आज परमवीर चक्र विजेता सुबेदार जोगिंदर सिंह जी की जयंती है और हम उन्हें सादर नमन करते हुए उनकी अदम्य वीर गाथाओं को याद कर रहे हैं। सूबेदार जोगिंदर सिंह भारतीय सेना के उन महान सपूतों में से एक हैं, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर पूरे राष्ट्र को गर्व महसूस कराया।
जोगिंदर सिंह का जन्म 26 सितंबर 1921 को पंजाब के मोगा ज़िले के महाकलां गांव में एक कृषक सैनी सिख परिवार में हुआ, वह बचपन से ही मेहनती और अनुशासित थे। जोगिंदर सिंह के पिता श्री शेर सिंह सैनी और माता बीबी कृष्णन कौर साधारण किसान परिवार से थे। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उनकी पढ़ाई ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाई, लेकिन बचपन से ही उनमें देशभक्ति का जज़्बा साफ दिखता था।
महज़ 15 साल की उम्र में, 28 सितंबर 1936 को वे ब्रिटिश भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट में भर्ती हुए। इस उम्र में जब बच्चे खेलकूद में लगे रहते हैं, तब उन्होंने देश सेवा को ही अपना जीवन बना लिया। एक युवा सैनिक के रूप में उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा मोर्चे पर और फिर 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में श्रीनगर मोर्चे पर भी बहादुरी से हिस्सा लिया। उनकी वीरता और अनुशासन ने उन्हें अपने साथियों और अधिकारियों के बीच खास पहचान दिलाई।
1962 का भारत-चीन युद्ध और बुम ला की लड़ाई
अक्टूबर 1962 में जब चीन ने अचानक भारत पर हमला किया, तब सूबेदार जोगिंदर सिंह 1 सिख रेजीमेंट के साथ अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन नेफ़ा) के तवांग सेक्टर में बुम ला दर्रे पर तैनात थे। वहाँ 23 अक्टूबर को वह ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसने जोगिंदर सिंह को अमर कर दिया।
उनकी कमांड में उस समय केवल 27 भारतीय जवान थे, जबकि सामने से 200 से अधिक चीनी सैनिकों का दल हमला कर रहा था। दुश्मन संख्या और हथियारों में कहीं आगे था, लेकिन जोगिंदर सिंह ने अपनी साथियोंको पीछे हटने के बजाय डटे रहने का आदेश दिया।
अदम्य साहस और आखिरी सांस तक जंग
सुबह 5:30 बजे जैसे ही चीनी सैनिकों ने हमला किया, सूबेदार जोगिंदर सिंह और उनके साथी “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” के नारे के साथ दुश्मनों पर टूट पड़े। पहले दो हमलों में उन्होंने चीनी सैनिकों को पीछे धकेल दिया और दुश्मन को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
लेकिन लड़ाई आसान नहीं थी। भारी गोलीबारी में जोगिंदर सिंह के दोनों पैरों में गंभीर चोटें आईं, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। घायल होने के बावजूद उन्होंने मशीनगन संभाली और लगातार गोलियां बरसाकर अपने साथियों का हौसला बढ़ाते रहे।
जब गोला-बारूद पूरी तरह खत्म हो गया, तो उन्होंने संगीन लगाकर हाथों में हथियार थामे और अपने साथियों को दुश्मन पर धावा बोलने का आदेश दिया। “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” की गूंज से पूरा रणक्षेत्र गूंज उठा। घायल शरीर, बर्फीली ठंड और चारों ओर मौत का मंजर — इन सबसे बेपरवाह वे अपनी आखिरी सांस तक लड़े और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया।
वीरगति और अमर गाथा
आखिरकार, चीनी सैनिकों की संख्या और हथियारों की ताक़त ने बाज़ी मार ली। जोगिंदर सिंह गंभीर रूप से घायल होकर चीनी सैनिकों के कब्ज़े में आ गए और युद्धबंदी (POW) के रूप में शहीद हो गए।
उनकी बेमिसाल बहादुरी और बलिदान को देश कभी भूल नहीं सकता। इसी अमर वीरता के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया। यह सम्मान न केवल उनकी बहादुरी का प्रतीक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी है।
राष्ट्र का नमन
सूबेदार जोगिंदर सिंह ने जिस वीरता, नेतृत्व और देशभक्ति का परिचय दिया, वह भारतीय सेना और देश के लिए सदैव गर्व का विषय रहेगा। उन्होंने 27 जवानों के छोटे से दल के साथ 200 से अधिक चीनी सैनिकों का सामना किया और उन्हें बार-बार पीछे धकेला। अंततः वीरगति को प्राप्त होकर वे अमर हो गए।
आज उनकी जयंती पर हम सब उन्हें शत-शत नमन करते हैं। सूबेदार जोगिंदर सिंह केवल एक सैनिक नहीं, बल्कि साहस और बलिदान की जीवंत मिसाल हैं। उनका नाम सदैव इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।