तमिलनाडु की राजनीति में फिर एक बार बहस का केंद्र बन गया है। राज्य के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने घोषणा की कि राज्य के स्कूल पाठ्यक्रम में पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं को शामिल कर दिया गया है। उनका यह कदम सीधे तौर पर चुनाव से पहले उठाया गया माना जा रहा है, क्योंकि अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं। इस बीच उनके इस निर्णय ने राजनीतिक विश्लेषकों के बीच गरमागरम बहस भी शुरू कर दी है। अब सवाल यह है कि द्रविड़ पार्टी शंकराचार्य को भी अपने इतिहास में जगह देगी? अगर नहीं, तो पैगम्बर मुहम्मद ही क्यों?
जानकारी हो कि सीएम स्टालिन ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उनकी सरकार मुस्लिम समुदाय के प्रति अडिग समर्थन बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है। यह घोषणा पैगम्बर मुहम्मद की 1500वीं जयंती के मौके पर आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में की गई, जहां उन्होंने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) के नेता नल्लै मुबारक की मांग को भी स्वीकार किया। ज्ञात हो कि SDPI, जिसे राजनीतिक दृष्टि से Popular Front of India (PFI) के साथ जोड़ा जाता है, लंबे समय से मुस्लिम समुदाय के हितों की पैरवी करता रहा है।
वोट बैंक राजनीति या शिक्षा की प्राथमिकता?
राजनीतिक विशेषज्ञ सीएम स्टालिन के इस कदम को स्पष्ट रूप से वोट बैंक राजनीति का हिस्सा मान रहे हैं। जानकारी हो कि DMK लंबे समय से मुस्लिम समुदाय के साथ अपने संबंधों को बनाए रखती आई है। इस दौरान सीएम स्टालिन ने अपनी सरकार के कई उपायों को भी गिनाया, जिनमें 3.5% आंतरिक आरक्षण, उर्दू भाषी मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करना, अल्पसंख्यक कल्याण बोर्ड और तमिलनाडु उर्दू अकादमी की स्थापना व अन्य शामिल हैं। इस मौके पर उन्होंने हज हाउस का निर्माण और मिलाद-उन-नबी को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने जैसी परंपराओं का भी जिक्र किया। आलोचक कहते हैं कि यह एक चुनावी रणनीति है, जिसका उद्देश्य मुस्लिम वोटों को अपनी ओर आकर्षित करना है। लेकिन, सवाल यह कि क्या हिन्दू तमिलनाडु में कुछ भी योगदान नहीं करते। अगर योगदान करते हैं तो उनकी उपेक्षा क्यों?
सीएम स्टालिन ने अपने भाषण में यह भी बताया कि DMK हमेशा मुस्लिम समुदाय के हित में खड़ा रहा है। उन्होंने AIADMK की आलोचना करते हुए कहा कि विपक्ष ने तीन तलाक जैसे विवादित मुद्दों पर चुप्पी साधे रखी। सीएम स्टालिन का इस तरह का राजनीतिक रुख यह दर्शाता है कि शिक्षा नीति को भी वोट बैंक की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है।
तमिलनाडु की शिक्षा प्रणाली की नींव धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर टिकी हुई है। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों में संकल्पनात्मक सोच, तर्कशक्ति और सामाजिक समझ को विकसित करना होना चाहिए। पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करना इस दृष्टि से विवादास्पद माना जा रहा है। आलोचकों का कहना है कि यह कदम धर्मनिरपेक्ष शिक्षा नीति के सिद्धांतों के खिलाफ जाता है और यह दिखाता है कि DMK के लिए राजनीतिक लाभ शिक्षा के नैतिक और शैक्षिक उद्देश्य से ऊपर है।
विशेषज्ञ भी सवाल उठाते हैं कि क्या अन्य भारतीय धार्मिक और दार्शनिक विचारकों जैसे शंकराचार्य या रामानुजाचार्य की शिक्षाओं को भी समान रूप से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो यह निर्णय सांप्रदायिक और असंतुलित है।
DMK का ऐतिहासिक दृष्टिकोण
DMK ने हमेशा अल्पसंख्यकों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत रखा है। पार्टी की नींव ही सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यक अधिकारों पर आधारित रही है। लेकिन इस बार उनकी ओर से उठाए गए इस कदम ने इस दृष्टिकोण को राजनीतिक अवसरवाद के रूप में पेश किया है।
इससे पहले एम करुणानिधि और सीएन अन्नादुरै जैसे पूर्व नेताओं ने भी अल्पसंख्यक हितों के लिए कई पहल की थी। मिलाद-उन-नबी को सार्वजनिक अवकाश घोषित करना, उर्दू अकादमी की स्थापना और पिछड़ा वर्ग में मुस्लिमों के लिए आरक्षण जैसी नीतियां इसके उदाहरण हैं। लेकिन चुनावी साल में पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षाओं को शामिल करना इसे अलग स्तर का वोट बैंक रणनीति बनाता है। लेकिन, यह प्रवृत्ति खतरनाक है।
इससे पहले सीएम स्टालिन ने भाषण में गाजा में फिलिस्तीनियों के लिए भी अपनी चिंता व्यक्त की। इस तरह की अंतरराष्ट्रीय पहल यह संकेत देती है कि DMK की रणनीति सिर्फ़ स्थानीय अल्पसंख्यक तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक मुस्लिम मुद्दों से जुड़कर अपनी राजनीतिक पहचान बनाने की कोशिश भी है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि इस तरह के कदम सांप्रदायिक राजनीति के तहत उठाये गए हैं। शिक्षा नीति को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना दीर्घकालिक रूप से सामाजिक एकता और शिक्षा की गुणवत्ता पर असर डाल सकता है।
विपक्षी दलों ने की कड़ी आलोचना
सीएम स्टालिन के इस कदम की बीजेपी और अन्य विपक्षी दलों ने कड़ी आलोचना की है। बीजेपी प्रवक्ता नारायण तिरुपति ने इसे “DMK की वोट बैंक राजनीति का स्पष्ट उदाहरण” करार दिया। उन्होंने कहा कि यह निर्णय तमिल पहचान और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ समझौता है। उन्होंने इसे खतरनाक भी बताया है। विशेषज्ञ भी इस बात पर जोर देते हैं कि शिक्षा के माध्यम से छात्रों को विविधता, तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण सिखाना चाहिए, न कि किसी विशेष धार्मिक समुदाय को राजनैतिक लाभ पहुँचाने के लिए पाठ्यक्रम बदलना।
तमिल पहचान और विरोधाभास
बता दें कि DMK हमेशा से तमिल पहचान के रक्षक के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करती रही है। उसने “हिंदी भाषा थोपने” के खिलाफ जोरदार विरोध किया और तमिल भाषा को बढ़ावा दिया। लेकिन वही पार्टी अब धार्मिक शिक्षाओं को पाठ्यक्रम में शामिल कर रही है। यह विरोधाभास आलोचकों के लिए मुख्य बिंदु बन गया है।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि यह दिखाता है कि DMK की प्राथमिकताएं सांस्कृतिक पहचान की रक्षा और मतदाता समूह को खुश रखने के बीच संतुलित नहीं हैं। जब शिक्षा नीति को राजनीति के प्रभाव में लाया जाता है तो यह दीर्घकालिक रूप से शिक्षा की गुणवत्ता और समाज में सामूहिक सोच पर नकारात्मक असर डाल सकता है।
राज्य सरकार का यह कदम केवल राजनीति और शिक्षा तक सीमित नहीं है। इससे समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण की संभावना बढ़ सकती है। माता-पिता, शिक्षकों और छात्रों के बीच बहस शुरू हो चुकी है कि क्या स्कूलों में सिर्फ मुस्लिम शिक्षाओं को शामिल करना उचित है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इसे मुस्लिम समुदाय के सशक्तिकरण और धार्मिक पहचान के लिहाज से सकारात्मक मानते हैं। उनका तर्क है कि यदि यह कदम संतुलित और समावेशी दृष्टिकोण के साथ उठाया जाए, तो यह सांस्कृतिक शिक्षा और धार्मिक जागरूकता का हिस्सा बन सकता है।
तमिलनाडु में DMK का यह कदम एक बार फिर उसकी वोट बैंक वाली राजनीति को उजागर करता है। जबकि सरकार इसे सामुदायिक सशक्तिकरण के रूप में प्रस्तुत करती है, आलोचक इसे राजनीतिक अवसरवाद और धर्मनिरपेक्षता के उल्लंघन के रूप में देखते हैं।
इसने शिक्षा, राजनीति और समाज के बीच संतुलन की आवश्यकता को भी सामने रखा है। छात्रों को ज्ञान और तर्कसंगत सोच सिखाने के बजाय यदि पाठ्यक्रम को राजनीतिक हितों के अनुसार बदला जाता है, तो यह लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए खतरा बन सकता है।
आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि DMK अन्य धार्मिक और दार्शनिक विचारकों को पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रयास करती है या नहीं। इसके अलावा, यह कदम राज्य की शिक्षा नीति, अल्पसंख्यक राजनीति और सांप्रदायिक संतुलन पर लंबी अवधि के प्रभाव छोड़ सकता है।