‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ अब्राहिम लिंकन के इसी नारे के साथ भारत ने जोर-शोर से लोकतंत्र को अपनाया था। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत इस लोकतंत्र में विकास की उस ऊंचाई पर पहुंच पा रहा है, जहां पहुंचना चाहिए था।
लोकतंत्र की स्थापना करते समय बोलने की आज़ादी, संगठन बनाने की आज़ादी, विरोध करने की आज़ादी जैसे कई अधिकार लोगों को दिए गए लेकिन आज़ादी के इसी अधिकार का कब दुरुपयोग होने लगा, समझ ही नहीं आया। देखते-देखते लोकतांत्रिक भारत में भारत से ही आज़ादी के नारे लगने लगे। देखते-देखते कॉलेज कैंपस आज़ादी के नारे लगाने वाला मैदान बन गया।
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हाल ही में रांची समेत भारत के कई हिस्सों में नूपुर शर्मा के एक बयान पर चिंगारी उठी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर- विरोध प्रदर्शन के नाम पर नूपुर शर्मा के विरुद्ध जमकर गरिमाहीन नारेबाजी की गई। ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे लगे। देखते-देखते यह विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए। जगह-जगह हिंसा भड़क उठी। आगजनी हुई। तोड़फोड़ हुई।
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इससे पहले शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन के नाम पर महीनों सड़कों को जाम रखा गया। संगठन बनाने की स्वतंत्रता ने ‘भारत के टुकड़े होंगे’ वाली मानसिकता वाले इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन पीएफआई को जन्म दिया जिनका परम उद्देश्य भारत में अशांति फैलाना है।
हालाँकि यह लेख भारत के विरूद्ध साजिशकर्ताओं की मानसिकता से अवगत करवाना या फिर देश में ‘शांतिप्रिय समुदाय’ के लोगों के अशान्तिपूर्ण कार्यों के बारे में बताना नहीं है। आज का लेख है भारत और भारत के लोकतंत्र पर प्रकाश डालने के लिए जो हाल ही में देश में बढ़ रही हिंसा और अशांति के बीच प्रश्न करता है कि क्या इस तरह हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बीच भारत लोकतांत्रिक तरीके से विकास कर पाएगा ?
आज चाहे भारत कितनी ही प्रगति क्यों न कर रहा हो लेकिन समय-समय पर ऐसी अस्थिरता, दंगे और हिंसा से राजनीतिक और आर्थिक यात्रा बार-बार बाधित होती रही है। उज्जवल भविष्य के सपने देखने वाला आम नागरिक हाथ मलता रह जाता है जबकि दुराचारी और भ्रष्ट मानसिकता वाले लोग लोकतंत्र द्वारा दिए गए अधिकारों का दुरूपयोग कर उसी आम जनता का शोषण करते हैं।
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देश में बोलने की आज़ादी के नाम पर देश विरोधी नारे लगने लगते है। एक तरफ विरोध प्रदर्शन करने के अधिकार की आड़ में हिंसा भड़काई जाती है तो दूसरी तरफ निर्भया जैसी पीड़िता के अपराधी वर्षों तक इसलिए जीवित रहते हैं क्योंकि लोकतंत्र में कानून के हाथ बंधे होते हैं यानी कि एक प्रक्रिया का पालन सभी मामलों में किया जाता है- जिसमें कई वर्ष लग जाते हैं।
कई मामलों में हमने ऐसा देखा है जहां संविधान द्वारा दिया गया आरक्षण समाज की तरक्की में बाधक बनकर सामने आता है। हालांकि यह बात और है कि शुरुआत में संविधान में 10 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। लेकिन हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां वोटबैंक के चक्कर में निरंतर आरक्षण को आगे बढ़ाती चली गईं। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण के विरोध में बोल ही नहीं सकता।
ऐसे में सवाल उठता है कि फिर ऐसा क्या किया जाए जिससे भारत विकासशील देश से एक विकसित देश बन जाए? इसका सबसे सरल उत्तर और उदाहरण हैं सिंगापुर के संस्थापक ली कुआन यू जिनके अर्ध सत्तावादी मॉडल और नीतियों ने सिंगापुर को केवल तीन दशकों के भीतर एक गरीब देश से दुनिया के सबसे अमीर देशों की गिनती में शामिल कर दिया और वह भी तब जब सिंगापुर के पास खुद का कोई प्राकृतिक संसाधन भी नहीं था।
उन्होंने देश को अनुशासित रखने में कोई समझौता नहीं किया क्योंकि वह चाहते थे कि यह समृद्धि पर पनपे। उन्होंने शिक्षा व्यवस्था बेहतर की, विदेशी कंपनियां देश में कारोबार करें इसकी राह आसान की, सड़कें साफ़ और सुरक्षित की और गलतियां करने वालों को कम समय में उचित दंड दिया जिससे अपराधियों के मन में एक ऐसा भय बैठा की देश में अपराध कम होने लगे।
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भारत की तरह सिंगापुर में भी कई धर्म एक साथ रहते हैं लेकिन भारत के विपरीत सिंगापुर में आखिरी बार दंगा साल 2013 में हुआ था और उसके पीछे की वजह साम्प्रदायिकता नहीं थी। जबकि भारत में स्वंत्रता के बाद भी हुए दंगों की सूची बहुत लंबी है और अभी हाल ही में हो रहे दंगे इसमें नया जोड़ हैं।
भारत में आवश्यकता है तो सिंगापुर जैसे ही अर्ध सत्तावादी मॉडल की जो देश को सही दिशा में निर्देशित कर सके, क्योंकि विभिन्न धर्मों के बीच शांति बनाये रखने के लिए कुछ सख्त नियम और क़ानूनों की आवश्यकता होती है और नियम केवल बनाने नहीं होते बल्कि उन्हें सख्ती के साथ जमीन पर लागू करना होता है। कोई अपराध करे तो उस अपराधी को समय पर सजा देना आवश्यक है ताकि फिर कोई ऐसा गुनाह करने के बारे में सोचे भी नहीं। यदि कोई गुनहगार के पक्ष में बोलने आए तो उस पर भी कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जाए।
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