क्रिकेट में स्लेजिंग तो आप सबने देखी या सुनी तो अवश्य होंगी, परंतु राजनीति में कभी स्लेजिंग सुनी है? इसका कांग्रेस से शत प्रतिशत नाता नहीं है, परंतु कुछ ऐसे लोग हैं, जो वामपंथी लॉबी के अपेक्षाओं के ठीक विपरीत होने के कारण उन्हें चैन से सोने भी नहीं देते और फिर राजनीतिक स्लेजिंग का सहारा लेते हैं, ताकि उनके हितों का विरोधी भ्रमित हो जाए, अपने कर्तव्य पथ से विमुख हो जाए और ऐसे ही एक व्यक्ति हैं हमारे विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे सुब्रह्मण्यम जयशंकर के वर्तमान विचारों के कारण वामपंथी लॉबी हाथ धोकर पीछे पड़ी हुई है?
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क्यों जयशंकर के पीछे पड़े वामपंथी?
पिछले कई दिनों से सुब्रह्मण्यम जयशंकर विभिन्न कारणों से चर्चा के केंद्र में बने हुए हैं और उतनी ही तत्परता से वामपंथी लॉबी भी इनके पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई है। परंतु जयशंकर महोदय ने ऐसा क्या किया जो लगभग हर वामपंथी उनको निशाने पर ले रहा हैं? कारण बड़ा सरल है- जयशंकर द्वारा भारत की विदेश नीति का कायाकल्प एवं लगभग हर जटिल समस्या के लिए जयशंकर के पास एक उचित समाधान होना, जो वामपंथियों को फूटी आंख नहीं सुहा रहा है।
एक समय था, जब भारत अपने आप को एक “शांतिप्रिय देश” के रूप में प्रदर्शित था, जो गुट निरपेक्षता का कट्टर समर्थक था। तत्कालीन पीएम नेहरू की इस ऊटपटांग नीति में कभी कोई बदलाव नहीं हुआ और यदि कोई अन्य सरकार आई, तो उसने भी कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुए। स्वयं एस जयशंकर भी कुछ देशों को बतौर राजदूत अपनी सेवाएं दे चुके थे। ऐसे में जब 2019 में सुषमा स्वराज के स्थान पर उन्हें को विदेश मंत्री बनाया गया, तो अधिकतम राजनीतिक विश्लेषकों, विशेषकर वामपंथियों का मानना था कि वे कुछ खास नहीं करेंगे और पीएम मोदी ही परदे के पीछे से समस्त कार्यभार संभालेंगे।
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भारत की विदेश नीति में परिवर्तन
परंतु वो कहते हैं न, जो दिखता है, आवश्यक नहीं कि वही हो। एस जयशंकर ने भारत की विदेश नीति संभालते हुए उसमें ऐसे क्रांतिकारी परिवर्तन किये कि सब के सब आश्चर्यचकित रह गए। जो भारत कल तक पाकिस्तान छोड़िए, नेपाल से भी सीधे मुंह बात करने से कतराता था, वो अचानक से चीन सहित अमेरिका तक को प्रत्यक्ष तौर पर चुनौती देने लगा। रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका ने सभी हथकंडे अपनाए, यहां तक कि भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दी, परंतु एस जयशंकर के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति टस से मस नहीं हुई।
इसके अतिरिक्त एस जयशंकर उन सभी नीतियों का अक्षरश: पालन करते हैं, जिसके आधार पर पीएम नरेंद्र मोदी भारत को आगे बढ़ाना चाहते हैं। चाहे अपनी संस्कृति से समझौता न करना हो, या फिर शत्रु को ऐसा उत्तर देना कि वे प्रत्युत्तर देने योग्य न रहे, जयशंकर लगभग सभी में निपुण है। हाल ही में उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर कूटनीति सीखनी है, तो पवनपुत्र हनुमान और योगीराज श्रीकृष्ण से सीखे, जो अपने आप में संसार के सर्वप्रथम राजनयिकों में से एक थे। उनका ध्येय स्पष्ट था- अब कोई भी देश, चाहे वो पाकिस्तान हो या फिर अमेरिका, भारत को हल्के में लेने की भूल कदापि न करें।
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इसीलिए चिढ़े हुए हैं वामपंथी
अब ऐसा व्यक्ति यदि भारत को आगे बढ़ाएगा, तो हमारे वामपंथी बंधु तो कतई न प्रसन्न होने वाले और हुआ भी वही। हाल ही में जयशंकर के उक्त बयान को लेकर द हिन्दू के एक पत्रकार ने आवश्यकता से अधिक होशियारी दिखाते हुए कटाक्ष किया, “IFS के किस बैच से ये लोग थे सर?” परंतु यह दांव उल्टा पड़ा और उस पत्रकार को जमकर गालियां तो मिली ही, साथ ही साथ द हिन्दू के एडिटोरियल समूह ने भी इससे पल्ला झाड़ते हुए कहा कि इनके विचारों से हमारा कोई संबंध नहीं।
परंतु बात केवल यहीं तक थोड़ी न सीमित है। जिस प्रकार हिंडनबर्ग रिसर्च के एक आधे अधूरे रिपोर्ट के पीछे लोग गौतम अडानी को घेरे में ले रहे हैं, ठीक उसी प्रकार वामपंथी अब एस जयशंकर को उनके मुखर, राष्ट्रवादी विचारों के लिए आड़े हाथ ले रहे हैं। अभी हाल ही में जब जयशंकर ने राहुल गांधी को उनके अधकचरे विचारों, विशेषकर चीन के साथ हमारी नीतियों पर क्लास लगाई, तो राहुल गांधी के चमचा प्रमुख और कभी यूपीए सरकार में मंत्री रहे जयराम रमेश बिदक गए और वे लगे एस जयशंकर को खरी खोटी सुनाने।
जयराम रमेश DDLJ का उदाहरण देते हुए कहते हैं, “इन दिनों सरकार DDLJ मोड में है, यानी Deny, Distract, Lie, Justify। DDLJ के केंद्र सरकार वाले वर्जन में विदेश मंत्री एस जयशंकर लीड रोल में हैं।”
परंतु ये साहब उतने पे न रुके। आगे कहते हैं, “लद्दाख में चीनियों की घुसपैठ पर भारत सरकार जो नीति अपना रही है, वो DDLJ पॉलिसी है। कांग्रेस पार्टी पर विदेश मंत्री का बयान, साफ तौर पर चीन पर मोदी सरकार की असफलता से ध्यान हटाना है। सबसे ताजा खुलासा यह है कि मई 2020 से अब तक भारत ने 65 में से 25 पेट्रोलिंग स्टेशन खो दिए हैं।
फैक्ट यह है कि 1962 से अब तक के बीच कोई तुलना नहीं है, जब भारत ने अपनी जमीनों को बचाने के लिए जंग लड़ी थी। 2020 के बाद भारत ने चीन की घुसपैठ को चुपचाप स्वीकार कर लिया और डिसइंगेजमेंट के नाम पर इसे नकार भी दिया। इस दौरान भारत ने अपनी हजारों किलोमीटर जमीन खो दी। 2017 में जब राहुल गांधी ने चीन के एम्बेसडर से मुलाकात की थी, तब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने उनके खिलाफ ओछी बयानबाजी की थी। क्या विपक्ष के नेता किसी ऐसे देश के राजदूत से नहीं मिल सकते, जो व्यापार, निवेश, सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण हो?”
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द प्रिंट ने पठाने देखने की सलाह दे डाली
पर छोड़िए, ये तो जयराम रमेश ठहरे, इनका ऐसे बकैती करना स्वाभाविक भी है। परंतु द प्रिन्ट तो इनसे भी दस कदम आगे निकलते हुए जयशंकर को “पठान” देखने का सुझाव देने लगा। इनके अनुसार, “यदि जयशंकर को मोदी के विचारों को आगे ही बढ़ाना है, तो उन्हे ‘पठान’ देखने की सख्त आवश्यकता है, क्योंकि यह भारत-पाक संबंधों को एक अलग दृष्टिकोण से देखती है।”
तो मतलब हमारे वर्तमान विदेश मंत्री इतने अपरिपक्व हैं कि इनको एक ऐसी फिल्म को देखने की आवश्यकता पड़ेगी, जिसका न कोई सर है पैर, और उसका एजेंडा भी इतना अधपका है कि आप क्रोधित होने के बजाए हंस पड़ोगे। ऐसे में ये कहना गलत नहीं है कि सुब्रह्मण्यम जयशंकर के पीछे जिस प्रकार से वामपंथी लॉबी अभी हाथ धोकर पड़ी है, उसका एक ही उद्देश्य है, जयशंकर को कैसे भी करके नीचे दिखाना, चाहे स्वयं की लंका क्यों न लगे।
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