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जे बी कृपलानी, जो 1947 में कांग्रेस अध्यक्ष थे लेकिन नेहरू का विरोध किया तो…

जे.बी. कृपलानी की वो कहानी जिसे डर-डर कर, काट-छांट करके, किंतु-परंतु लगाकर आपको बताई गई।

Devesh Sharma द्वारा Devesh Sharma
14 January 2023
in प्रीमियम
जेबी कृपलानी

Source- Google

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सत्ता अंग्रेजों के हाथों से भारतीयों के हाथों में आ गई थी। देश आजाद हो चुका था। स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेने वाले सभी प्रभावशाली लोग संविधान सभा से होते हुए बड़े-बड़े पदों पर आसीन हो गए थे। अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करने वाले नेता एक दूसरे की कुर्सी खींचने में लगे हुए थे लेकिन एक व्यक्ति थे, जिन्हें न ही सत्ता का लोभ था और न ही लोकप्रियता का। वो सिर्फ आजाद भारत की जनता को उसके अधिकार देना चाहते थे। वो चाहते थे कि गरीब जनता ने आजादी को लेकर जो सपने देखे हैं, उन्हें पूरा किया जाए। इनका नाम था जीवटराम भगवानदास कृपलानी यानी जे.बी. कृपलानी।

दरअसल, जे बी कृपलानी सादा जीवन उच्च विचार की राह पर चलने वाले खांटी कांग्रेसी नेता थे। लेकिन उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में सत्ता का लोभ न पालते हुए हमेशा ही गलत नीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई फिर चाहे वह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की आलोचना करना हो या उनकी प्रचंड बहुमत की सरकार के खिलाफ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव लाना हो।

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हैदराबाद का भारत में पूर्ण विलय: जब पटेल ने कहा- नेहरू अपने आप को समझते क्या हैं? आज़ादी की लड़ाई दूसरे लोगों ने भी लड़ी है

नेहरू की निष्क्रियता से 1947 के बाद भी 14 वर्षों तक गुलाम रहा गोवा, RSS ने आज़ादी में निभाई अहम भूमिका

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नेहरू ने जब-जब एक ‘तानाशाह का रूप’ धारण किया, तब-तब उनके विरुद्ध जे बी कृपलानी खड़े दिखाई दिए। यही नहीं, 70 के दशक में इंदिरा गांधी की तानाशही के खिलाफ भी जे बी कृपलानी ने मुखर रूप से अपनी बातों को रखा, जिसका नतीजा यह हुआ कि 82 वर्ष की उम्र में उन्हें जेल तक जाना पड़ा। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। इस लेख में हम आपको बताएंगे कि कैसे कभी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे जे बी कृपलानी, नेहरू के ‘तानाशाही रवैये’ पर आवाज उठाने के बाद पार्टी में ही साइडलाइन कर दिए गए और उन्हें पार्टी से इस्तीफा तक देना पड़ गया।

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नेहरू को लेकर मुखर थे कृपलानी

दरअसल, आचार्य जे बी कृपलानी एक स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद थे। उनका जन्म 11 नवम्बर 1888 को हैदराबाद में हुआ था। पढ़ाई पूरी करने के बाद वो मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए थे। स्वतंत्रता हेतु आंदोलनों में शामिल होने से पहले उन्होंने 1912 से 1927 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गुजरात विद्यापीठ जैसे अलग-अलग शिक्षण संस्थानों में अध्यापन का कार्य किया। शिक्षण कार्य के दौरान उनका परिचय मोहनदास करमचंद गांधी से हुआ, जिसके बाद वो सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक अलग-अलग आंदोलनों में सम्मिलित होते गए और भारतीय राजनीति में अपना महत्वपूर्ण कद स्थापित कर लिया।

कृपलानी अपनी राजनीतिक यात्रा में 1934 से लेकर 1936 तक कांग्रेस के महासचिव रहे। वर्ष 1946 में जब देश आजाद होने की ओर अग्रसर था, तब उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष का पद एक बहुत बड़ा पद हुआ करता था और उस पर बैठने वाले व्यक्ति के पास बहुत बड़ी जिम्मेदारी। इसीलिए जब जे बी कृपलानी को अध्यक्ष बनाया गया तो उनके ऊपर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई थी, जिसे वो बखूबी निभा भी रहे थे। लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस के अधिकतर नेता संविधान सभा में शामिल हो चुके थे और उसके बाद जब सरकार बनी तो मंत्री पदों को संभालने में व्यस्त हो गए थे।

ऐसे में जनता की पहुंच नेताओं तक कम होती चली गई और पूरी जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के ऊपर आ गई। यही नहीं, नेहरू की नीतियों से जब कृपलानी असहमत होते और कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर बैठकर उनका विरोध करते तो नेहरू को असहजता महसूस होती। नेहरू को कृपलानी से ‘पद का खतरा’ तक महसूस होने लगा था। अंत में जब कृपलानी ने नेहरू की आलोचना करना बंद नहीं किया तो नेहरू ने ऐसा माहौल तैयार किया कि 1947 में उन्हें कांग्रेस पद से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी कृपलानी ने हार नहीं मानी। उन्होंने 1950 में एक बार फिर से कांग्रेस पद के लिए चुनाव लड़ा लेकिन दुर्भाग्य से वो चुनाव हार गए और सरदार पटेल गुट के नेता पुरषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष पद पर आसीन हो गए।

लेकिन ध्यान देने योग्य है कि टंडन और नेहरू दोनों अलग-अलग विचारों के नेता थे। इसलिए नेहरू की राह का कांटा अभी भी हटा नहीं थी बस नाम बदल गया था। नेहरू अभी अध्यक्ष पद को लेकर असहज थे और उनकी असहजता का समापन 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद हुआ। दरअसल, सरदार पटेल की मृत्यु होने के बाद टंडन का सपोर्ट लगभग समाप्त होने लगा और अंत में स्वयं नेहरू अध्यक्ष के पद पर आसीन हो गए। हालांकि, जे बी कृपलानी अभी भी राजनीति में सक्रिय थे और नेहरू की तानाशाही के खिलाफ मुखर रूप से आवाज उठा रहे थे। लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस नहीं बल्कि ‘किसान मज़दूर प्रजा पार्टी’ थी क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद ही कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया था।

आपातकाल में हुई थी गिरफ्तारी

‘किसान मज़दूर प्रजा पार्टी’ में कुछ समय रहने के बाद जे बी कृपलानी ने एक नयी पार्टी ‘प्रजा समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की, जिससे वो 1952, 1957, 1963 और 1967 में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे और वहां जाकर अपनी बात रखी। यही नहीं, 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद वो यह जानते हुए कि नेहरू के पास प्रचंड बहुमत की सरकार थी, फिर भी वर्ष 1963 में संसद में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए। जिसके बाद देश की राजनीति में हलचल मच गई थी। हालांकि, बहुमत में होने के कारण सरकार का कुछ नहीं हुआ लेकिन यह आजादी के बाद देश की संसद में लाया गया पहला अविश्वास प्रस्ताव था।

आपको बता दें कि कि लोकसभा चुनाव 1971 में हारने के बाद जे बी कृपलानी ने राजनीति छोड़ आध्यात्म और पर्यावरण संरक्षण की ओर रुख कर लिया। लेकिन अपने आप को राजनीति में होने वाली गितिविधियों से दूर न रख सके। इसीलिए जब 1975 में इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को तार-तार कर देश में आपातकाल घोषित किया और लोगों पर अत्याचार किए तो कृपलानी ने इसकी भी कड़ी आलोचना की थी। जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। अंत में 19 मार्च 1982 को साबरमती आश्रम में इस महान नेता का निधन हो गया।

यदि जे बी कृपलानी की राजनीतिक यात्रा के बारे में संक्षेप में कहा जाए तो वो एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने अपने पूरे जीवन में कांग्रेसी विचारधारा के साथ काम किया था। लेकिन कांग्रेस के एक और बड़े नेता यानी जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें न केवल कांग्रेस में किनारे करने का काम किया बल्कि इनके विरुद्ध एक ऐसा माहौल बनाया कि उन्हें अंत में कांग्रेस पद ही छोड़ना पड़ गया था।

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