“तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख मिलती रही है, लेकिन इंसाफ नहीं मिलता मिलॉर्ड, इंसाफ नहीं मिलता, मिलती है तो सिर्फ एक तारीख!” कभी सोचा है कि सामने फिल्म उद्योग का एक सुपरस्टार हो, जो अपने करियर में सफलता के कई आयाम देख चुका हो और फिल्म की कथा जिस पर आधारित हो, उससे अधिक लोकप्रियता एक सहायक कलाकार बटोर ले, जिसका कार्य था केवल नायिका को समर्थन देना, भले स्वयं का जीवन नारकीय ही क्यों न हो। कहते हैं राजा का पुत्र अक्सर योग्य नहीं होता परंतु अजय सिंह देओल अलग ही मिट्टी के बने थे और ‘दामिनी’ में अधिवक्ता गोविंद की सफलता से जो उन्होंने अपना मंच बनाया, उसके समक्ष कोई नहीं टिका।
यह कथा है धर्म सिंह देओल यानी धर्मेन्द्र के सुयोग्य पुत्र अजय सिंह देओल यानी हम सबके प्रिय सन्नी देओल की, जो आज ही के दिन 1957 में जन्मे थे और जो आज भी अपने अद्वितीय रोल्स के लिए देश भर में जाने जाते हैं। अधिकतम एक्शन रोल्स के लिए प्रसिद्ध रहने वाले सन्नी देओल अपने अभिनय के साथ एक और चीज के लिए भी प्रसिद्ध थे- वे उस समय तीनों खानों से भिड़ते थे, जब किसी में औकात नहीं थी। फिल्मों में भले ही इस तिकड़ी के अनुसार पटकथा लिखी जाए परंतु बॉक्स ऑफिस पर सन्नी पाजी का जलवा रहता था।
विश्वास नहीं होता तो प्रारंभ करते हैं सलमान खान से। वैसे इनकी और सन्नी देओल में कोई खास अनबन नहीं थी परंतु यदि प्रोफेशनली कोई क्लैश हुआ तो सन्नी देओल सदैव विजयी रहे। 1996 में मझदार और हिम्मत में बॉक्स ऑफिस पर टक्कर हुई तो सलमान खान की फिल्म की कोई खास कमाई नहीं हुई और सन्नी देओल की मझदार ने दूसरी ओर 5 करोड़ के बजट पर 10 करोड़ की कमाई की, जो आज के हिसाब से सुपरहिट तो कम से कम कही ही जाएगी। ठीक इसी भांति अगले ही वर्ष सलमान खान ‘औज़ार’ नामक फिल्म के साथ आए, जो हिट रही परंतु 6 करोड़ के बजट के अनुपात में उसे 23 करोड़ मिले। ऐसा इसलिए क्योंकि उसी दिन प्रदर्शित हुई सन्नी देओल की बहुचर्चित ‘जिद्दी’, जो आज भी कई लोगों के लिए उनकी प्रिय फिल्म है। दोनों एक फिल्म ‘जीत’ में भी साथ आए थे, जहां ग्रे शेड में होते हुए भी सन्नी, सलमान पर भारी पड़ गए।
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शाहरुख, आमिर की भी लगाई क्लास
अब सलमान भाई तो अपनी धुन के पक्के परंतु कुछ ऐसे भी लोग थे, जो बिना गोबर चखे थोड़े ही मानते। ऐसे थे शाहरुख खान और आमिर खान! शाहरुख और सन्नी देओल ने एक साथ यश चोपड़ा की फिल्म ‘डर’ में काम किया और इसके बाद दोनों पुनः कभी साथ नहीं आए और न ही सन्नी पाजी ने YRF की ओर मुड़कर देखा। परंतु शाहरुख खान कहां गलतियों से सीखते, भिड़ गए सन्नी पाजी से, वो भी तब, जब वो अपने करियर के शिखर पर थे। शाहरुख ‘असोका’ लेकर ‘इंडियन’ से भिड़ गए। खुद तो डूबे ही तमिल स्टार अजीत कुमार की भी नैया डुबाई और ऐसी डुबोई कि उन्होंने फिर कभी हिन्दी सिनेमा में काम न करने की शपथ खा ली।
लेकिन जितने चीखट आमिर खान हैं, उतना तो शायद ही कोई होगा। ये सन्नी पाजी से तीन बार भिड़े और तीनों बार घाटे का सौदा हुआ। हां, एक बार खुद सन्नी पाजी भी पिटे परंतु आमिर खान को कूटे बिना नहीं गिरे। 1990 में राजकुमार संतोषी की प्रथम फिल्म ‘घायल’ ने आमिर खान के बहुप्रतीक्षित ‘दिल’ को जबरदस्त टक्कर दी। 1996 में भले ही ‘राजा हिन्दुस्तानी’ को ‘घातक’ नहीं पछाड़ पाई परंतु घरेलू कलेक्शन में काशीनाथ राजा जी पर भारी पड़ गए। परंतु खेल बदला 2001 में जब भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े क्लैश में से एक हुआ।
यह फिल्म थी प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक अनिल शर्मा की फिल्म ‘गदर’ – एक प्रेम कथा’। गदर में मुख्य भूमिकाओं में थे सनी देओल, अमीषा पटेल, अमरीश पुरी इत्यादि। गदर फिल्म आज ही के दिन ऑस्कर में नामांकित होने वाली ‘लगान’ के साथ ही रिलीज हुई थी परंतु इसके बावजूद गदर न केवल आमिर खान की बहुप्रतिष्ठित फिल्म के समक्ष टिकी बल्कि बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे भी गाड़े। उल्टे लगान को अपने बजट बचाने के लाले पड़ गए। यह उन चंद फिल्मों में से है, जिसने भारत के विभाजन पर बुद्धिजीवियों के तलवे नहीं चाटे और इसके बावजूद उसकी बॉक्स ऑफिस सफलता को कोई नुकसान नहीं हुआ।
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भारत के विभाजन के बारे में फिल्में बहुत शुरुआत से ही बनती चली आ रही है परंतु आश्चर्यजनक रूप से लगभग सभी फिल्मों में जो दोषी हैं, उन्हें पीड़ित के तौर पर दिखाया गया है। इसकी शुरुआत किसी और ने नहीं स्वयं यश चोपड़ा ने की, जिन्होंने 1959 में विभाजन के परिप्रेक्ष्य में बनाई ‘धूल का फूल’ नामक फिल्म में मुसलमानों को शोषितों के तौर पर और हिंदुओं एवं सिखों को क्रूर, बर्बर शोषकों के तौर पर दिखाया।
जो प्रथा यश चोपड़ा ने शुरू की, वो जल्द ही स्टॉकहोम सिंड्रोम के सबसे घटिया उदाहरणों में से एक में बदल गई। विभाजन पर कोई भी बॉलीवुड की फिल्म हो, दिखाया यही जाता था कि पीड़ित मुसलमान थे और दोषी हिन्दू और सिख। चाहे एम एस सत्यू की गरम हवा हो या 1947 में दीपा मेहता द्वारा निर्देशित अर्थ, विभाजन को ऐसा चित्रित किया जाता था मानो ये सब हिंदुओं और सिखों के कुकर्मों का स्वाभाविक दुष्परिणाम है। भला हो करण जौहर की ‘कलंक’ उस समय प्रदर्शित नहीं हुई वरना वह फिल्म एक ‘बेजोड़ उदाहरण’ होती कि विभाजन के लिए जानबूझकर हिंदुओं को दोषी कैसे बनाना चाहिए।
‘गदर’ ने मचाया था गदर
पर यहीं पर ‘गदर’ सबसे अलग थी। पहली बार कोई विभाजन को चित्रित करने के नाम पर बुद्धिजीवियों के तलवे नहीं चाट रहा था। उल्टे उन्होंने वहीं प्रहार किया जहां उन्हें सबसे अधिक चिढ़ मचती है। जिस प्रकार से प्रारंभ के दृश्यों में देश का विभाजन दिखाया गया और जिस प्रकार से निर्देशक ने बिना किसी द्वेष से हिंदुओं, सिखों और यहां तक कि मुसलमानों की पीड़ा को समान रूप से दिखाया, उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि गदर किन मायनों में अन्य फिल्मों से अलग थी। निस्संदेह इस फिल्म में कई मसालेदार तड़के थे पर अपने समय के लिए भी ये काफी यथार्थवादी और भावनापूर्ण थी।
सन्नी देओल अपने एक्शन रोल के लिए ज्यादा जाने जाते थे परंतु तारा सिंह जैसे सौम्य रोल में उन्होंने सभी को चकित कर दिया। अमीषा पटेल को फिल्म उद्योग में आए एक वर्ष भी नहीं हुआ था परंतु सकीना के रूप में उन्होंने सबका मन मोह लिया। विवेक शौक ने दरमियान सिंह के रूप में सबको लोटपोट किया तो वहीं अमरीश पुरी ने अशरफ अली के रूप में लोगों का मन भी मोहा और उन्हें क्रोधित भी किया। आज भी आप ये नहीं कह सकते कि आप गदर के संगीत से चिढ़ते हो और कोई पागल ही होगा जो कहेगा, मुझे ‘उड़ जा काले काँवाँ’/ ‘मैं निकला गड्डी लेके’ नहीं पसंद है।
लेकिन जब गदर सिनेमाघरों में लगी थी तो उसे भी कम विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। कट्टरपंथी मुसलमानों को अपने सामने अपने बीते हुए कल का ऐसा सटीक चित्रण भला क्यों सुहाता? सो उन सब ने खूब उत्पात मचाया लेकिन फ़िल्मकारों को रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा और फिल्म महीनों तक बॉक्स ऑफिस पर ‘गदर’ मचाती रही। 20 साल बाद भी आज लोग गदर और तारा सिंह के दीवाने हैं और 20 साल बाद भी पाकिस्तानी तारा सिंह के ‘हैन्ड पंप’ के ख्याल से कांप उठते हैं! आज सन्नी देओल अपने पुनरुत्थान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और ‘चुप’ इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। उन्हें पुनः ऐसी फिल्में करनी चाहिए, जहां वे मनोरंजन भी करते थे और उद्योग के कथित ठेकेदारों, विशेषकर Khans और Kapoors को पटक पटक कर धोते थे।
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