ये सब लम्बे समय से होता आ रहा है, इसलिए आज ऐसी अखबारों की ख़बरों के आधार पर रिपोर्ट बनाकर कहा जा सकता है कि सवर्ण भारत में दलितों पर अत्याचारों के दोषी हैं। सच्चाई का इससे कोई लेना देना नहीं। वर्षों में अपनी सम्पादकीय नीति के कारण बढ़ रहे इस छद्म नैरेटिव पर समाचार पत्रों का ध्यान न गया हो, ऐसा नही हो सकता।
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‘दलित उत्पीड़न’ की कहानी गढ़ने में एडिटोरियल पॉलिसी भूलती मीडिया, पहले ही घोषित कर देते हैं विलेन कौन

अकारण ही 'जनरल कास्ट' या सोशल मीडिया की भाषा में 'सवर्ण' या 'ब्राह्मणवाद' को कोसने का भरपूर अवसर मिल जाता है। जबकि जमीनी सच्चाई बिलकुल अलग होती है।

Anand Kumar द्वारा Anand Kumar
15 November 2024
in क्राइम
दलित, मीडिया

अधिकतर बार दलितों पर अत्याचार करने वाले सामान्य वर्ग के नहीं होते, फिर भी उन्हें ही विलेन बनाती है मीडिया (प्रतीकात्मक चित्र)

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हाल के समय में भारत के सोशल मीडिया (विशेषकर हिंदी एक्स पर) पर दो घटनाएँ विशेष रूप से चर्चा में रहीं। पहली घटना थी जिसमें वाल्मीकि समुदाय का एक व्यक्ति अपनी पुत्री की शादी के लिए मैरिज हॉल तय करने गया। सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया कि पूरी बातचीत के बाद जब उसकी जाति का पता चला तो मैरिज हॉल वालों ने मैरिज हॉल किराये पर देने से मना कर दिया। इस दौर में चूँकि भाजपा का “बंटोगे तो कटोगे” का नारा खासा चर्चा में है, इसलिए जातिवादियों को बदायूँ (उत्तर प्रदेश) में हुई इस घटना को भुनाने का मौका मिल गया। मामले में शिकायतकर्ता की जब जांच हुई तो पाया गया कि शिकायत सही नहीं थी।

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जयंती विशेष: कभी आपतकाल के समर्थक रहे जगजीवन राम को कैसे हुआ इंदिरा से बैर?

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इनके बीच जो समय लगा, वो अफवाहबाजों के लिए पर्याप्त था। वो मामले को ले उड़े, यानी सच जबतक जूते पहनता, झूठ आधी दुनिया का चक्कर लगा चुका था।

इस मामले में अगर दोषी माना जाए तो केवल अफवाहबाज जातिवादी ही दोषी नही थे। ऐसी खबरें जब मीडिया में आती हैं, तो इनको दर्शाने का भारतीय मीडिया का एक विशेष तरीका भी दोषी है। ऐसे मामलों में हमेशा पीड़ित पक्ष को दलित बताकर उसकी जाति तो निश्चित कर दी जाती है, मगर आरोपितों को ‘ऊँची जातियाँ’ बताकर छोड़ दिया जाता है। इसके कारण राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों को ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कविताएँ सुनाने का मौका मिलता है।

अकारण ही ‘जनरल कास्ट’ या सोशल मीडिया की भाषा में ‘सवर्ण’ या ‘ब्राह्मणवाद’ को कोसने का भरपूर अवसर मिल जाता है। जबकि जमीनी सच्चाई बिलकुल अलग होती है। हाल ही में आरक्षण के वर्गीकरण सम्बन्धी जो फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया, उस मामले में पेश सर्वेक्षणों के मुताबिक करीब 80 प्रतिशत मामलों में एससी/एसटी एक्ट का आरोपी ओबीसी समुदाय का होता है।

अक्टूबर 2024 में झाँसी से एक ऐसा ही मामला प्रचारित प्रसारित क्या जा रहा था जिसमें एक दलित मजदूर का जबरन सर मूंड दिया गया, ऐसा बताया गया। पुलिस जांच में इस मामले में भी पता चला कि आरोपित भी सभी उसी समुदाय के थे जिसका पीड़ित था। गौरतलब है कि केवल आम आदमी जिसके पास किसी खबर की जांच के लिए संसाधन नहीं हैं, वो ऎसी भ्रामक खबरों के झांसे में नहीं आता। कई बड़े नेता भी ऐसी भ्रामक खबरों को प्रचारित-प्रसारित करते रहे हैं, जिससे समाज में ‘जनरल कास्ट’ यानी सवर्णों के विरुद्ध विद्वेष भड़के। फिर पुलिस बार-बार ऐसे मामलों में सफाई देती हुई पाई जाती है। भ्रामक खबरों की इस WhatsApp यूनिवर्सिटी से तथाकथित प्रगतिशील जमातें बुरी तरह पीड़ित हैं। ऐसी खबरें फैलाने के बाद उन्होंने कभी अपनी गलती स्वीकारी हो या लोगों को बरगलाने के लिए क्षमा मांगी हो, ऐसा कोई मामला याद नहीं आता।

ऐसा माना जाता है कि अखबारों और मीडिया चैनल्स के पास एक सम्पादकीय नीति (एडिटोरियल पालिसी) होती है, जिसके अनुसार खबरों में प्रयुक्त भाषा, मौजूदा कानूनों इत्यादि का पालन, सुनिश्चित होता है। अगर ऐसी कोई सम्पादकीय नीति होती है तो या तो उसका प्रयोग नहीं हो रहा, केवल सजावट की वस्तु की तरह रख दी गयी है, या फिर समय और तकनीकों में बदलाव के साथ इस नीति को उत्क्रमित (अपडेट) नही किया गया। और क्या वजह हो सकती ही कि पीड़ित पक्ष की जाति तो पता चल जाए, लेकिन आरोपितों का धर्म, उनकी जाति पता ही न चले? उसे केवल ‘अगड़ी जातियाँ’ लिखकर काम क्यों चलाना पड़ेगा? जमीनी स्तर से खबरें जुटाने वाला संवाददाता इतना आलसी तो नहीं होता कि थाने की रिपोर्ट में उसे आरोपी की जाति/धर्म न दिखे, केवल पीड़ित की नजर आये।

बदायूं के मैरिज हॉल में जैसे मैरिज हॉल के नाम में ही इकबाल, सबा आदि पर चुप्पी साधकर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ पर निशाना साधा गया, वैसा ही दूसरा मामला कर्नाटक के मंड्या में दिखाई दिया। इस मामले में मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर खींचतान हुई थी। गाँव वोक्कालिगा समुदाय बहुल है जो कि ओबीसी श्रेणी में आता है। वोक्कालिगा समुदाय के लोग दलितों के मंदिर में प्रवेश के विरुद्ध थे और वो मंदिर से मूर्ति ही उठा ले गए। केवल हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी हर बार की तरह इस मामले में आरोपितों की जातीय श्रेणी छुपा ली और केवल ‘अगड़ी जातियां’ लिखकर छोड़ दिया जैसे ब्राह्मणवाद या सवर्ण दलितों को मंदिर में प्रवेश न देने के दोषी हों।

ये सब लम्बे समय से होता आ रहा है, इसलिए आज ऐसी अखबारों की ख़बरों के आधार पर रिपोर्ट बनाकर कहा जा सकता है कि सवर्ण भारत में दलितों पर अत्याचारों के दोषी हैं। सच्चाई का इससे कोई लेना देना नहीं। वर्षों में अपनी सम्पादकीय नीति के कारण बढ़ रहे इस छद्म नैरेटिव पर समाचार पत्रों का ध्यान न गया हो, ऐसा नही हो सकता। अगर ध्यान नहीं गया तो संपादकों के शैक्षणिक और बौद्धिक स्तर पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लग जायेगा। ध्यान देने के बाद भी अगर सम्पादकीय नीति बदली नहीं गयी, सुधारी नहीं गयी तो संभवतः इसमें आलस्य कारण होगा। जान बूझकर गोएबेल्स की तरह कोई एजेंडा, मीडिया के जरिये चला रहे होंगे, ऐसा तो हुआ नही होगा। दूसरा कारण ये हो सकता ही कि सम्पादकीय नीति केवल नाम मात्र के लिए बनती है और फिर सजाकर रख दी जाती है। उसका उपयोग नहीं होता, कहीं तहखाने में खो गई है।

अगर ऐसी स्थिति है तो मीडिया को अपनी सम्पादकीय नीति को बदलते समय के हिसाब से दुरुस्त करने की जरुरत है। सोशल मीडिया के दौर में जहाँ मीडिया में भी काफी हद तक लोकतंत्र आ गया है, वहाँ जनता जो कि मालिक है, वो चौथे खम्भे की तानाशाही ज्यादा समय टिकने तो नहीं देगी!

स्रोत: दलित उत्पीड़न, Dalit Oppression, Media, मीडिया, सवर्ण, General Caste, SC/ST, एससी-एसटी
Tags: DalitEditorial Policyदलितसंपादकीय नीति
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