ठंड की शुरुआत होते ही दिल्ली की आवोहवा एक बार फिर बिगड़ गई है। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि कई जगहों पर AQI 1,000 के पार पहुँच गया है। स्कूलों को बंद करना पड़ गया है और स्कूली बच्चों की क्लास ऑनलाइन संचालित करनी पड़ रही है। इन सबके बीच सबसे बड़ी बात ये है कि इस बार खराब एयर क्लाविटी के लिए किसी ने दीपावली को दोषी नहीं ठहराया। जो लोग दिल्ली में बढ़ने वाले प्रदूषण के लिए दिवाली को दोषी ठहराते थे, वे इस बार मौन धारण किए हुए हैं। पिछले कई सालों से ऐसे लोग दिल्ली की खराब एयर क्वालिटी के लिए दिवाली में पटाखों को जिम्मेदार ठहराते आए हैं।
वामपंथी और अन्य हिंदू विरोधी दिल्ली के प्रदूषण के लिए भले ही दिवाली के पटाखों को जिम्मेदार ठहराएँ लेकिन हकीकत इससे अलग है। प्रदूषण की भूमिका में पटाखों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन यही कारण इसके लिए जिम्मेदार है…ये पूरी तरह गलत है। ये वो समय होता है जब दिल्ली से सटे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में किसान धान की फसल की कटाई करते हैं। इसके बाद खेतों को साफ करने के लिए पराली को जला देते हैं। किसानों को लिए यह सबसे सरल और कम लागत वाला काम होता है लेकिन पराली जलाने के लिए पर्यावरण में भारी मात्रा में धुँआ फैलता है। यह धुँआ हवाओं के साथ दिल्ली की ओर आ जाता है, जिससे प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है।
सर्दियों के दिनों में ठंडे के कारण हवा की गति कम हो जाती है। ठंड के कारण धुआँ, धूल जैसे प्रदूषक जमीन के पास एक जगह फंस जाते हैं। वे ऊपर नहीं जा पाते। इसके कारण हवा की गुणवत्ता खराब हो जाती है। लगभग 2 करोड़ से अधिक आबादी वाली दिल्ली क्षेत्र में शहरीकरण के कारण भी प्रदूषण बढ़ता है। लगातार होती निर्माण गतिविधियाँ और बस-कारों से निकलने वाले धुएँ, कचरा और ऊर्जा खपत आदि के कारण प्रदूषण बढ़ता जाता है।
दरअसल, इस बार दिवाली ठंड बढ़ने से पहले ही थी। इस कारण दिवाली की रात पटाखे भी छूटे लेकिन उसका इतना असर नहीं दिखा, जितना की हर साल शोर मचाया जाता रहा है। इससे स्पष्ट है कि दिल्ली में प्रदूषण का असली कारण दिवाली पर छोड़े जाने वाले पटाखे नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्यों में जलाए जाने वाले पराली और महानगरों में बसों-कारों का अत्यधिक इस्तेमाल है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अध्ययन से पता चलता है कि 12 अक्टूबर से 3 नवंबर 2024 के दौरान वाहनों से निकलने वाले धुएँ का दिल्ली के वायु प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान था। दिल्ली के प्रदूषण के लिए एनसीआर और अन्य क्षेत्रों को छोड़ दे तों यहां के अपने सोर्स का केंद्र शासित प्रदेश के कुल प्रदूषण में हिस्सा 30.34% था। इसमें से वाहनों से निकलने वाले धुएँ की भागीदारी 51.5 प्रतिशत, खेतों में लगी आग का योगदान 8.19 प्रतिशत और धूल के कणों का 3.7 प्रतिशत हिस्सा था।
वायु गुणवत्ता तकनीक कंपनी IQAir के अध्ययन से पता चलता है कि प्राकृतिक और मानव निर्मित प्रदूषकों के संयोजन के कारण दिल्ली की वायु गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। निर्माण गतिविधियाँ, लैंडफिल का प्रदूषण में खास योगदान है। खाली एवं खुली जमीन और खेत से निकली धूल हवा की गुणवत्ता खराब करते हैं। कचरे को जलाने से हानिकारक धुआँ और कालिख निकलती है, जिससे जहरीले कण और गैसें प्रदूषण में और बढ़ जाती हैं। वाहनों से निकलने वाला कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन प्रदूषण को बढ़ाता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (IARC) के आंकड़ों से पता चलता है कि पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने की घटनाओं में बीते वर्षों के मुकाबले कुछ कमी जरूर आई है। इसके बाद भी दिल्ली में वायु गुणवत्ता में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। पंजाब में इस वर्ष अब तक पराली जलाए जाने की 12,000 से अधिक घटनाएँ सामने आ चुकी हैं।
अगर इन आँकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि दिवाली के पटाखों पर प्रदूषण की जिम्मेदारी फोड़ने वाले लोग किसी ना किसी एजेंडे की तरह ये काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि उन लोगों को इन रिपोर्ट्स की जानकारी नहीं होगी। उन्हें भी होगी और ये पता भी होगा कि इन प्रदूषण में दिल्ली के वाहनों का सबसे बड़ा योगदान है, लेकिन लग्जरी लाइफ जीते हुए आम लोगों की बात करने वाले ऐसे लोग वाहनों में कटौती करने की बात नहीं करेंगे क्योंकि इससे वे सीधे तौर पर प्रभावित होंगे।