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सैम बहादुर – एक ऐसा मतवाला जिनके लिए संयम बाद में और लक्ष्य सबसे पहले था

दुश्मनों के लिए काल के समान थे मानेकशॉ

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
3 April 2022
in Uncategorized
सैम मानेकशॉ

Source- TFI

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एक अफसर ने अपने मातहतों में अनुशासन जांचने का अनोखा उपाय निकालने की सोची। वे ऐसे ही टहलते हुए निकले, जब उन्हें रास्ते में अपने पलटन का एक सिपाही मिला तो उन्होंने उसे परखने के लिए गंभीर स्वर में, “ठहरो!”

वह सैनिक तुरंत तनकर खड़ा हुआ और अपने अफसर को नमन करते हुए बोला, “जय हिन्द साहब!”

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“तुम जानते हो तुम्हारा अफसर कौन है?”

उस गोरखा सैनिक ने अपने नेपाली लहजे में बोला, “जी साहब!”

“क्या नाम है उसका?”

“सैम बहादुर साहब!”

वह अफसर भी खिलखिलाकर हंसे, और यह उपनाम उनके लिए सबसे चर्चित बन गया। यह कथा है उस अफसर की, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर 1971 के भारत पाक युद्ध तक कई मोर्चों पर भारत के लिए लड़ाइयाँ लड़ी और रणनीतियां तय की। यह कथा है उस वीर योद्धा की, जिसने भारत को कई महत्वपूर्ण सैन्य मोर्चों पर रणनीतिक रूप से विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह कथा है भारत के प्रथम फील्ड मार्शल, सैम मानेकशॉ की, जिनका आज यानी 3 अप्रैल को 108 वां जन्मदिवस है।

3 अप्रैल 1914 को पंजाब के अमृतसर शहर में डॉक्टर होर्मूसजी फ्रेमजी मानेकशॉ और उनकी पत्नी हीला मानेकशॉ के घर सैम का जन्म हुआ। प्रारंभ से ही सैम काफी जीवट, और थोड़े नटखट स्वभाव के थे। परंतु अपने लक्ष्यों को लेकर वे सदैव स्पष्ट रहते थे। उन्होंने अपने पिता से इच्छा स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्हें डॉक्टर बनना है और आगे की पढ़ाई हेतु लंदन जाना है, क्योंकि वे भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर डॉक्टर बनना चाहते थे। परंतु उनके पिता ने इस इच्छा को पूरा करने से मना कर दिया।

ये बात सैम को अखर गई और संयोगवश वर्ष 1931 में भारतीय मिलिट्री कॉलेज कमेटी के अध्यक्ष, तत्कालीन भारतीय सैन्य प्रमुख, फील्ड मार्शल सर फिलिप शेटवोड (Sir Philip Chetwode) ने एक सैन्य अकादमी स्थापित करने का सुझाव दिया, जिसमें भारतीय सैन्य अफसरों की विशेष ट्रेनिंग होने की बात कही गई। यही अकादमी बाद में भारत की प्रसिद्ध इंडियन मिलिट्री अकादेमी बनी। सैम मानेकशॉ ने विद्रोह स्वरूप इस नए अकादमी का फॉर्म भरा और इसकी परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुए। इंडियन मिलिट्री अकादमी से कमिशन किये गए सैन्य अफसरों का जो प्रथम बैच निकला, उसमें सेकेंड लेफ्टिनेंट सैम मानेकशॉ भी शामिल थे।

सैम मानेकशॉ ने अपनी जीवटता का प्रथम परिचय द्वितीय विश्व युद्ध में दिया था। बर्मा के मोर्चे पर जापानियों से लड़ते हुए एक लाइट मशीन गन के भयंकर प्रहार से वे गंभीर रूप से घायल हुए, परंतु वे बेहोश होने तक अपने जवानों का जोश बढ़ाते रहे। उनकी जीवटता देख उनके मातहतों ने उन्हें तत्काल प्रभाव से सैन्य हेल्थ कैंप में भर्ती कराया और डॉक्टर को यहां तक कि धमकाया कि यदि उन्हें (सैम बहादुर) को कुछ हुआ, तो अच्छा नहीं होगा।

आखिरकार सैनिकों का परिश्रम रंग लाया और कैप्टन मानेकशॉ बच गए। लेकिन कथा यहीं खत्म नहीं हुई। उनकी हालत तब भी बहुत खराब थी, और जब उनका इलाज कर रहे डॉक्टर ने पूछा कि क्या हुआ, तो सैम ने निस्संकोच उत्तर दिया, “कुछ नहीं, एक खच्चर ने लात मार दी!” अब उस ऑस्ट्रेलियाई डॉक्टर से भी हँसे बिना रहा नहीं गया और सैम मानेकशॉ को बचाके ही दम लिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात सैम मानेकशॉ की बटालियन दुर्भाग्यवश पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई, तो स्वतंत्रता के पश्चात वो 8 गोरखा राइफल्स में मेजर बने। उन्हें मिलिट्री ऑपरेशन्स मुख्यालय में तैनात किया गया, जिसके कारण वो स्वतंत्र भारत में कभी भी एक सक्रिय बटालियन के कमांडर नहीं बन पाए। लेकिन हर विपदा को अवसर में बदलना उन्हें बखूबी आता था। कश्मीर में मिले अनुभव का उपयोग करते हुए उन्होंने मिलिट्री इंटेलिजेंस को भी अपनी सेवाएं दी और कहीं न कहीं ऑपरेशन पोलो की सफलता में इनका भी एक छोटा सा योगदान था।

और पढ़ें: कैसे मेजर जनरल सगत सिंह राठौर की ज़िद्द ने भारत को चीन के विरुद्ध सबसे अप्रत्याशित सैन्य जीत दिलाई

नेहरू के शासनकाल में मचा था बवाल

लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब ‘सैम बहादुर’ की देशभक्ति और उनकी निश्छल सेवा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। यह वो समय था जब जवाहरलाल नेहरू की सरकार थी और नेहरुवादी भ्रष्टाचार के प्रकोप से भारतीय सेना तक नहीं बच पाई। वर्ष 1961 में तत्कालीन सैन्य प्रमुख के एम थिमैय्या के लाख विरोध के बाद भी तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन ने मेजर जनरल बृजमोहन कौल को पदोन्नति का उपहार दिया, अपितु अपना विशेष सलाहकार भी बनाया। इस कृत्य के विरोध में तत्कालीन मेजर जनरल सैम मानेकशॉ ने भी मेनन के कुकृत्यों के विरुद्ध आवाज उठाई, जिन्हें वो पहले ही अपने सैन्य प्रमुख से ‘बगावत’ के संकेत देने पर उलाहने दे चुके थे।

परंतु इस कदम के पीछे उन्हें देशद्रोही से लेकर न जाने क्या क्या कहा गया और उनके विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा तक दायर कर दिया गया। यह संभवत पहला ऐसा ‘कोर्ट मार्शल’ था, जहां सैनिकों का कम और सरकार का प्रभाव अधिक था। परंतु जवाहरलाल नेहरू के प्रशासन के इस कुत्सित प्रयास का असर निष्फल रहा, और न्यायाधीश लेफ्टिनेंट जनरल दौलत सिंह ने सैम बहादुर को निर्दोष सिद्ध किया। वर्ष 1962 की पराजय के बाद पीएम नेहरू को मेजर जनरल मानेकशॉ से क्षमा भी मांगनी पड़ी और उनका रुका हुआ प्रोमोशन उन्हें देना पड़ा। तद्पश्चात वो उत्तर पूर्वी क्षेत्र में तैनात हुए, जहां उन्होंने वर्ष 1967 में मेजर जनरल सगत सिंह के साथ मिलकर चीन को पटक पटक कर धोने की बेहतरीन रणनीति स्थापित की।

इतना ही नहीं, ये सैम बहादुर ही थे, जिन्होंने कभी भी ‘जातिगत आरक्षण’ के विष को आगे नहीं बढ़ने दिया। वे स्वयं पारसी थे, जो भारत में एक अल्पसंख्यक समुदाय है, लेकिन उनके लिए योग्यता सर्वोपरि थी। आज इसी का परिणाम है कि भारतीय सेना विश्व की सबसे प्रभावशाली और सबसे शक्तिशाली सेनाओं में से एक है और भारत विश्व के किसी भी शक्तिशाली देश के सैन्य आक्रमण को रोकने में पूर्णतया सक्षम है।

Tags: जवाहर लाल नेहरूसैम बहादुरसैम मानेकशॉ
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