भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कई मोर्चे हैं—कुछ किताबों के पहले पन्नों पर दर्ज हैं, तो कुछ हाशिये पर दबे रह गए। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब भी देश का भूगोल अधूरा था। गोवा, दमन, दीव और पुडुचेरी अब भी विदेशी कब्ज़े में थे। पुर्तगालियों का दंभ और साम्राज्यवादी अहंकार गोवा की जनता को रोज़ अपमानित कर रहा था।
यही वह दौर था जब भारतीय राष्ट्रवाद की दूसरी पंक्ति मैदान में उतरी। 1947 से 1961 तक का गोवा मुक्ति संग्राम इस बात का जीवंत उदाहरण है कि आज़ादी केवल झंडा फहराने से नहीं मिलती, बल्कि उसे बनाए रखने के लिए संघर्ष और साहस की जरूरत होती है। इस पूरे विमर्श में नारायण आप्टे जैसे क्रांतिकारियों की भूमिका भी ध्यान देने लायक है, जिन्होंने अपने समय की राष्ट्रीय चेतना को तीव्र किया।
गोवा का अधूरा भूगोल और पुर्तगाल का दंभ
1947 में भारत के हिस्से गोवा अब भी पुर्तगाली शासन के अधीन थे। पुर्तगालियों का दावा था कि गोवा “भारत का हिस्सा नहीं बल्कि यूरोप का अभिन्न अंग” है। सालाज़ार की तानाशाही के दौरान पुर्तगाल ने साफ़ कहा था कि गोवा पर पुर्तगाल का झंडा आखिरी सांस तक लहराएगा। लेकिन भारत की जनता और नेतृत्व इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। गोवा का मामला केवल भूगोल का नहीं था; यह आत्मसम्मान और संपूर्णता का प्रश्न था। देश की आज़ादी अधूरी थी, जब तक गोवा आज़ाद न होता।
भूमिगत आंदोलन और सत्याग्रह
गोवा मुक्ति संग्राम ने सत्याग्रह और क्रांति दोनों को साथ-साथ देखा। 1946 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने पहली बार गोवा जाकर जनता से पुर्तगाली शासन के खिलाफ आवाज़ उठाने की अपील की। इसके बाद भूमिगत संगठनों और सत्याग्रहियों ने मिलकर पुर्तगालियों को चुनौती देना शुरू किया। सैकड़ों सत्याग्रही गोवा की सीमाओं की ओर कूच करते, लाठियाँ खाते, गोलियाँ झेलते, लेकिन पीछे नहीं हटते। भारत के बाकी हिस्सों से भी युवा जत्थे गोवा की ओर बढ़ते।
1955 का सत्याग्रह: जब गोवा की धरती खून से लाल हुई
15 अगस्त 1955—भारत की आज़ादी का आठवाँ साल। गोवा अब भी पुर्तगालियों की गुलामी झेल रहा था। सैकड़ों सत्याग्रही देश के अलग-अलग हिस्सों से गोवा की सीमाओं पर पहुँचे। उनका नारा था—“गोवा हमारा है, गोवा छोड़ो।” जैसे ही सत्याग्रही सीमा लांघकर गोवा की धरती पर पहुँचे, पुर्तगाली पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। दर्जनों लोग मौके पर ही शहीद हो गए। उनके बलिदान ने दिखाया कि पुर्तगाली शासन केवल ताक़त से ही समाप्त किया जा सकता है। यही बलिदान भारतीय सेना की 1961 की कार्रवाई का आधार बना।
1961: ऑपरेशन विजय और गोवा की मुक्ति
दिसंबर 1961 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ‘ऑपरेशन विजय’ के तहत सैन्य कार्रवाई का निर्णय लिया। भारतीय सेना, नौसेना और वायुसेना ने पुर्तगालियों की 450 साल पुरानी सत्ता को ढहा दिया। मात्र 36 घंटे में गोवा भारत की गोद में लौट आया। यह विजय केवल भूभाग की नहीं थी, बल्कि भारतीय आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना थी।
राष्ट्रवाद का दूसरा चेहरा: नारायण आप्टे
गोवा मुक्ति संग्राम का साहस और बलिदान राष्ट्रवाद की अहिंसक शक्ति को दर्शाता है, वहीं नारायण आप्टे जैसे क्रांतिकारियों ने इसे आक्रामक राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण से पूरा किया। आप्टे, विनायक दामोदर सावरकर की विचारधारा से प्रभावित थे। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। उन्होंने माना कि भारत को केवल नैतिक आग्रहों और अहिंसा से नहीं, बल्कि कठोर कदम और साहसिक निर्णय से सुरक्षित किया जा सकता है।
आप्टे और गोवा मुक्ति का रिश्ता
गोवा मुक्ति संग्राम और आप्टे का संबंध राष्ट्रवाद की बहस में निहित है। गोवा में 14 साल की कूटनीति और सत्याग्रह के बाद, केवल भारतीय सेना की शक्ति ने पुर्तगालियों को परास्त किया। वही संदेश आप्टे के दृष्टिकोण के अनुरूप है—कभी-कभी राष्ट्र की रक्षा और संपूर्णता के लिए कठोर कदम उठाना आवश्यक होता है।
अदालत में नारायण आप्टे: अंतिम बयान और विचार
1949 में महात्मा गांधी की हत्या के मुकदमे में आप्टे ने अंतिम बयान में कहा था—”मैंने जो किया, वह अपने राष्ट्र के भविष्य के लिए किया। मेरा विश्वास है कि भारत का भविष्य केवल दृढ़ और साहसी राष्ट्रवाद पर खड़ा हो सकता है।” यह पंक्ति आज भी हमें याद दिलाती है कि राष्ट्रवाद का स्वरूप एक ही नहीं था। इसमें अहिंसा, बलिदान और आक्रामक चेतना सभी शामिल थीं।
इतिहास का संतुलन
गोवा मुक्ति संग्राम और आप्टे की कहानी दिखाती है कि भारतीय राष्ट्रवाद एक धारा नहीं बल्कि कई रंगों का संगम था। गोवा आज भारत का गर्व है। हर साल 19 दिसंबर को गोवा मुक्ति दिवस मनाते समय यह याद रखना चाहिए कि इस आज़ादी की कीमत सैनिकों के साहस, सत्याग्रहियों के बलिदान और आप्टे जैसी चेतनाओं से चुकाई गई। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी में गोवा मुक्ति संग्राम और नारायण आप्टे दोनों की भूमिका अनिवार्य है। आप्टे का नाम विवादास्पद रहा, लेकिन राष्ट्रवाद केवल निर्विवाद घटनाओं का इतिहास नहीं है। यह उन बेचैनियों, संघर्षों और बलिदानों का भी इतिहास है जिसने भारत को मजबूत और संपूर्ण राष्ट्र बनाया।
गोवा मुक्ति संग्राम ने भौगोलिक संपूर्णता दी, और आप्टे जैसी चेतनाओं ने यह सिखाया कि राष्ट्र केवल नैतिक उपदेशों से नहीं, बल्कि साहस और कठोर निर्णयों से भी चलता है। यही भारतीय राष्ट्रवाद की अपराजेय गाथा है।