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नेहरू-गांधी गाते थे जिनके गाने, इलाज के अभाव में हो गई थी उनकी मौत: कहानी ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ लिखने वाले ‘पार्षद जी’ की

महान सेनानी थे श्याम लाल गुप्त 'पार्षद'

Akash Sharma Nayan द्वारा Akash Sharma Nayan
9 December 2024
in इतिहास, चर्चित
श्याम लाल गुप्त पार्षद
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‘विजयी विश्‍व तिरंगा प्‍यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ इस गीत को सुनने के बाद हर कोई जोश से भर उठता है। आजादी के लिए संघर्ष करने वाले सेनानियों में भी इस गीत ने जोश भरने का काम किया था। आज भी स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस पर बच्चे-बच्चे की जुबान पर यह गीत होता है। लेकिन इस गीत को लिखने वाले श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ को याद नहीं किया जाता। इसे देश का दुर्भाग्य की कहा जाएगा कि जिनके गीत गाकर एक परिवार सत्ता में बैठा उसे सम्मान तो दूर की बात ‘नाम’ तक नहीं मिला और तो और मृत्यु शैय्या में पड़े होने के बाद भी इलाज तक नहीं मिल पाया।

श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ सिर्फ गीत या कविता लिखने वाले कवि नहीं बल्कि सच्चे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उत्तर प्रदेश के कानपुर पास के पास नरवल गांव में 9 दिसंबर 1893 को जन्मे श्यामलाल गुप्त के पिता विशेश्वर प्रसाद गुप्त उन्हें व्यवसायी बनाना चाहते थे। लेकिन श्यामलाल का मन पढ़ाई पूरी करने के बाद अध्यापक बनने का था। जब वह 5वीं कक्षा में थे, तब से ही कविता लिखना शुरू कर दिया था।

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वहीं महज 15 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छंदों के जरिए रामकथा के बालकण्ड की रचना की थी। हालांकि लोगों ने उनके पिता से यह कह दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है। इसके चलते उनके पिता ने उनकी सभी रचनाएं कुएं में फेंक दी थीं। इससे दुखी होकर उन्होंने घर छोड़कर आयोध्या चले गए थे। आयोध्या जाने के बाद उन्होंने वहां मौनी बाबा से दीक्षा ले ली और भक्ति करने लग गए थे। इसके बाद, घर वाले अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आए थे।

अयोध्या से वापस आने के बाद श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का मन भक्ति में ही लगा हुआ था। हालांकि देश के हालात देखकर वह स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में कूद गए। इस दौरान वह लगातार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे। इसके बाद, साल 1920 में 23 वर्ष की उम्र में फतेहपुर जिला कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बन गए। असहयोग आंदोलन के दौरान उनकी सक्रियता के चलते उन्हें दुर्दांत क्रांतिकारी घोषित कर जेल भेज दिया गया। इसके बाद 1930 में ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान भी उन्हें जेल जाना पड़ा। हालांकि इसके बाद जिला परिषद के स्कूल में बतौर शिक्षक उनकी नौकरी लग गई। इस दौरान उनसे एक शपथ पत्र भरने के लिए कहा गया, जिसमें उन्हें दो साल तक स्कूल से नौकरी न छोड़ने का आश्वासन देना था। इसे उन्होंने अपनी स्वतंत्रता के खिलाफ समझा और स्कूल से इस्तीफा दे दिया।

इसके बाद श्यामलाल गुप्त, ‘सचिव’ नाम से मासिक पत्रिका निकालने लगे। इसके हर अंक में मुख पृष्ठ पर लिखा होता था, ‘रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतंत्रता लाने को, लिया ‘सचिव’ ने जन्म, देश की परतंत्रता मिटाने को।’ कानपुर में आयोजित एक समारोह में श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में एक कविता पढ़ी। इससे गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ बहुत प्रभावित हुए। साल 1923 में फतेहपुर में जिला कांग्रेस अधिवेशन में गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का ओजस्वी भाषण हुआ। इसके चलते अंग्रेजी सरकार ने उन्हें जेल में ठूँस दिया। जेल से आने पर उनके स्वागत में श्यामलाल गुप्त ने एक कविता पढ़ी। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गयी।

कांग्रेस ने जब तिरंगा झंडा तय कर लिया था, लेकिन उसके लिए कोई गीत नहीं था। तब गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ ने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से आग्रह किया कि वह तिरंगे का ‘झण्डा गीत’ लिख दें। लेकिन श्यामलाल गुप्त कई दिन तक गीत नहीं लिख पाए थे। इसके बाद गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ के कहने पर उन्होंने एक रात में ही झण्डा गीत लिखकर उन्हें दे दिया था। इस गीत के ‘विजयी विश्व’ शब्द पर कुछ स्वतंत्रता सेनानियों को आपत्ति थी। इस पर उन्होंने कहा था कि विजयी विश्व का अर्थ विश्व को जीतना नहीं, बल्कि विश्व में भारत को अपना गौरव प्राप्त करना है। इस गीत के सामने आने के बाद यह स्वतंत्रता संग्राम के हर सेनानी को कंठस्थ होने के साथ ही पूरे देश में लोकप्रिय हो गया था।

साल 1938 में हुए ‘हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन’ में मोहनदास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू समेत अन्य नेताओं ने मंच से इस गीत को गाया था। इससे श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ बेहद खुश हुए थे। देश की आजादी के बाद श्यामलाल राजनीति में नहीं आए बल्कि अपने गांव नरवल जाकर उन्होंने वहां ‘गणेश सेवा आश्रम’ खोला। इसके बाद वह कानपुर से करीब 16 किमी पैदल चलकर रोजाना आश्रम पैदल जाने लगे। पैदल जाने के पीछे का बड़ा कारण उनकी आर्थिक स्थिति थी। इस दौरान धीरे-धीरे कांग्रेस और उसके नेताओं का आचरण बदलता जा रहा था। श्यामलाल इससे नाराज थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा, “‘पार्षद’ जी आजकल क्या लिख रहे हैं? इस पर उनका जवाब था, कुछ नया तो नहीं लिख रहा। हां पुराने झण्डा-गीत में पंक्ति संशोधित कर दी है, ‘इसकी शान भले ही जाए, पर कुर्सी न जाने पाए।’

कानपुर से आश्रम पैदल आने-जाने के दौरान एक दिन रास्ते में उनके पैर पर कांच लग ने से गहरा घाव हो गया था। जब श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ के गीत गाने वाले लोग सत्ता में बैठे थे, तब ‘पार्षद’ के पास अपना इलाज कराने के लिए भी पैसा नहीं था और उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं था। इसके चलते उन्हें गैंगरीन रोग हो गया, जिसका उनके अंतिम समय तक इलाज नहीं हो सका। इसके चलते उनका निधन हो गया और 10 अगस्त, 1977 को वह इस दुनिया को छोड़कर चले गए। हालत यह थी कि डॉक्टर ने शव अभद्र तरीके से वॉर्ड से बाहर जमीन पर रखवा दिया। घर तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिला। हालांकि बाद में घर से शमशान ले जाने के लिए एंबुलेस की व्यवस्था जरूर हो गई थी।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आजादी के बाद राजनीति को अपना ‘धंधा’ बनाने वालों का परिवार जब मलाई खा रहा था और उनके बेटे विदेशों में घूम रहे थे, तब पैसे की तंगी के चलते इलाज के अभाव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की मौत हो गई थी और उसकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं था।

स्रोत: श्याम लाल गुप्त पार्षद, Shyamlal Gupta Parshad, Shyamlal Gupta Parshad Kanpur, श्याम लाल गुप्त पार्षद कानपुर, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा के लेखक, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा के रचयिता, Vijayi Vishwa Tiranga Pyara Writer, Vijayi Vishwa Tiranga Pyara Lyrics
Tags: HistoryMahatma Gandhiइतिहासजवाहर लाल नेहरूमोहन दास करमचंद गांधी
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