“भारत आज से नहीं, युगों-युगों से है”, यह वाक्य केवल एक भाव नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक चेतना का प्रतीक है, जो भारत को केवल एक भौगोलिक सत्ता नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक सत्ता के रूप में देखता है। ‘भारत’ नाम का जन्म न केवल दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत से जुड़ा है, बल्कि यह शब्द ‘भरण-पोषण’ के अर्थ से भी सम्बंधित है अर्थात् एक ऐसी भूमि जो अपने लोगों का संरक्षण, पालन और पोषण करती आई है।
महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण और अन्य पुराणों में भारतवर्ष की सीमाएं आधुनिक भारत से कहीं अधिक विस्तृत थीं। महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित लगभग 250 जनपद, जिनमें गांधार (अफगानिस्तान), पारसीक (ईरान), यवन (यूनान), दरद (दर्दिस्तान), हूण, चीन तक का उल्लेख मिलता है, इस बात का प्रमाण हैं कि भारतवर्ष केवल एक राजनीतिक पहचान नहीं, बल्कि एक संस्कृतिक भूगोल था।
यह भूगोल केवल मिट्टी या सीमा पर आधारित नहीं था, बल्कि साझा जीवनशैली, आस्था, पूजा पद्धतियों और मूल्य-व्यवस्थाओं पर आधारित था। चाहे वह नेपाल हो, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान, ये सब भारत की सांस्कृतिक छाया में पले-बढ़े क्षेत्र थे।
15 अगस्त 1947 को भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन उसी दिन देश का विभाजन भी हुआ। यह केवल भूखंड का विभाजन नहीं था, यह एक मानसिकता का टकराव था। एक ओर भारत की सनातन सांस्कृतिक परंपरा, दूसरी ओर मध्यकालीन आक्रांताओं से उपजा मजहबी अलगाववाद। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह विभाजन उसी दिन शुरू हो गया था जब पहली बार किसी हिन्दू ने इस्लाम स्वीकार किया था। विभाजन का आधार इस्लाम था, इसलिए पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामी देश घोषित किया। इस विभाजन से भारत को कुछ न मिला। पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश में हिन्दुओं और सिखों की स्थिति निरंतर दयनीय होती गई। जहां पाकिस्तान में हिन्दू और सिख लगभग विलुप्त हो चुके हैं, वहीं बांग्लादेश में हिन्दू आबादी 34% से घटकर 10% से भी कम रह गई है। भारत के भीतर करोड़ों बांग्लादेशी घुसपैठिये सुरक्षा और सांस्कृतिक संकट उत्पन्न कर रहे हैं।
अखंड भारत का विचार केवल एक भूतकालिक स्मृति या कल्पनालोक नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृतिक संकल्प है और यह संकल्प उन लोगों के लिए है जिन्होंने भारत को केवल ‘भूमि’ नहीं, बल्कि ‘माँ’ के रूप में देखा है।
“समुद्रवसने देवी पर्वतस्तन मंडले…” से लेकर “वन्दे मातरम्” तक, यह भाव भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक की रग-रग में प्रवाहित होता है।
क्या अखंड भारत सैन्य शक्ति से संभव है? शायद नहीं। इतिहास यही बताता है कि स्थायी एकता कभी युद्धों से नहीं, बल्कि मनों के मिलन से प्राप्त होती है। भारत की शक्ति उसकी सांस्कृतिक एकता में है, यह वह संस्कृति है जो विविधताओं में एकता देखती है, जो सहिष्णुता को शक्ति मानती है, और जो धर्म को आचरण से जोड़ती है, न कि केवल पहचान से।
आज भारत स्वतंत्र तो है, पर भीतर से विभाजित दिखता है या जाति, क्षेत्र, भाषा और राजनीतिक दलों के आधार पर विभाजित करने की साजिशें चल रही है । ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का अन्धानुकरण, वोट बैंक की राजनीति और तथाकथित सेकुलरिज़्म ने समाज को टुकड़ों में बांट दिया है। हिन्दू समाज को संगठित करना ‘सांप्रदायिकता’ कहा जाता है, और मुस्लिम पृथकतावाद को ‘धर्मनिरपेक्षता’। ये विरोधाभास दूर करने होंगे। राजनीति में सांस्कृतिक दृष्टिकोण आवश्यक है, जिससे समाज को जोड़ने वाली सोच पनपे। इसके बिना अखंड भारत की कल्पना व्यर्थ है।
अखंड भारत एक दिन में नहीं बनेगा, न ही केवल नारों से बनेगा। यह एक लंबी यात्रा है, एक ऐसी यात्रा जिसमें इतिहास से प्रेरणा, वर्तमान में चेतना और भविष्य के लिए संकल्प हो। भारत की अखंडता भूगोल से नहीं, संस्कृति और चेतना से आएगी। और जब तक एक भी भारतवासी अपनी मातृभूमि को ‘माँ’ के रूप में देखता है, तब तक अखंड भारत एक कल्पना नहीं, संकल्प बना रहेगा। यह दिन केवल अतीत को कोसने का नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक चेतना को जीवित रखने का है जिससे भविष्य की दिशा तय होती है। जो राष्ट्र अपने अतीत से नहीं सीखते, उनका भूगोल बदल जाता है। वे म्यूजियम की वस्तु बन जाते हैं।
विभाजन केवल एक राजनीतिक दुर्घटना नहीं थी, यह उस वैचारिक संघर्ष का परिणाम था जो आठवीं शताब्दी से भारत की धरती पर चल रहा था अर्थात् यह सनातन संस्कृति और इस्लामी विस्तारवाद के बीच टकराव का परिणाम था। 14 अगस्त संकल्प का समय है, शोक का नहीं। इस दिन हम अखंड भारत संकल्प दिवस के रूप में इसलिए मनाते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियों को याद रहे कि विभाजन एक ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं, ऐतिहासिक भूल थी, ताकि हम अपनी सांस्कृतिक एकता और अखंडता के प्रति नवसंकल्प ले सकें और ताकि हम केवल उत्सव न मनाएं, चेतना भी विकसित करें।
‘अखंड भारत का संकल्प’ केवल राजनीतिक नारा नहीं, यह एक वैचारिक पुनर्जागरण है। जब तक हम उस पीड़ा को नहीं समझेंगे, जिसने भारत को खंडित किया, तब तक उसकी पूर्णता का मार्ग नहीं खुल सकता। अपने पूर्वजों के बलिदान को याद रखें, विभाजन की विभीषिका को जानें, और फिर कहें, “हम भारत को फिर से अखंड देखेंगे, यह केवल सपना नहीं, हमारा संकल्प है।”