वर्ष था 1920। असहयोग आंदोलन जोर पकड़ रहा था। अंग्रेज़ भारतीयों के इस बढ़ते रोष से आश्चर्यचकित थे। ऐसे में उन्होंने अपनी “क्रोधित प्रजा” को शांत कराने के लिए कुछ सुधारों की घोषणा की, परंतु जनता के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश प्रशासन के कुख्यात सेल्युलर जेल से एक बंदी की रिहाई सुनिश्चित होने के बाद भी उसे नहीं छोड़ा गया, क्योंकि वह रिहा होने के बाद भी उनके अनुसार “साम्राज्य के लिए खतरा” था। यही थे स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर।
इस लेख में मिलिये पढिये कि कैसे विनायक दामोदर सावरकर को एक आधारहीन मामले में बंदी बनाया गया, और कैसे एक सुनियोजित षड्यन्त्र के अंतर्गत आज भी कुछ लोग उन्हे एक “देशद्रोही” के रूप में संबोधित करते हैं।
विदेश से लड़ रहे थे स्वतंत्रता संग्राम ….
अनेकों वामपंथी दशकों से ये प्रचारित प्रसारित करते हैं कि सावरकर ने कालापानी से बचने के लिए अनेकों प्रयास किये, और निरंतर वे मर्सी पेटीशन भेजते रहे। कई लोग इन्हे “माफ़ीवीर” कहकर भी चिढ़ाते हैं, परंतु सत्य क्या है?
अगर विनायक दामोदर सावरकर के इतिहास पे ध्यान दिया हो, तो वे प्रारंभ से ही घोर राष्ट्रवादी थे। पुणे के छात्र संघों में उनकी उपस्थिति स्पष्ट दिखाई थी। उनकी प्रतिभा देखते हुए राष्ट्रवादी अधिवक्ता श्यामजी कृष्णवर्मा ने उनके आगे की शिक्षा का बीड़ा उठाया, और उन्हे लंदन आमंत्रित किया। जैसा कि पूर्व में चर्चा भी हुई है, श्यामजी कृष्णवर्मा द्वारा संचालित “इंडिया हाउस” केवल एक छात्रावास नहीं था, अपितु क्रांति की पाठशाला थी, जहां से अनेक विचारों एवं स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा मिली।
सावरकर ने अपनी वैधानिक शिक्षा पूरी कर बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त की। परंतु अंग्रेज़ों की आँखों में वे शूल की भांति चुभते रहे। भारत में रहते हुए जिस अभिनव भारत संस्था की उन्होंने स्थापना की थी, उसी के आदर्शों को आगे बढ़ाते हुए इन्होंने 1857 के विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी, जिसपर उन्होंने अपनी अद्वितीय पुस्तक “India’s War of Independence” की रचना की।
इसके अतिरिक्त जब मदनलाल ढींगरा ने एक ब्रिटिश उच्चाधिकारी को मार गिराया, तो कुछ ब्रिटिश समर्थक भारतवंशियों ने एक निंदा प्रस्ताव पारित किया, जिसका सावरकर ने पुरज़ोर विरोध किया, और रोचक बात थी कि समारोह स्थल वही कैक्स्टन हॉल था, जहां 1940 में जलियाँवाला बाग नरसंहार को स्वीकृति देने वाले माइकल ओ डवायर को उधम सिंह ने गोलियों से भून दिया।
जब नाशिक में एक कांड की आंच सावरकर तक पहुंची
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि सावरकर को कालापानी की यात्रा करनी पड़ी? 1910 में एक धूर्त ब्रिटिश कलेक्टर जैक्सन को नाशिक में गोलियों से भून दिया गया। इस ब्रिटिश उच्चाधिकारी को हिन्दी और संस्कृत दोनों आती थी, और इसी के आधार पर वह लोगों का विश्वास जीतने में सफल रहा था, और उसने ब्रिटिश नीतियों को बढ़ावा देने एवं छद्म धर्मांतरण का भी काम किया।
यूं तो सावरकर उग्र राष्ट्रवादी थे, परंतु लीगल और टेक्निकल ग्राउन्ड्स पर इस केस का कोई आधार नहीं था। ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था कि सावरकर पर आरोप तय किये जा सकें, दोषी ठहराना तो दूर की बात रही। परंतु ब्रिटिश प्रशासन को यूं ही क्रूरता की पराकाष्ठा नहीं कहा जाता। चूंकि जैक्सन के हमलावर, अनंत लक्ष्मण कन्हेरे का अभिनव भारत से संपर्क था, इसलिए अविलंब विनायक दामोदर सावरकर के विरुद्ध अरेस्ट वॉरंट जारी हुआ। जब पेरिस से वे लंदन आए, तो उन्हे अविलंब हिरासत में लिया गया।
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सावरकर जानते थे कि उनके साथ क्या होने वाला है, इसलिए उन्होंने फ्रांस के मारसेल्स पोर्ट के निकट “एस एस मोरिया” नामक जहाज के खिड़की यानि पोर्ट्होल से कूद पड़े। वे तट तक पहुँच भी गए, परंतु दुर्भाग्यवश उनके साथी सही समय पर नहीं पहुँच पाए, और उन्हे हिरासत में लिया गया। ब्रिटिश प्रशासन ने ऐसे पैंतरे चलाये कि मामला कोर्ट ऑफ जस्टिस [अब ICJ] में पहुँचने के बाद भी फ्रेंच प्रशासन उन्हे अपनी कस्टडी में नहीं ले पाए। सावरकर को भारत लाया गया, और उन्हें निराधार पैमानों पर 50 वर्ष के आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
अंग्रेज़ों से “माफी मांगने” पर भी ये व्यवहार?
यूं तो कई कैदियों के साथ इन्हे भी राजा जॉर्ज पंचम के एमनेस्टी ऑर्डर का लाभार्थी बनाया गया, परंतु इन्हे 1921 तक नहीं छोड़ा गया।
आज भी इस बात पर चर्चा होती है कि क्या सावरकर देशभक्त थे या देशद्रोही? कांग्रेस समेत कई वामपंथी उन्हे देशद्रोही, ब्रिटिश एजेंट के नाम से संबोधित भी करते हैं। परंतु यदि वे ब्रिटिश एजेंट ही होते, तो उन्हे 1924 तक रत्नागिरी के जेल में बंद क्यों किया गया? उन्हे भी हंसराज वोहरा और फणीन्द्र नाथ घोष की भांति विशेष सुविधाएँ दी जा सकती थी, परंतु 1937 तक उन्हे सक्रिय राजनीति से भी प्रतिबंधित रखा गया। ऐसा क्यों? इनका जवाब है किसी के पास?
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