नेहरू-गांधी परिवार द्वारा संविधान बदलने की लंबी लिस्ट है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी संविधान की किताब लिए फिरते हैं। विपक्ष लगभग हर मुद्दे पर संविधान की दुहाई देता नजर आता है। देश विरोध की बातों में भी जिन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नजर आती हो, वह हाई कोर्ट के एक जज की अभिव्यक्ति को पचा नहीं पा रहे हैं और महाभियोग की तैयारी की जा रही है।
इसका कारण सिर्फ यह है कि जज शेखर यादव ने इस्लाम की सच्चाई और कट्टरपंथी कठमुल्लों के खिलाफ बयान दिया है। यदि बयान सनातन के खिलाफ दिया गया होता तो हो-हल्ला मचाने वाली ‘कौम’ चुप्पी साधे बैठे रहती। विपक्ष भले ही जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग की तैयारी कर रहा हो, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखें एक समुदाय के वोट बैंक के लिए की जा रही इस तैयारी में विपक्ष बौना साबित होता नजर आ रहा है।
दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर यादव ने विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में चरमपंथियों को ‘कठमुल्ला‘ बताते हुए तीन तलाक, हलाला और 4 बीवियां रखने की प्रथा को समाज के खिलाफ बताया था। उनके इस बयान को लेकर विपक्ष ने पहले तो हंगामा मचाया और अब जस्टिस यादव के खिलाफ महाभियोग के लिए 55 सांसदों ने साइन कर राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल को नोटिस सौंपा है। हालांकि नोटिस सौंपने बस से काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि इसकी कार्रवाई लंबी है।
महाभियोग पर क्यों आसान नहीं है विपक्ष की राह:
संविधान में जजों को हटाने की पूरी प्रक्रिया विस्तार से बताई गई है। संविधान के अनुच्छेद 124(4), (5), 217 और 218 में इसका जिक्र है। सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया की शुरुआत संसद के किसी भी सदन यानी लोकसभा या राज्यसभा में नोटिस से होती है। इसके लिए सांसदों के हस्ताक्षर वाला नोटिस देना होता है। लोकसभा में नोटिस देने के साथ ही इसमें कम से कम 100 सांसदों के हस्ताक्षर होने चाहिए। वहीं राज्यसभा में 50 या इससे अधिक सांसदों के हस्ताक्षर होने चाहिए।
नोटिस के बाद लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा के सभापति द्वारा नोटिस स्वीकार करने के बाद ही किसी जज को हटाने की प्रक्रिया आगे बढ़ सकती है। इसके तहत स्पीकर या सभापति जांच हेतु 3 सदस्यीय समिति का गठन करते हैं। इसमें, सुप्रीम कोर्ट के एक जज, किसी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, स्पीकर या सभापति की सहमति से चुने गए एक न्यायविद होते हैं।
यह समिति जांच के बाद रिपोर्ट बनाती है और सदन के स्पीकर को सौंपती है। यदि जांच रिपोर्ट में जज दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें हटाने का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है। इसके लिए वोटिंग होती है। वोटिंग के बाद, जज को तभी हटाया जा सकता है जब दोनों सदनों के कुल सदस्यों द्वारा बहुमत से जज हो हटाने के पक्ष में वोटिंग की गई हो।
इतना ही नहीं, जज को हटाने के प्रस्ताव का समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या सदन में मौजूद और मतदान करने वाले सदस्यों की दो तिहाई संख्या से कम नहीं होनी चाहिए। जज को हटाने की सारी प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है। इसके बाद राष्ट्रपति के आदेश पर ही जज को हटाया जा सकता है।
अव्वल तो यह कि राज्यसभा के सभापति इस नोटिस को स्वीकार करें, इसकी संभावना ही काफी कम है। इसके बाद की प्रक्रिया में भी संसद के दोनों सदनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। चूंकि, विपक्ष के पास न तो राज्यसभा और न ही लोकसभा में बहुमत है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि एक समुदाय विशेष को ध्यान में रखकर लाया जा रहा विपक्ष का नोटिस फुस्स होने वाला है।
उल्लेखनीय है कि विपक्ष और खास तौर से राहुल गांधी ओबीसी वर्ग के जजों की नियुक्ति को लेकर सवाल करते रहे हैं। वहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर यादव ओबीसी ही हैं। ऐसे में अब अगर ओबीसी जज बन गया है तो राहुल की कांग्रेस और उनके गठबंधन के लोग जज का विरोध कर रहे हैं। वह भी सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए। इस मामले में आगे क्या होगा और क्या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। लेकिन हिंदुओं को हिंसक और हिंदू आतंकवाद का नैरेटिव गढ़ने वाली कांग्रेस का कट्टरपंथियों को ‘कठमुल्ला’ कहे जाने पर जज के खिलाफ महाभियोग लाना और संविधान-संविधान-संविधान की रट लगाने वाले राहुल गांधी का इसका समर्थन करना यह बताता है कि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष ‘अभिव्यक्ति’ की नहीं बल्कि संविधान का गला घोंटने में जुटा हुआ है।