बस्तर संभाग के कुछ हिस्से अब भी नक्सलवाद की बची-खुची साख को कवच प्रदान कर रहे हैं। यहां नक्सलियों का किला अब लगभग ध्वस्त हो चला है, लेकिन बुझती हुई लौ की धमक कम घातक नहीं होती। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के लिए बीते पांच वर्ष सुकून के रहे, क्योंकि न बड़े अभियान चले और न ही बड़े स्तर पर घेराबंदी हुई। यह विवेचना योग्य तथ्य है कि बार-बार कांग्रेस और वामपंथी नीम और करेले की बेल वाला मुहावरा सही सिद्ध करते क्यों प्रतीत होते हैं?
राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और भाजपा की सरकार बनते ही बस्तर में नक्सल रणनीति आश्चर्यजनक रूप से बदल गई। अचानक नक्सल हमले तेजी से बढ़े और संभाग के माओवादी प्रभावित क्षेत्रों से सुरक्षाबलों को लक्षित कर लगातार हमले होने लगे। राज्य सरकार ने भी सक्रियता दिखाई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही अनेक बार यह प्रतिबद्धता दर्शा चुके हैं कि नक्सलवाद को बस्तर से ही नहीं, देश से निर्मूल करना है।
राज्य में नक्सलियों के खिलाफ सरकार और सुरक्षाबलों की सक्रियता दो स्तरों पर दिखी। पहला, लगातार शिविर बना कर क्षेत्र में अभियान चलाए गए और सूचना आधारित लक्षित हमलों में तेजी लाई गई। शुरू में सरकार पर दबाव देखा जा रहा था, लेकिन अब लगता है कि नक्सली परेशानी में है, उनकी कमर टूट रही है।
नक्सलियों पर भारी सुरक्षाबल
कांकेर जिले के छोटेबेठिया थाना क्षेत्र में बिनागुंडा एवं कोरोनार के मध्य हापाटोला के जंगल में डीआरजी एवं बीएसएफ की टीम ने नक्सलियों को घेरकर बड़ी संख्या नक्सलियों को मार गिराया। यह कार्रवाई सटीक खुफिया सूचना के आधार पर की गई। यही कारण है कि सुरक्षाबल इस आमने-सामने की लड़ाई में नक्सलियों पर हावी दिखे।
छत्तीसगढ़ के गठन के बाद पहली बार इतनी बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए हैं। आम तौर पर नक्सली अपने साथियों के शव साथ ले जाने में सफल रहते हैं। इसलिए हताहत नक्सलियों की संख्या का सही अनुमान लगाना संभव नहीं हो पाता था, परंतु इस बार परिस्थिति अलग थी।
सुरक्षाबल योजना और तैयारी में नक्सलियों पर भारी पड़े। इसीलिए न केवल अभियान सफल रहा, अपितु सभी 29 नक्सलियों के शव भी बरामद कर लिए गए। योजना की सटीकता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सिर्फ तीन जवान घायल हुए।
कांकेर में मिली सफलता इकलौती नहीं है। हाल के दिनों में बस्तर संभाग के दक्षिणी छोर में स्थित कोरचोली और लेंड्रा के जंगल में पुलिस ने मुठभेड़ में 13 नक्सलियों को मार गिराया था। प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीणों का कहना है कि इस बार हताहतों की संख्या और बड़ी है।
मुठभेड़ में मारे गए आधा दर्जन से अधिक शव नक्सली अपने साथ ले जाने में कामयाब हुए हैं। यही नहीं, 10 घंटे तक चली मुठभेड़ में बड़ी संख्या में नक्सली घायल भी हुए हैं। नक्सली अब समझ रहे हैं कि बस्तर से उनके बाहर जाने का समय आ गया है।
राज्य और केंद्र सरकार के एक ही पृष्ठ पर आ जाने के कारण क्षेत्र में परिस्थितियां पूरी तरह से बदल रही हैं। सजगता का उदाहरण है कि केंद्रीय गृह मंत्री ने 22 जनवरी, 2024 को रायपुर में बैठक कर नक्सलवाद की समाप्ति के लिए तीन वर्ष की समय सीमा तय की थी। पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह सचिव और आईबी प्रमुख ने दस राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस निदेशकों के साथ वर्चुअल माध्यम से बैठक ली।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस बैठक में ‘कश्मीर की तरह टारगेट बेस्ड आपरेशन’ को लेकर विमर्श हुआ था। बहुधा नक्सली आक्रामक रहते थे और उनकी रणनीतियों, जाल और उनके घात लगाकर किए गए हमलों में सुरक्षाबल के जवान हताहत हो जाते थे, लेकिन अब सरकार ने अपने सूचना-तंत्र को जमीनी स्तर पर सशक्त किया है।
बस्तर में नक्सलवाद: कल और आज
यह मिथक है कि बस्तर में नक्सलवाद किसी आंदोलन, शोषण या अपने आप से पैदा हुए गुस्से की वजह से पनपा। बस्तर में आदिम समाज के पास अपना विरोध-तंत्र तथा उनकी प्रतिक्रिया देने की शैली सामाजिक संगठन में ही अंतर्निहित थी। यही कारण है यहां विद्रोहों का मौलिक व लंबा इतिहास रहा है। वस्तुस्थिति यह थी कि गोदावरी नदी के एक ओर कोण्डापल्ली सफल नहीं हो रहे थे।
उन्हें नदी के दूसरी ओर बस्तर के जंगलों में अपने लड़ाकों के लिए सुरक्षित जगह बनाने का ख्याल कौंधा। उन्होंने योजना के अनुसार, 1980 के दौरान पांच से सात सदस्यों वाले अलग-अलग सात दल भेजे थे। चार दल दक्षिणी तेलंगाना के आदिलाबाद, खम्मम, करीमनगर और वारंगल की ओर, एक दल महाराष्ट्र के गढ़चिरौली तथा दो दल बस्तर की ओर भेजे गए।
पहले सर्वे का काम पूरा हुआ, फिर नाच-गाना के माध्यम से जनसमूह को आकर्षित किया गया। वनवासियों की सहानुभूति हासिल करने के लिए बांस से लेकर तेंदू पत्ता जैसे जंगल के उत्पादों की उचित मजदूरी देने की मांग उठाई गई। ठेकेदारों को गांव वालों के सामने मारा-पीटा गया। विश्व बैंक की एक योजना थी, जिसके तहत चीड़ के पेड़ लगाए जाने थे। इसका विरोध हुआ। अलग बात है कि चीड़ के पेड़ों के लिए बस्तर की जलवायु वैसे ही अनुपयुक्त है।
सबसे बड़ी बात कि तेंदू पत्ता को लेकर सरकार को ठोस नीति बनानी पड़ी। ये मोटे-मोटे काम हैं, जो बस्तर में नक्सली अभियान की शुरुआत में किए गए। समानान्तर रूप से नक्सली बस्तर अंचल में अपने लिए आधार क्षेत्र भी तैयार करते रहे और खुद को शक्तिशाली बनाने में लगे रहे। कोण्डापल्ली सीतारमैया से मतभेद के बाद 1992 में मुलप्पा लक्ष्मण राव उर्फ गणपति पीपुल्स वार ग्रुप का कमांडर इन चीफ बना। 2 मार्च, 1993 को कोण्डापल्ली सीतारमैय्या को आंध्र पुलिस ने कृष्णा जिले में गिरफ्तार कर लिया।
वर्ष 2004 से 2006 की बात है, जब कई माओवादी धड़े संगठित हुए। इसी दौरान आंध्र प्रदेश में भीषण दमनात्मक कार्रवाइयों के फलस्वरूप नक्सलियों ने अपने काडर के 1,800 से सदस्यों को खो दिया था। बस्तर में घुसने तथा स्वयं को संरक्षित करने की दृष्टि से नक्सलियों के लिए यह उचित समय था। इसी समय अबूझमाड़ नक्सली गतिविधियों का केंद्रीय स्थल बना।
इसी समय बस्तर में कई विकास परियोजनाएं घोषित हुई, सलवा जुड़ूम आरंभ हुआ और सैंकड़ों राहत शिविरों में लाखों विस्थापित रहने लगे और गांवों में सन्नाटों ने बस्तियां बसाई। जब सलवा जुड़ूम का जवाब देने के लिए माओवादियों ने ‘कोया भूमकाल मिलिशिया’ का गठन किया और अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों के हजारों जनजातीय बंधुओं को गृह युद्ध की आहुति बनाया।
छत्तीसगढ़ की परिधि के बाहर बस्तर की नक्सली गतिविधियों पर अत्यधिक रूमानियत भरे आलेख प्रकाशित होते रहे। अधिकांश किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित थे। सलवा जुड़ूम का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अत्यधिक संगठित विरोध अनेकों गैर-सरकारी संगठनों तथा ‘वाद-विशेष के बुद्धिजीवियों’ ने किया। मामला अदालत में भी पहुंचा। दबावों ने अंतत: इस अभियान की कमर तोड़ दी। सलवा जुड़ूम अध्याय का पटाक्षेप 2006 के अंत तक हो गया था।
नक्सलियों का खूनी खेल
इस बीच लगभग संपूर्ण बस्तर क्षेत्र में हत्याएं रोज-मर्रा की बात हो गई। 2005 में दंतेवाड़ा के एराबोर क्षेत्र में नक्सली हमले में 30 पुलिसकर्मी बलिदान हो गए। इसी तरह, जुलाई 2006 में एराबोर के सलवा जुड़ूम जुडूम शिविर पर नक्सली हमला हुआ। नक्सलियों ने लगभग 500 झोपड़ियों में आग लगा दी थी, जिसमें 37 वनवासी मारे गए और सैकड़ों गंभीर रूप से घायल हुए थे।
2007 में नक्सलियों ने बीजापुर जिले के रानीबोदली पुलिस पोस्ट पर हमला कर 55 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था। फिर जुलाई 2009 में राजनांदगांव जिले के मानपुर थाना क्षेत्र मदनपाड़ा गांव, खोड़ेगांव और कारकोटी के मध्य जंगल में पुलिस दल पर घात लगाकर हमला किया, जिसमें पुलिस अधीक्षक सहित 39 पुलिसकर्मी बलिदान हो गए।
अब तक का सबसे बड़ा हमला 6 अप्रैल, 2010 की सुबह के छह बजे हुआ। सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के संयुक्त दल में शामिल लगभग सौ सुरक्षाकर्मी सड़क खोलने का काम पूरा कर लौट रहे थे। जब वे तारमेटला और चिंतलनार गांव के बीच जंगलों से होकर गुजरे तो नक्सलियों ने विस्फोट कर उनके वाहन को उड़ा दिया और जवानों पर गोलियों की बौछार कर दी। इस घटना में सीआरपीएफ के 76 जवान वीरगति को प्राप्त हो गए।
25 मई, 2013 की घटना छत्तीसगढ़ के इतिहास में दर्ज है। जगदलपुर से 47 किलोमीटर दूर दरभा के झीरमघाट में माओवादियों ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सुकमा से जगदलपुर लौट रही कांग्रेस पार्टी के एक समूह पर दरभाघाटी में दो पहाड़ों के बीच हमला किया, जहां से किसी के लिए भी जान बचा कर भागना संभव नहीं था।
बारूदी सुरंग विस्फोट के बाद फायरिंग में पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, राजनांदगांव के पूर्व विधायक उदय मुदलियार और स्थानीय नेता गोपी माधवानी सहित 29 लोगों की मौत हो गई। इसके अलावा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल की भी नक्सलियों ने हत्या कर दी।
बुरी तरह घायल वयोवृद्ध नेता विद्याचरण शुक्ल का दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हुआ। महेंद्र कर्मा को नक्सलियों ने न केवल बेरहमी से मारा, अपितु उनके शव पर नाच-कूद कर विजय जश्न मनाते रहे। इस हमले में नक्सलियों का क्रूरतम पैशाचिक चेहरा दिखा। लेकिन यह अंत नहीं था। यहां केवल प्रमुख घटनाओं को सूचीबद्ध किया गया है।
ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जैसे- अप्रैल 2017 को सुकमा में हमला हुआ, जिसमें 25 जवान बलिदान हुए थे। सुकमा में ही 2018 में आईईडी विस्फोट में सात जवान बलिदान हुए थे। अप्रैल 2021 को बीजापुर और सुकमा की सीमा पर घात में फंसकर 22 जवानों की जान गई थी। अप्रैल 2023 को दंतेवाड़ा के अरनपुर में हुए आईईडी ब्लास्ट में दस जवानों की जान चली गई थी।
नक्सलवाद की लौ फड़फड़ा रही है।
कहने का अर्थ यह है कि नक्सली अब भी लगातार घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन यह भी तथ्य है कि बस्तर संभाग से नक्सलवाद की लौ फड़फड़ा रही है। केंद्र और राज्य सरकार के अद्भुत तालमेल और सुरक्षा एजेंसियों के वैशिष्ट समन्वय से निश्चित ही छत्तीसगढ़ जल्दी नक्सल मुक्त होगा। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जमीनी स्तर पर नक्सलियों द्वारा जो क्रूरता की जाती है, उसे शहरी नक्सलियों द्वारा सही ठहराने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जाती है।
जंगल के नक्सलियों की शहरी नक्सल तंत्र करता है मदद
खून-खराबे और मध्ययुगीन बर्बरताओं को क्रांतिकारी जोश और जुनून जैसी लफ्फाजियों से लीपा-पोता जाता है और ऐसा करते हुए मानवाधिकार जैसी अवधारणाओं की धज्जियां उड़ाकर रख दी जाती हैं। किसी निरीह ग्रामीण, आदिवासी, सरपंच, पटेल या शिक्षक को मुखबिर या वर्ग शत्रु निरूपित कर आहिस्ता-आहिस्ता गला काटने वाले यही नृशंस लोग अपने ऊपर होने वाली किसी भी कार्रवाई का सामना शहरी नक्सलवादियों द्वारा बुनी गई मानव-अधिकार की ढाल से ही करते हैं। पुलिस, अर्धसैनिक बल अथवा सेना की प्रत्येक कार्रवाई पर प्रश्न खड़ा करने का इनका यही तौर तरीका है। वे सच्ची-झूठी, सत्यापित-असत्यापित, किसी भी घटना को वैश्विक बनाने की क्षमता रखते हैं।
शहरी नक्सल तंत्र इतना संगठित कार्य करता है कि देश केवल उनकी परोसी-गढ़ी खबरों पर ही चर्चा करता है। इसी बार देखिए, बस्तर देश का ऐसा इलाका है जहां रोज निर्मम और क्रूरतम तरीके से हत्या की जाती है, लेकिन मारे जाने वालों के अधिकार और मानवता जैसे विषय किसी के विमर्श में नहीं है। उनकी चर्चा के केंद्र में भी नहीं, जो अपने लेखन में जन पक्षधरता का दावा करते है। क्या बस्तर में रोज ही मारे जा रहे जनजातीय लोगें के लिए स्वर मुखर करना जन का पक्ष नहीं है?
और पढ़ें:- कांग्रेस जवानों का रक्त भूल, नक्सलियों के एनकाउंटर को बता रही ‘फेक’।