कैसे दो महाराजाओं ने मिलकर केडी जाधव को ओलंपिक पदक जितवाया

ऐसा भी होता है....

केडी जाधव: समय था 1952 का। फिनलैंड के हेलसिंकी में ओलंपिक होने वाले थे। एक अभ्यर्थी ऐसा भी था, जो लंदन वाली भूल पुनः नहीं दोहराना चाहता था। परंतु उसके लिए आगे की राह काँटों की सेज समान थी। नौकरशाह तो नौकरशाह, राजनीतिज्ञों को भी उसकी इच्छा में कोई रुचि नहीं थी। इस व्यक्ति के स्वप्न नीतिगत पंगुता के पैरों तले रौंदे जाने वाले थे, परंतु तभी एक चमत्कार हुआ।

इस लेख में पढिये कि कैसे दो महाराजाओं के सहयोग से भारत को उसका प्रथम व्यक्तिगत ओलंपिक पदक मिला, जो एक नेता की बेरुखी में भारत के हाथ से फिसलने वाला था।

आज की भांति नहीं थी भारतीय खेल नीति

आज अगर हमारे देश के खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में ओलंपिक पदक जीत रहे हैं, तो इसके पीछे एक विस्तृत नेटवर्क हैं, जिसमें खिलाड़ी के प्रशिक्षक से लेकर सरकारी प्रोत्साहन सम्मिलित है। इसी का परिणाम है कि आज नीरज चोपड़ा जैसे नायक उभर के आ रहे हैं।

परंतु प्रारंभ में ऐसा नहीं था। क्वालिटी प्रशिक्षण तो छोड़िए, हमारे खिलाड़ियों के पास पहनने को ढंग के कपड़े भी नहीं थे। हम आज भी नहीं भूल सकते कि कैसे फंड्स के अभाव में भारत के पास अवसर होते हुए भी वह 1950 के फीफा विश्व कप में भाग नहीं ले पाई थी।

ऐसे ही कशाबा दादासाहेब जाधव को भी अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। बुद्धि और बल, दोनों के ही धनी थे वह। कुश्ती में उनके कौशल को देखते हुए रीस गार्डनर नामक एक ब्रिटिश प्रशिक्षक ने उन्हे अपने दम पर लंदन ओलंपिक 1948 के लिए तैयार किया। उन्हे कोल्हापुर प्रांत से थोड़ी वित्तीय सहायता भी मिली। केडी जाधव को मैट पर कुश्ती करने का कोई अनुभव नहीं था, परंतु उन्होंने भी अपने डेब्यू परफ़ॉर्मेंस से कइयों को प्रभावित किया। वे मामूली अंतर से पदक जीतने से चूक गए और छठे स्थान पर रहे।

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धन के अभाव में रह जाता जाधव का ओलंपिक स्वप्न अधूरा

4 वर्ष बाद केडी जाधव पहले से अधिक तैयार थे। उन्होंने हेलसिंकी में ओलंपिक पदक जीतने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग भी पूरी कर ली थी। परंतु इस बार उनके सामने अनुभवहीनता का पर्वत नहीं था, उनके समक्ष नीतिगत पंगुता की दीवार था, जिसके अंतर्गत उन्हे ओलंपिक के आवश्यक ट्रायल से जानबूझकर बाहर किया गया।

इस बात से आहत केडी जाधव ने प्रशासन से सहायता मांगी, और इस संबंध में तत्कालीन बॉम्बे स्टेट [अब महाराष्ट्र] के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई से भी मिले। परंतु मोरारजी के कानों पर जूँ तक न रेंगी, और उनका बस चलता तो वे केडी जाधव को कुश्ती के अखाड़े के आसपास नहीं फटकने देते।

परंतु केडी जाधव ने हार नहीं मानी। उन दिनों पटियाला के महाराजा यदवीन्द्र सिंह अपने खेल प्रेम के लिए खूब जाने जाते थे, और वे स्वयं भारत के लिए एक टेस्ट मैच भी खेल चुके थे। उनके पास जब केडी जाधव अपनी समस्या ले गए, तो उन्होंने अविलंब एक ट्रायल का आयोजन कराया, जिसमें केडी जाधव निर्विरोध रूप से विजयी हुए।

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आज भी अधिकांश देशवासी इस बात से है अपरिचित

परंतु जाधव दादा की समस्याएँ तब भी खत्म नहीं हुई थी। उन्हे हेलसिंकी जाने के लिए 12000 से अधिक रुपयों की आवश्यकता थी। उनके शिक्षक ने अपने घर को दांव पे लगाकर 7000 रुपयों का प्रबंध कराया, और भले ही कोल्हापुर के राजा अब उतने शक्तिशाली नहीं रहे, परंतु जब केडी जाधव उनके पास वित्तीय सहायता हेतु गए थे, तो वे खाली हाथ नहीं लौटे।

अब केडी जाधव का सारा ध्यान हेलसिंकी में अपने मुकाबले पर था। उन्होंने अपने प्रारम्भिक दांव सरलता था, और क्वार्टरफाइनल एवं सेमीफाइनल के बीच लगभग आधे घंटे का ब्रेक था। परंतु जानकारी के अभाव में केडी जाधव ठीक सेमीफाइनल के प्रारंभ होने से पूर्व पहुंचे, और उन्हे विश्राम के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला।

चूंकि कोई भारतीय उच्चाधिकारी उनकी सहायता के लिए उपस्थित नहीं था, इसलिए केडी जाधव को विवश होकर वह राउन्ड लड़ना ही पड़ा, और वे जापान के शोइची इसाची के हाथों पराजित हो गए, जिन्होंने बाद में स्वर्ण पदक जीता। परंतु जाधव ने जितने पॉइंट प्राप्त किये, उसने उन्हे कांस्य पदक दिलाया। कहने को पेरिस 1900 में नॉर्मन प्रिचर्ड ने भारत को दो रजत पदक दिलाए, परंतु वह मूल रूप से ब्रिटिश नागरिक थे। ऐसे में केडी जाधव ने स्वतंत्र भारत को उसका प्रथम व्यक्तिगत पदक दिलाने में सफलता प्राप्त की थी। परंतु देश की विडंबना देखिए, आज भी कई देशवासी इस अभूतपूर्व योगदान से अपरिचित है।

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