भारत के इतिहास में जितना योगदान जन समूह एवं संस्कृति का है, उतना ही राजा महाराजाओं का भी है। जब भारत में स्पोर्टिंग कल्चर का अस्तित्व भी नहीं था, तब कुछ राजाओं ने खेलों को अपना अस्त्र बनाते हुए जन समर्थन जुटाने का प्रयास किया, जिसमें पटियाला के महाराजा यदवीन्द्र सिंह की विशिष्ट भूमिका है। परंतु वे अकेले नहीं थे, एक और महाराजा भी थे, जिन्होंने अपनी रुचि को भारत में एक लोकप्रिय खेल बना दिया। इस लेख में पढिये बीकानेर के महाराजा करणी सिंह के बारे में, जो स्वयं भी एक कुशल निशानेबाज़ थे, और उन्होंने इस खेल को बढ़ावा भी दिया।
बीकानेर की रियासत से निशानेबाज़ी के ग्राउन्ड्स तक….
21 अप्रैल 1924 को करणी सिंह का बीकानेर के रियासत में जन्म हुआ। ये अपने रियासत के अंतिम राजप्रमुख थे, जिनकी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा वही हुई। तद्पश्चात उन्होंने सेंट स्टीफंस कॉलेज , दिल्ली और सेंट जेवियर्स कॉलेज , बॉम्बे में पढ़ाई की थी, जहां उन्होंने बीए से इतिहास और राजनीति विज्ञान में किया। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में सक्रिय सेवा देखी, अपने दादा के साथ मिडिल ईस्ट में एक्शन देखा। 1950 में इन्हे बीकानेर रियासत का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और 1952 में उन्हे सत्ता संभाली।
उसी वर्ष युवा महाराज करणी सिंह को स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से भारत के लोकसभा (निचले सदन) में संसद सदस्य चुना गया, एवं विभिन्न मंत्रालयों को संभालते हुए वे 1977 तक प्रशासन का सक्रिय भाग रहे। वह राजस्थानी भाषा के प्रबल समर्थक थे और भारतीय संविधान के 14 वें शेड्यूल में शामिल करने के लिए तर्क दिया था।
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विश्व चैम्पियनशिप की अप्रत्याशित सफलता….
परंतु करणी सिंह की रुचि केवल इतने तक सीमित नहीं थी। फोटोग्राफी और पेंटिंग सहित उन्हे निशानेबाज़ी में भी विशेष रुचि थी। इसी आधार पर उन्होंने ट्रैप शूटिंग में अपना भाग्य आजमाया, और उन्होंने अद्वितीय सफलता भी प्राप्त की।
उन्होंने 1961 में ओस्लो में वर्ल्ड नेमिंग चैंपियनशिप में अपने देश का प्रतिनिधित्व किया, और अगले साल काहिरा में 38 वें विश्व शूटिंग चैंपियनशिप में एक रजत पदक जीता, पहली जगह के लिए टाई करने के बाद, भारतीय टीम का नेतृत्व किया। ये अपने आप में एक अद्वितीय सफलता थी, परंतु इसके बारे में बहुत ही कम चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त जिस ओलंपिक में मिलखा सिंह मात्र कुछ सेकेंड से ओलंपिक पदक जीतते जीतते रह गए, उसी ओलंपिक में करणी सिंह को भी ऐसी ही मायूसी हाथ लगी। 2000 से पूर्व वे संभवत: एकमात्र भारतीय थे, जिन्होंने शूटिंग के किसी भी स्पर्धा में अंतिम 8 में जगह बनाई थी।
परंतु करणी सिंह शूटिंग को बढ़ावा देने में, और स्वयं सक्रिय रूप से इस खेल में भाग लेने में जुटे रहे। 1966 में वाइसबैडेन में विश्व शूटिंग चैंपियनशिप में फिर से टीम का नेतृत्व किया, और 1967 में बोलोग्ना में और 1969 में सैन सेबेस्टियन में भी भाग लिया। उन्होंने 1967 में टोक्यो में एशियन शुटिंग चैंपियनशिप और 1971 में सियोल में भाग लिया, जहां उन्होंने स्वर्ण पदक। 1974 में तेहरान में एशियाई खेलों में रजत पदक और 1975 में कुआलालंपुर में एशियाई खेलों में एक अन्य रजत पदक जीता। 1981 में उन्होंने क्ले कबूतर शूटिंग, नॉर्थ वेल्स कप और इंग्लैंड कप के उत्तर पश्चिम के लिए वेल्श ग्रांड प्रिक्स जीता।
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इन्होंने स्थापित की एक महत्वपूर्ण नींव….
1961 में डॉ करणी सिंह को अर्जुन पुरस्कार दिया गया, जो उस राष्ट्रीय सम्मान के साथ पुरस्कृत करने के लिए शूटिंग की दुनिया के पहले व्यक्ति बन गये। उन्होंने रोम से लेकर मॉस्को तक की यादों की एक किताब में अपने शूटिंग के अनुभवों को प्रलेखित किया।
इन्ही के कारण भारत में शूटिंग को बतौर एक प्रोफेशनल खेल बढ़ावा दिया गया, और ये परिश्रम तब सफल हुआ, जब 2004 में राजस्थान से ही सैन्यकर्मी, मेजर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने सबको आश्चर्यचकित करते हुए डबल ट्रैप स्पर्धा में रजत पदक जीता। यूं ही नहीं इनके नाम पर दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों से पूर्व एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का शूटिंग रेंज नामांकित हुआ।
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