सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को लोगों की सुरक्षा और जानवरों की अच्छी देखभाल को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा फैसला लिया। कोर्ट ने कहा कि दिल्ली-एनसीआर (दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम और गाजियाबाद) के सभी आवारा कुत्तों को, चाहे वे नसबंदी किए गए हों या नहीं घरों के पास के इलाकों से हटाकर अच्छे तरीके से चल रहे शेल्टरों में भेजा जाए।
प्रदर्शन बनाम जिम्मेदारी
जहां यह आदेश एक व्यवस्थित और दयालु समाधान की दिशा में कदम है, वहीं कुछ पशु-प्रेमी और कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं। इन लोगों ने कानून का पालन करने की बजाय इसका विरोध और नफरत भरा रवैया अपनाया है।
एक पशु-अधिकार कार्यकर्ता, अंबिका शुक्ला, ने ‘द रेड माइक’ से बातचीत में रेबीज के खतरे को कमतर बताते हुए कहा कि यह “बहुत ही दुर्लभ बीमारी” है जो “साबुन से मर जाती है” और “संक्रामक नहीं है”। उन्होंने यह भी दावा किया कि “आवारा कुत्ते उतना नहीं काटते जितना दिखाया जाता है।”
उन्होंने कहा, “रेबीज केवल तब फैलती है जब संक्रमित जानवर का लार सीधे इंसानी खून के संपर्क में आता है, आमतौर पर काटने से। यह वायरस बहुत नाजुक होता है और घाव को साबुन-पानी से धोने पर खत्म हो सकता है। भारत में रेबीज के मामले बहुत कम होते हैं।”
तथ्य क्या कहते हैं?
हालांकि, ये दावे वास्तविक आंकड़ों से मेल नहीं खाते। भारत हर साल दुनिया के कुल रेबीज मौतों का लगभग एक तिहाई हिस्सा रखता है और आवारा कुत्तों के काटने को इसका मुख्य कारण माना जाता है। इस बीमारी से सबसे ज़्यादा बच्चे प्रभावित होते हैं।
मामला केवल रेबीज तक सीमित नहीं है। यह लोगों की सुरक्षा, सफाई और मानसिक तनाव से भी जुड़ा हुआ है। बुजुर्ग टहलने से डरते हैं, बच्चे स्कूल जाने के लिए डंडे लेकर निकलते हैं और लोग अपनी दिनचर्या कुत्तों के डर से बदलने पर मजबूर हो रहे हैं।
कोर्ट का आदेश: इंसानों और जानवरों दोनों की भलाई के लिए
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश किसी तरह की हिंसा या जानवरों के साथ गलत व्यवहार के लिए नहीं है। यह इंसानों और जानवरों दोनों की सुरक्षा, देखभाल और सही व्यवस्था के लिए दिया गया है।
दिल्ली नगर निगम (MCD) के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी से जून 2025 के बीच राजधानी में 49 रेबीज के मामले और 35,000 से ज्यादा कुत्तों के काटने की घटनाएं सामने आईं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 60,000 लोगों की मौत रेबीज से होती है, जो वैश्विक मौतों का 36% है।
शेल्टर में भेजना है समाधान, न कि सज़ा
आवारा कुत्तों को शेल्टर में भेजने का मतलब उन्हें सज़ा देना नहीं है, बल्कि उन्हें सुरक्षित जगह पर रखना है जहाँ उनका इलाज, टीकाकरण और देखभाल हो सके। सड़कों पर रहने से उन्हें हर दिन लड़ाई, भूख और हादसों का खतरा रहता है।
जो लोग सच में जानवरों से प्यार करते हैं, उन्हें इस फैसले का साथ देना चाहिए। यह एक दयालु और बेहतर समाज की तरफ एक जरूरी कदम है।
इस फैसले का विरोध करने वाले कुछ कार्यकर्ता सिर्फ एक तरफ से सोच रहे हैं, और यह तरीका लोगों के लिए नुकसानदायक हो सकता है क्योंकि वे इंसानों की तकलीफ और असली आंकड़ों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि सिर्फ भावनाओं से नहीं, बल्कि जिम्मेदारी से काम लिया जाए, ताकि इंसानों की सुरक्षा और जानवरों की भलाई दोनों को सुरक्षित किया जा सके।
अंतिम फैसला सुरक्षित, लेकिन आदेश पर रोक नहीं
गुरुवार, 14 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने उन याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया जो 11 अगस्त को दिए गए आदेश के खिलाफ थीं। उस आदेश में कहा गया था कि 6 से 8 हफ्तों के अंदर सभी आवारा कुत्तों को हमेशा के लिए शेल्टर में रखा जाए। हालांकि कोर्ट ने इस आदेश पर रोक नहीं लगाई।
जस्टिस विक्रम नाथ, संदीप मेहता और एनवी अंजारिया की बेंच ने कहा कि नगर निगमों को तुरंत काम शुरू करना चाहिए। इससे पहले, जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर. महादेवन ने कहा था कि सबसे पहले उन इलाकों से कुत्तों को हटाया जाए जो ज्यादा खतरे में हैं या शहर के बाहर हैं। अगर इसके लिए एक खास टीम बनानी पड़े, तो वह भी बनाई जाए। इस काम में कोई देरी या लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
यह आदेश कोर्ट ने खुद से कार्रवाई करते हुए दिया था, क्योंकि छोटे बच्चों पर आवारा कुत्तों के हमले बढ़ते जा रहे थे।