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रघुनाथ कर्वे: भारत में परिवार नियोजन के जनक की कहानी, इमरजेंसी में जबरन नसबंदी ने कैसे बदले हालात?

रघुनाथ कर्वे की पढ़ाई पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से हुई और बाद में वो मुंबई के विल्सन कॉलेज से जुड़े

Anand Kumar द्वारा Anand Kumar
15 April 2025
in इतिहास
रघुनाथ कर्वे ने भारत में पहला परिवार नियोजन क्लिनिक खोला था

रघुनाथ कर्वे ने भारत में पहला परिवार नियोजन क्लिनिक खोला था

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जिनका नाम नहीं लेते, ऐसे नामों में से एक रघुनाथ धोंधो कर्वे का भी आता है। इनका नाम क्यों नहीं लेते? क्योंकि भारत में आज जो परिवार नियोजन की व्यवस्था या परिकल्पना हम नागरिकों (विशेषकर हिन्दुओं) के लिए देखते हैं, उसके जनक रघुनाथ कर्वे थे। लन्दन, इंग्लैंड में पहला परिवार नियोजन का क्लिनिक 1921 में खुला था और उसी वर्ष रघुनाथ कर्वे ने भारत में पहला परिवार नियोजन का क्लिनिक खोला था। उस दौर में ऐसे विचारों का क्या नतीजा होना था? उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था क्योंकि एम.के. गाँधी स्वयं ही कर्वे के सबसे बड़े विरोधियों में से एक थे। रत्नागिरी, महाराष्ट्र में 1882 में जन्मे रघुनाथ कर्वे की पढ़ाई पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से हुई और बाद में वो मुंबई के विल्सन कॉलेज से जुड़े। परिवार नियोजन का मुद्दा उनके लिए व्यक्तिगत महत्व का इसलिए हो जाता था क्योंकि उनकी माता राधाबाई की मृत्यु संतान के जन्म के दौरान ही 1891 में हो गयी थी और तब 9 वर्ष के रघुनाथ कर्वे पर इसका आजीवन प्रभाव रहा।

फर्ग्युसन कॉलेज से बीए की डिग्री 1904 में लेने के बाद वो गणित के प्रोफेसर के रूप में विल्सन कॉलेज में काम करने लगे। ये इसाई मत वालों के नियंत्रण में चलने वाला कॉलेज था और जब वहाँ वो परिवार नियोजन, स्त्रियों के यौन सुखों पर अधिकार जैसे मुद्दों पर अपनी राय प्रकट करने लगे तो रिलीजियस मतों से उनके मत बिलकुल उल्टे थे। लिहाजा ईसाई प्रशासन ने उन्हें कॉलेज की नौकरी से इस्तीफा देने को कह दिया। उनकी पत्नी मालती का समर्थन उन्हें मिला हुआ था इसलिए अपने दौर के हिसाब से बिलकुल क्रांतिकारी विचार होने के बाद भी दोनों लोग मिलजुल कर परिवार का खर्च वहन करते रहे और रघुनाथ कर्वे का काम जारी रहा।

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दम्पति ने संतानहीन रहने का फैसला लिया था जिसपर वो आजीवन कायम भी रहे। उन्होंने 1927 में मराठी भाषा में ‘समाज स्वास्थ्य’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया। इस पत्रिका में लैंगिक समानता, संतान के पालन में पुरुषों की भूमिका, तथा स्त्रियों के अधिकारों जैसे मुद्दों पर लेख आते थे और ये पत्रिका कर्वे की मृत्यु तक, यानी अक्टूबर 1953 तक मासिक छपती रही। कहा जा सकता है कि कर्वे के काम का ही नतीजा था कि विकासशील देशों में परिवार नियोजन को सबसे पहले, 1952 में, एक सरकारी प्रयास के रूप में, नीति के रूप में अपनाने वाला भारत पहला देश बना था।

सरकारी प्रयासों के रूप में परिवार नियोजन

पंचवर्षीय योजनाओं में गाडगिल फोर्मुले के तहत 1969 तक में आर्थिक विकास से जोड़कर परिवार नियोजन की योजनाएं चलाई गयीं जिनका स्वरूप 1979 तक बदलता रहा। पहले माहवारी के समय के हिसाब से (रिदम मेथड) परिवार नियोजन के प्रयास किये गए और धीरे-धीरे दवाओं और गर्भ निरोधकों की ओर इसका स्वरुप बदला। भारत में ऐसे कार्यक्रम बड़े पैमाने पर विदेशी फंडिंग से चल रहे थे। इसका परिणाम ये भी हुआ कि जनता की मंशा को पूरी तरह अनदेखा किया गया और ‘ऊपर से आये आदेशों’ का पालन करने की कोशिश की गयी। पुरुषों के लिए गर्भनिरोधक उपाय अपनाने पर भी भारी पैमाने पर विरोध और अफवाहों की स्थितियां बनती रहीं। आग में घी डालने का काम इमरजेंसी के दौरान यानी सत्तर के दशक में जब इंदिरा गाँधी सत्ता पर काबिज थीं और संजय गांधी की चलती थी, उस दौर में हो गया।

संजय गाँधी और नसबंदी

अप्रैल 1976 के दौर में इमरजेंसी को लगे करीब एक वर्ष हो चुका था (जून 1975 से)। इसी दौर में संजय गाँधी ने नसबंदी के लिए नई नीति लागू की और इससे एक समुदाय विशेष में खास तौर पर हंगामा मच गया। भिखारियों को जबरन पकड़-पकड़ कर नसबंदी शुरू हो चुकी थी। सरकार ने नसबंदी का टारगेट न पूरा होने पर सैलरी रोकनी शुरू कर दी थी। गावों के लिए सिंचाई और पीने का पानी काटा जा रहा था और जो दिन के वक्त भागकर नसबंदी से बच भी जाते, उन्हें रातों को उठा लिया जाता। इस दौर में जो ‘दो बच्चे अच्छे’ की नीति शुरू हुई वो भारत में कई दशकों तक जारी रही। संजय गाँधी की नीति का असर कैसा रहा होगा इसका अनुमान 20 जुलाई 1976 के दिल्ली पुलिस बुलेटिन से लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया कि बीते दो सप्ताह के दौरान 1100 पुलिसकर्मियों ने ‘स्वेच्छा से’ नसबंदी करवाई। इसमें दो पुलिस सुपरिटेंडेट भी शामिल थे और 2 अगस्त तक ये गिनती 2000 पार कर गयी थी।

आज एम.के. स्टालिन और चंद्रबाबू नायडू जिस नीति की बात कर रहे हैं, वो पुरानी कांग्रेसी नीति का ठीक उल्टा है। नेशनल पापुलेशन पालिसी जो 2000 में आई उस समय तक सरकारों को भी ये समझ में आ गया था कि कोई समाज तभी तक जीवित रह सकता है जबतक उसकी प्रजनन दर 2 से अधिक हो। दो या उससे कम बच्चों की नीति ने इसका ठीक उल्टा कर दिया था। अब राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 के मध्यकालीन लक्ष्यों में से एक कुल प्रजनन दर को 2.1 पर पहुँचाना भी है। सिर्फ नतीजों में ही नहीं बल्कि अब उपायों में भी बदलाव किये जा रहे हैं। वर्ल्ड बैंक जो सत्तर के दशक में अरबों का कर्ज दे रहा था, वो सीधे जनसंख्या नियंत्रण से भी जुड़ा था। इसके अलावा स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट अथॉरिटी और यूएन पापुलेशन फण्ड का पैसा भी भारत में परिवार नियोजन और दो या उससे कम बच्चों की नीति लागू करने के लिए आता रहा।

मुर्शिदाबाद, मालदा या कैराना जैसी जगहों पर हाल में जिस डेमोग्राफी में बदलाव की बातें अब होने लगी हैं, उनकी जड़ों में कहीं न कहीं भारत की ये जनसंख्या नीति भी रही जो मुख्यतः हिन्दुओं पर ही लागू भी हुई और मध्यमवर्गीय हिन्दुओं द्वारा अपनाई भी जाने लगी। बच्चे का जन्म अस्पतालों में ही हो, इसकी जिद ने सर्जरी के जरिये बच्चे के जन्म को बढ़ावा दिया और उसकी वजह से दो से अधिक बच्चे पैदा करना संभव ही नहीं रह जाता। कुल मिलाकर डेमोग्राफी में बदलाव और लोकतंत्र की हाईजैकिंग एक नीति के जरिये कैसे हो सकती है, उसका अच्छा उदाहरण भारत की परिवार नियोजन की नीति है। बाकी इसपर आम आदमी का ध्यान कब जायेगा, ये देखने लायक बात होगी।

स्रोत: रघुनाथ कर्वे, परिवार नियोजन, आपातकाल, संजय गाँधी, चंद्रबाबू नायडू, Raghunath Karve, Family Planning, Emergency, Sanjay Gandhi, Chandrababu Naidu,
Tags: Chandrababu NaiduEmergencyFamily PlanningRaghunath KarveSanjay Gandhiआपातकालचंद्रबाबू नायडूपरिवार नियोजनरघुनाथ कर्वेसंजय गाँधी
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