव भारत से सदैव के लिए उखाड़ दिए और इसमें मोहनदास करमचंद गांधी का कहीं से भी कोई हाथ नहीं था।

30,000 सिपाहियों ने मचा दिया था गदर

पता है इस संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु क्या है? गोल्ड? नहीं! प्लैटिनम? बिल्कुल नहीं! मानव जीवन? कदापि नहीं! समय? नहीं! सबसे मूल्यवान वस्तु है ज्ञान और इन्फॉरमेशन, जो आपको युद्ध भी जिता सकता है और राष्ट्र के सृजन या विनाश में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकता है। जब पर्याप्त जानकारी न हो और युद्ध शुरु हो जाए, तो ऐसे नरसंहार होंगे कि जर्मन Holocaust भी उसके समक्ष कुछ न लगें, पर्याप्त जानकारी के अभाव से एक अभेद्य जहाज ‘टाइटैनिक’ भी अपनी प्रथम यात्रा पर ही डूब जाता है।

इस प्रकार से अपर्याप्त इन्फॉर्मेशन के कारण सिंगापुर में वो हुआ, जिसकी कल्पना भी किसी ने अपने स्वप्न में भी नहीं की होगी। 8 फरवरी 1942 को सिंगापुर में जापानियों ने ‘भारी संख्या’ में ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलियाई और भारतीय सैनिकों की संयुक्त सेना पर धावा बोल दिया। Allied Forces की यह कुल टुकड़ी करीब 1,30,000 के आसपास थी, जिसमें से लगभग 50,000 सैनिक तो अकेले भारत के थे। परंतु इनपर भारी पड़े मात्र 30,000 जापानी, जिनके पास शायद एक लंबे युद्ध के लिए पर्याप्त आयुध भी नहीं थे।

परंतु यह कैसे संभव हुआ? इसका कारण स्पष्ट था – अपर्याप्त जानकारी। पर्ल हार्बर जैसा कांड होने के बाद भी अंग्रेज़ इस भ्रम में थे कि सिंगापुर पर आक्रमण करने का दुस्साहस जापान कभी कर ही नहीं सकता। यह भ्रम तब भी विद्यमान था, जब Allied Forces सिंगापुर से थोड़ी ही दूरी पर Malaya अभियान में बुरी तरह पराजित हुए थे, लेकिन जब जापानियों ने अपना ‘चक्रव्यूह’ फैलाया, तो अंग्रेज़ ऐसे फंसे कि संख्याबल और आयुध अधिक होने के बावजूद, बिना सोचे समझे, बस यूं ही आत्मसमर्पण कर दिया।

स्वयं जापानी कमांडर, जनरल टोमोयुकी यामाशिता के शब्दों में, “मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वे इतनी सरलता से आत्मसमर्पण कर सकते हैं। मेरे पास सिर्फ 30,000 कुछ सिपाही थे और अनुपात में हम तीन से एक से भी कहीं से ज्यादा घिरे हुए थे। फिर भी हमारा आक्रमण काम आया, और उन्होंने यूं ही सरेंडर कर दिया” –

To quote General Yamashita himself, "My attack on Singapore was a bluff – a bluff that worked. I had 30,000 men and was outnumbered more than three to one. I knew that if I had to fight for long for Singapore, I would be beaten. That is why the surrender had to be at once".

— Animesh Pandey (Modi Ka Parivar) 🇮🇳 (@PandeySpeaking) February 8, 2021

इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना

लेकिन वो कहते हैं न, सबसे भीषण अंधकार भोर से पूर्व ही आता है। इसी प्रकार जब जापानियों के समक्ष Allied Forces ने लज्जापूर्वक आत्मसमर्पण किया, तो 50,000 भारतीयों को भी अंग्रेज़ों ने उनके हाल पर छोड़ दिया। जापानियों के लिए तो वे अंग्रेज़ों के ‘पिट्ठू’ थे, और इसीलिए टारगेट प्रैक्टिस के लिए कभी-कभी तो उन्हें भी गोलियों से भून दिया जाता था। परंतु, कुछ जापानी ऐसे भी थे, जिनकी मंशा कुछ और थी। इन्हीं में से एक थे मेजर इवाईची फुजीवारा, जो सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़े थे और उसे स्वतंत्र कराने को आतुर थे। उनकी पहचान हुई युद्धबंदी कैप्टन मोहन सिंह से और फिर स्थापना हुई इंडियन नेशनल आर्मी की, जिससे एक ऐसे व्यक्ति जुड़े, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी।

https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1358825711201513472

वो व्यक्ति थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो न केवल एक प्रखर राष्ट्रवादी थे अपितु एक निडर क्रांतिकारी भी। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव कैसा था, इसका प्रमाण स्वयं पूर्व ब्रिटिश पीएम क्लीमेंट एटली ने दिया था, जब वो वर्ष 1956 में भारत यात्रा पर आए थे। अपनी यात्रा के दौरान कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पीवी चक्रवर्ती ने उनसे पूछा कि ‘आपके पास भारत त्यागने के लिए कोई विशेष कारण तो था नहीं, फिर आप भारत छोड़ने को विवश क्यों हुए?”

एटली के अनुसार, “कारण तो कई हैं, लेकिन वास्तव में ये सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा तैयार की गई इंडियन नेशनल आर्मी थी, जिसके कारण हमारी फौजें कमजोर हुई, और रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह हुआ”।

जिसके बाद चक्रवर्ती ने पूछा-  “और गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन का क्या?”

व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ एटली ने कहा, “नगण्य!”

लाल किले के मुकदमे से हुआ ब्रिटिश साम्राज्य के पतन का प्रारंभ

परंतु ऐसा भी क्या हुआ, जिसके पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य इतनी जल्दी अस्त हो गया? जिसे न सम्राट विलियम डिगा पाया, न हिटलर, न हिरोहितो और न ही मुसोलिनी, उसे परास्त किया एक ऐसे क्रांतिकारी ने, जिसकी सेना ने ब्रिटिश शासन को दर्पण दिखाया और यह भी दिखाया कि अकड़ में तो रावण भी नहीं टिक पाया, तो फिर ब्रिटिश साम्राज्य की क्या हस्ती?

लाल किले के मुकदमे से ब्रिटिश साम्राज्य के पतन का प्रारंभ हुआ । तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस या तो भूमिगत हो चुके थे या फिर उनका कोई अता पता नहीं था। तत्कालीन ब्रिटिश इंडियन आर्मी प्रमुख, जनरल क्लाउड औचिनलेक ने भारतीय वाइसरॉय लॉर्ड वॉवेल को आश्वस्त किया कि भगोड़ी फौज के विरुद्ध ऐसे आरोप लगे हैं कि भारत में उनके दास कभी भी इन ‘कायरों’ के साथ अपने आप को संबोधित नहीं करेंगे। लेकिन जनरल औचिनलेक यह भूल गए कि इंग्लैंड और भारत की जनता में आकाश पाताल का अंतर है। जरुरी नहीं कि जो इंग्लैंड की जनता के लिए देशद्रोही हो, वो भारत के लिए भी हो। धीरे-धीरे इंडियन नेशनल आर्मी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की शौर्य गाथा भी देश के कोने-कोने में फैलने लगी और प्रमुख अफसरों पर जब मुकदमा चलता, तो पूरे देश में गूँजता-

“लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शाहनवाज़,

इनकी हो उमर दराज!”  –

रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह की भूमिका

लाल किले में इंडियन नेशनल आर्मी के अफसरों, विशेषकर मेजर जनरल शाह नवाज़ खान, कर्नल प्रेम कुमार सहगल और लेफ्टिनेंट कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों के विरुद्ध प्रारंभ हुए मुकदमे का असर ठीक उल्टा पड़ा और मुकदमा खत्म होते-होते तत्कालीन सैन्य प्रमुख, जनरल क्लाउड औचिनलेक को भी आभास हो चुका था किअब स्थिति पहले जैसी नहीं रही। उन्होंने ब्रिटिश शासन को स्पष्ट चेतावनी दी कि उक्त अफसरों में किसी को भी दंडित करने का दुष्परिणाम बहुत भयानक होगा।

In a letter written to the senior British officials, he wrote that punishing any of the three officers on trial or any soldier of INA would invite an uprising of a scale that cannot be imagined, and would lead to mutiny within the ranks of the British Indian forces.

— Animesh Pandey (Modi Ka Parivar) 🇮🇳 (@PandeySpeaking) February 18, 2021

जनरल औचिनलेक की भविष्यवाणी एकदम सत्य सिद्ध हुई। 18 फरवरी 1946 को बॉम्बे के निकट नौसैनिक ट्रेनिंग स्कूल HMIS Talwar पर वो हुआ, जिसकी कल्पना किसी ब्रिटिश साम्राज्यवादी ने नहीं की थी। अनेकों गैर कमीशन नाविकों ने घटिया खानपान और रहन-सहन को लेकर हड़ताल कर दी। जब HMIS Talwar के कमांडर ने उनकी मांगों को सुनने के बजाए उन्हे अभद्र भाषा में उलाहने देने प्रारंभ किए, तो भारतीयों का क्रोध सातवें आसमान के पार निकल गया। उन्होंने जहाज पर धावा बोलते हुए ब्रिटिश पताका हटाई और कांग्रेसी तिरंगा लहरा दिया। यही नहीं, जो भी अंग्रेज़ अफसर विरोध करता या तो उसे गोलियों से भून देते या फिरउसे जहाज से नीचे समुद्र में फिंकवा देते। इसे ही बाद में रॉयल इंडियन नेवी विद्रोह के बॉम्बे विद्रोह के नाम से जाना गया।

ये तो कुछ भी नहीं है। दावानल की भांति यह विद्रोह कोच्चि, विशाखापटनम, कराची, कलकत्ता में फैलने लगा। हर जगह जय हिन्द और वन्दे मातरम का उद्घोष होने लगा और इसका असर ऐसा पड़ा कि ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सबसे कर्तव्यनिष्ठ गोरखा सिपाही तक अपने ही भाइयों पर गोली चलाने से मना करने लगे। उनके लिए अब राष्ट्रवाद सर्वोपरि था।

20 फरवरी तक भारतीय नौसेना ने गेटवे ऑफ इंडिया समेत सम्पूर्ण बॉम्बे को घेर लिया था। अब आर या पार की लड़ाई थी। यदि उस समय सरदार पटेल ने हस्तक्षेप न किया होता, तो ऐसी खूनी क्रांति होती कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की अगली सात पीढ़ियां इसका उल्लेख करने से पूर्व सिहर उठती। ये क्रांति रॉयल इंडियन नेवी से अब रॉयल इंडियन एयर फोर्स तक आ पहुंची, और कुछ वर्षों बाद जब पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली भारत यात्रा पर आए, तो उन्होंने इस बात को स्वीकारा कि यह रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह का ही परिणाम था कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर विवश होना पड़ा।

दुर्भाग्यवश इस महत्वपूर्ण अध्याय को कुछ कूप मंडूकों ने अपने स्वामियों की चाटुकारिता में हमसे छिपाये रखा, परंतु सत्य की ज्योति को छिपाया जा सकता है, बुझाया नहीं जा सकता। हाल ही में भारतीय नौसेना ने इस इतिहास के इस महत्वपूर्ण भाग को गणतंत्र दिवस में श्रद्धांजलि देने का निर्णय किया और ये न केवल प्रशंसनीय है, अपितु इससे भारतीय इतिहास के असली नायकों को उनका वास्तविक सम्मान मिलेगा। इतिहास बदलने के लिए दृष्टिकोण बदलना ही पर्याप्त है!

Tags: ब्रिटिश साम्राज्यरॉयल इंडियन नेवी विद्रोहसुभाष चंद्र बोस
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