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कष्ट में बीता बचपन, जवानी में पत्नी से फटकार और रहीम से मित्रता: कुछ ऐसे रामबोला से बन गए गोस्वामी तुलसीदास

पढ़िए कहानी उन गुरुओं की भी, जिन्होंने तुलसीदास को बनाया विद्वान

architsingh द्वारा architsingh
24 October 2024
in इतिहास, ज्ञान, संस्कृति
गोस्वामी तुलसीदास, रामचरितमानस

भले ही गोस्वामी तुलसीदास को लोग रामचरितमानस की वजह से ही अधिक जानते हों, किन्तु उन्होंने इसके अलावा भी 11 ग्रंथों की रचना की

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कहा जाता है कि कलम की ताकत से व्यक्ति यदि चाहे तो बहुत कुछ हासिल कर सकता है। हमारे सामने अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने वर्षों पहले अपनी लेखनी चलाई और उनकी रचनाओं के माध्यम से आज भी वे सभी रचनाकार हमारे मध्य उपस्थित हैं। ऐसे ही भक्तिकाल में एक महान भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास हुए। तुलसीदास का नाम भारत के घर-घर में बड़े ही सम्मान एवं आदर के साथ लिया जाता है।

इसका एक मात्र कारण है उनकी लेखनी, जिससे उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की रचना की। आज हम तुलसीदास के जीवन के विभिन्न पक्षों पर चर्चा करेंगे।

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अद्भुत है इनके जन्म की कथा

गोस्वामी तुलसीदास के जन्म की कहानी बेहद अद्भुत है। इनका जन्म कब हुआ था इस संबंध में एक दोहा बहुत प्रचलित है:

“पन्द्रह सौ चौवन विसे कालिन्दी के तीर,
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयो शरीर।”

स्पष्ट है, इनका जन्म संवत 1554 में पवित्र श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में सप्तमी तिथि को हुआ था। हालाँकि तिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद है, सामान्य मत यही है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता आत्माराम दुबे एक सम्मानित ब्राह्मण थे।

इनके जन्म के समय कुछ ऐसी अद्भुत घटनाएं घटीं, जो वास्तव में इनको एक सामान्य पुरुष से पृथक करती हैं। कहा जाता है कि जब इनका जन्म हुआ तो ये रोये ही नहीं। बल्कि इनके मुँह से ‘राम’ निकला। यह देखकर लोगों को समझते देर न लगी कि वाकई तुलसी कोई दिव्य बालक थे। इतना ही नहीं, बल्कि जन्म के समय इनके शरीर का आकार भी सामान्य न होकर अपेक्षाकृत अधिक बड़ा था। साथ ही जन्म के समय इनके मुख में दांतों की भी उपस्थिति थी। कहा जाता है कि जन्म के समय अपने बालक में ये लक्षण देखकर उनके माता-पिता किसी अमंगल की आशा से भयभीत थे।

कष्टों में बीता तुलसी का बचपन

उनकी माता हुलसी ने इस भय से कि बालक के जीवन पर कोई संकट न आए, अपनी एक दासी चुनियां को नवजात के साथ उसके ससुराल भेज दिया। किन्तु वास्तव में विधि का विधान ही कुछ और था और हुलसी अगले दिन ही स्वर्ग सिधार गईं। चुनियां ने बालक तुलसीदास का पालन-पोषण बड़े प्रेम से किया किंतु जब तुलसीदास करीब साढ़े पाँच वर्ष के हुए तो चुनियां भी शरीर छोड़ गईं। चुनिया की मृत्यु के पश्चात तुलसी को अनाथ बच्चे की तरह मांग कर खाने की भी नौबत आ गई। इस तरह देखा जाए तो जन्म एक सम्मानित ब्राह्मण परिवार में होने के बावजूद तुलसी का बचपन कष्टों में ही व्यतीत हुआ।

कौन थे अनाथ को तुलसीदास बनाने वाले गुरु, कैसे अर्जित की विद्या

चूँकि बाल्यकाल में तुलसी अनाथ की भाँति जीवन यापन कर रहे थे, ऐसे में स्वाभाविक सा प्रश्न है कि तुलसी ने विद्या कैसे अर्जित की। चूँकि जो रचनाएँ तुलसी ने लिखीं, उन्हें कोई अज्ञानी व्यक्ति नहीं लिख सकता। ऐसे में इनके विद्यार्थी जीवन से जुड़ी कुछ बातों पर चर्चा करना समीचीन रहेगा। तुलसी के गुरु कौन थे इस संबंध में स्वयं तुलसी ने कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। विद्वानों का मानना है कि उनके जीवन में पांच गुरु रहे हैं। इनके नाम हैं – राघवानंद, जगन्नाथदास, शेषसनातन, नरसिंह और नरहरि। अलग-अलग विद्वान अलग-अलग वक्त पर इन गुरुओं की चर्चा करते हैं। हालाँकि इनका अध्ययन किस तरह प्रारंभ हुआ, इससे जुड़ा एक प्रसंग विद्वानों की चर्चा में काफी प्रचलित है।

कहा जाता है श्री नरहर्यानंद जी, श्री अनंतानंद जी के प्रिय शिष्य थे तथा उस समय वे रामशैल पर निवास कर रहे थे। इस संबंध में यह प्रचलित है कि उन्हें स्वप्न में भगवान शिव से प्रेरणा प्राप्त हुई और वे बालक तुलसीदास को ढूँढ़ते हुए चुनिया के ससुराल पहुँचे जहाँ तुलसी दास भिक्षा माँगकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनका मानना था कि जन्म के समय सबसे पहला शब्द तुलसी ने राम बोला था, इसीलिए उन्होंने तुलसी का नाम रामबोला रख दिया। वे बालक को अपने साथ अयोध्या लाए और यहीं उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया।

यहाँ भी तुलसीदास ने बिना सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण करके लोगों को एक बार पुनः चकित कर दिया। तत्पश्चात नरहरि जी ने वैष्णवों के पांच संस्कार कराके तुलसी को राम मंत्र से दीक्षित किया। इस तरह उनका औपचारिक विद्याध्ययन प्रारंभ हो गया। तुलसीदास बेहद प्रतिभाशाली थे। वे एक बार जो भी सुन लेते थे, उसे कंठस्थ कर लेते थे।

इस तरह कुछ बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के बाद नरहरि जी उन्हें लेकर शूकर क्षेत्र सोरों पहुँचे, जहाँ उन्होंने मौखिक रूप में रामचरितमानस सुनाई। अब आगे की शिक्षा के लिए तुलसी को काशी में शेष सनातन जी के पास वेदाध्ययन के लिए छोड़ा गया। यहाँ लगभग 15 वर्षों तक तुलसीदास ने वेद-वेदांग का अध्ययन किया।

गृहस्थ जीवन में तुलसी के कदम

विद्या प्राप्त करने के बाद तुलसी का मन गृहस्थ की ओर प्रवृत्त हुआ और वे अपने गाँव वापस आए। यहाँ आकर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका पूरा परिवार नष्ट हो चुका है, जिससे उन्हें काफी दुख हुआ। अतः भारी मन से उन्होंने अपने पिता सहित सभी पितरों का श्राद्ध किया। चूँकि अब तुलसी की ख्याति रामकथा कहने के कारण बढ़ चुकी थी, अतः उन्होंने वहीं अपने गाँव में रामकथा सुनाते हुए जीवन यापन करने शुरू कर दिया।

कुछ समय पश्चात अपने गुरुजनों से सलाह लेकर उन्होंने संवत 1583 में रत्नावली नामक कन्या से विवाह किया और सुखपूर्वक अपना वैवाहिक जीवन व्यतीत करने लगे।

पत्नी की डाँट से लिया वैराग्य

कहा जाता है कि एक दिन रत्नावली अपने भाई के साथ मायके गईं। तुलसीदास भी उनकी आसक्ति के चलते अपनी पत्नी के पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। यह देखकर रत्नावली को अपने मायके में काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और अत्यंत रोष के साथ धिक्कारते हुए तुलसी से कहा:

“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?”

अर्थात आपकी जैसी आसक्ति मेरे हाड़ मांस के शरीर में है, ऐसी यदि भगवान में होती, तो आपका बेड़ा पार हो जाता। पत्नी की इस फटकार ने तुलसीदास को इतना प्रभावित किया कि वह उसी समय वहाँ से चल दिए और सन्यास लेकर रामकथा में ही डूब गए।

तुलसीदास की रचनाएँ

इस तरह तुलसीदास के निजी जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं को हमने छुआ। किन्तु तुलसी को भारत के घर-घर में जगह दिलाई उनकी रचनाओं ने। रामकथा पर आधारित उनकी सबसे प्रमुख रचना ‘रामचरितमानस’ है, जो आज भी घर-घर में पूजास्थान पर हमें मिलती है। अपनी इसी रचना के कारण तुलसी कालजयी हो गए। भले ही इन्हें लोग रामचरितमानस की वजह से ही अधिक जानते हों, किन्तु उन्होंने इसके अलावा भी 11 ग्रंथों की रचना की।

उन्होंने रामचरितमानस, रामलीला नहछा, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामाज्ञा प्रश्न आदि रचनाएँ लिखीं, जो अवधी भाषा में उपलब्ध हैं। वहीं कुछ रचनाएँ उन्होंने ब्रज भाषा में भी लिखीं, यथा- कृष्ण गीतावली, साहित्य रत्नावली, दोहावली, वैराग्य संदीपनी और विनय पत्रिका आदि। इन रचनाओं के अतिरिक्त चार अन्य बेहद प्रचलित रचनाएँ हैं, जिन्हें तुलसीदास रचित माना जाता है, इनमें हनुमान चालीसा, हनुमान अष्टक, हनुमान बाहुक, तुलसी सतसाईं शामिल हैं।

तुलसी की ख्याति

एक रामभक्त कवि के रूप में तुलसी की ख्याति भक्ति काल के अन्य कवियों में भी फैल चुकी थी। तुलसी के समकालीन कवियों में मीरा, रहीम आदि के साथ उनके पत्रव्यवहार की जानकारी मिलती है।

मीराबाई और गोस्वामी तुलसीदास के बीच की पत्र वार्ता का उल्लेख वेणी माधव दास द्वारा रचित मूल गोसाईं चरित में मिलता है। मूल गोसाईं चरित तुलसीदास की सर्वाधिक प्रामाणिक जीवनी मानी जाती है। मीरा ने तुलसी को जो पत्र लिखा, उसके पीछे की मंशा अपने माता-पिता द्वारा उनकी भक्ति को न समझा जाना था।

मीराबाई, रहीम और तुलसीदास: भक्ति के मार्ग पर मित्रता की कहानी

कहा जाता है कि मीराबाई के पत्र के उत्तर में ही तुलसीदास ने विनय पत्रिका के इस पद को लिखा: “जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।” तुलसीदास ने मीराबाई को भक्ति के रास्ते में आने वाली हर बाधा को छोड़ने की बात लिखी है।

इसके अलावा, तुलसी और रहीम भी समकालीन थे और प्रमाण मिलते हैं कि इनके बीच मैत्री का संबंध था। हालाँकि मध्यकाल के जिस दौर में ये दोनों कवि हुए, उस समय धार्मिक कट्टरता अपने चरम पर थी, किंतु रहीम स्वयं भक्त थे तथा हिंदू अवतारों के प्रति सम्मान का भाव रखते थे। वहीं, गोस्वामी तुलसीदास का मानना भी यही था कि भक्त किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो, वह सम्मान का पात्र है।

तुलसी और रहीम के बीच परस्पर अवतारवाद पर चर्चा के अनेक प्रसंग मिलते हैं। कहा जाता है कि एक बार जब इन दोनों भक्त कवियों के मध्य ईश्वर की महिमा पर चर्चा चल रही थी, तभी उधर से एक हाथी अपनी सूंड से अपने सिर पर धूल फेंकता हुआ निकला। यह देख कर तुलसीदास ने रहीम से प्रश्न किया: “धूल धरत नित शीश पर कहु रहीम केहि काज?” चूँकि रहीम हिंदू पौराणिक कथाओं के अच्छे जानकार थे, इसलिए उन्होंने तुरंत उत्तर दिया: “जेहि रज से पत्नी तरी, तेहि ढूँढत गजराज।” यानी जिस राम की चरणों की धूल से गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार हो गया, यह हाथी भी उन्हीं चरणों की धूल खोज रहा है।

कई बार दोनों के बीच पत्र व्यवहार की जानकारी भी मिलती है। एक बार, एक गरीब ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह हेतु धन की याचना करने गोस्वामी जी के पास आया। उन्होंने दोहे की एक पंक्ति लिखकर उसके हाथ अपने मित्र रहीम के पास भिजवा दी: “सुर तिय, मुनि तिय, नाग तिय, यह जाँचत सब कोय।” यह पत्र पढ़कर रहीम ने ब्राह्मण को धन दिया और दोहे की पूर्ति कर उसे वापस तुलसीदास के पास भेज दिया: “गोद लिए हुलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय।” इस तरह, रहीम और तुलसी की मित्रता के अनेक किस्से हमें मिलते हैं।

जब तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना पूरी कर ली, तो उसकी प्रशंसा में रहीम ने लिखा: “रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्रान। हिंदू जन को वेद सम, जनमहि प्रकट पुरान।”

इस तरह, जीवन भर राम को आराध्य मानते हुए साहित्य साधना में रत तुलसीदास जीवन के अंतिम दिनों में वाराणसी के अस्सी घाट पर रहने लगे थे। वहीं, एक दिन सम्वत 1680 में उन्होंने राम-राम कहते हुए जीवन त्याग दिया। इनकी मृत्यु के संबंध में भी एक दोहा प्रचलित है: “संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।”

स्रोत: Goswami Tulsidas, गोस्वामी तुलसीदास, Ramcharitmanas, रामचरितमानस, History, इतिहास
Tags: Goswami TulsidasHistoryRamcharitmanasइतिहासगोस्वामी तुलसीदासरामचरितमानस
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