पटना के सदाकत आश्रम में बुधवार को कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) की बैठक हुई। कांग्रेस ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह अतीत और वर्तमान को जोड़ने का प्रयास है। पार्टी के बड़े नेता—मल्लिकार्जुन खरगे, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और तमाम दिग्गज इस बैठक में शामिल हुए। यह दावा किया गया कि 1940 के बाद पहली बार बिहार में ऐसी बैठक हो रही है और गांधी-नेहरू-राजेंद्र प्रसाद की स्मृतियों को संजोने के लिए पटना का चयन प्रतीकात्मक है। लेकिन इस प्रतीकवाद को लेकर बीजेपी सवाल खड़े कर रही है। बीजेपी के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद का कहना है कि कांग्रेस को बिहार की याद सिर्फ अपनी राजनीतिक मजबूरी और चुनावी लालसा के कारण आई है।
रविशंकर प्रसाद ने लगाए ये आरोप
रविशंकर प्रसाद का आरोप है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद बिहार के नेताओं और विभूतियों को अपमानित किया। उनका कहना था कि जवाहरलाल नेहरू को डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार नहीं थे। लेकिन, दबाव के चलते उन्हें राष्ट्रपति बनाना पड़ा। जयप्रकाश नारायण को हाशिए पर धकेला गया, जगजीवन राम को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया। उन्होंने कहा कि बीजेपी यह नैरेटिव गढ़ रही है कि कांग्रेस का असली चरित्र बिहार विरोधी रहा है और आज जब चुनाव सामने हैं, तो वह अचानक बिहार प्रेमी बनने का दिखावा कर रही है।
बीजेपी की आपत्ति सिर्फ इतिहास तक सीमित नहीं है। वह कांग्रेस और उसके सहयोगियों की हाल की टिप्पणियों की भी याद दिला रही है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव का बयान कि “बिहार का DNA खराब है”, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की टिप्पणी कि “बिहारी मजदूरों को पंजाब में नहीं घुसने देंगे” ये उदाहरण देते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि उसने कभी इनका विरोध नहीं किया। यही नहीं, लालू यादव के भ्रष्टाचार के मामलों पर भी कांग्रेस चुप्पी साधे रही। रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस की इस चुप्पी को “साझेदारी वाला अपराध” करार दिया।
बिहार में कांग्रेस के पतन की कहानी, आंकड़ों की जुबानी
भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने अपने आरोपों के साथ ठोस आंकड़े भी सामने रखे। उन्होंने कहा कि बिहार की राजनीति का इतिहास गवाह है कि कांग्रेस कभी सत्ता की धुरी हुआ करती थी, लेकिन अब उसकी स्थिति हाशिये पर है।
1967: कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी रही लेकिन बहुमत खो बैठी। यहीं से क्षेत्रीय दलों का उभार शुरू हुआ।
1972: कांग्रेस बहुमत के साथ लौटी और 324 में से 167 सीटें जीतीं। यह उसकी आखिरी बड़ी जीतों में से एक थी।
1977: जनता पार्टी की आंधी चली और कांग्रेस सिर्फ 57 सीटों पर सिमट गई।
1980: इंदिरा गांधी की वापसी के साथ कांग्रेस ने 169 सीटें जीतीं।
1985: कांग्रेस ने 196 सीटें जीतकर जबरदस्त बहुमत पाया। लेकिन, पांच साल में उसे चार मुख्यमंत्री बदलने पड़े।
1990: मंडल राजनीति और लालू प्रसाद के उदय ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया। कांग्रेस सिर्फ 71 सीटें ही जीत पाई।
2000: कांग्रेस महज 23 सीटों पर सिमट गई।
2010: कांग्रेस केवल 4 सीटों पर जीत के साथ सबसे निचले पायदान पर चली गई।
2020: राजद गठबंधन के साथ 70 सीटों पर लड़ी, लेकिन सिर्फ 19 सीटें मिलीं। स्ट्राइक रेट—27 फीसदी, जो गठबंधन के अन्य दलों से काफी कम।
यह आंकड़े बीजेपी के लिए सबसे बड़ा हथियार हैं। पार्टी बार-बार कहती है कि कांग्रेस का बिहार में अब कोई जनाधार नहीं बचा है।
राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा”
कांग्रेस ने अपनी सक्रियता दिखाने के लिए हाल ही में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली। राहुल गांधी ने 16 दिन तक 25 जिलों में घूमकर 183 सीटों को कवर करने की कोशिश की। उन्होंने महागठबंधन के सहयोगियों के साथ मंच साझा किया और ‘वोट चोर गद्दी छोड़’ का नारा दिया। कांग्रेस ने इसे ऐतिहासिक बताया, लेकिन बीजेपी ने इसे खोखला करार दिया। इस दौरान दो जगहों पर प्रधानमंत्री की मां को गाली भी दी गई, जो बिहार के लोगों को रास नहीं आयी। जगह जगह इसका विरोध भी हुआ।
इधर, बीजेपी नेताओं का कहना है कि यह यात्रा सिर्फ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने का प्रयास थी। लेकिन, जनता के बीच इसका कोई असर नहीं पड़ा। उलटे, इसी यात्रा के दौरान राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री मोदी की मां पर आपत्तिजनक टिप्पणी कांग्रेस की छवि के लिए नुकसानदेह साबित हुई। बीजेपी इस बयान को लगातार जनता के बीच मुद्दा बना रही है।
सीट बंटवारे की खींचतान
बिहार में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती महागठबंधन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना है। 2020 में मिली 19 सीटों के प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस इस बार भी 70 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है। लेकिन, राजद इस मांग को मानने को तैयार नहीं दिख रहा है। लालू प्रसाद और तेजस्वी बार-बार कह रहे हैं कि कांग्रेस का स्ट्राइक रेट खराब है। इसलिए उसे 50–55 सीटों से ज्यादा नहीं मिलनी चाहिए। दूसरी ओर, गठबंधन में नए सहयोगियों के आने से सीटों पर दबाव और बढ़ गया है। पिछले चुनावों में भी कुछ ऐसा ही वाकया सामने आया था। लालू प्रसाद हर बार कांग्रेस को कम सीटें देने पर अड़ जाते हैं और कांग्रेस उनकी बात मान लेती रही है।
बीजेपी इस स्थिति को कांग्रेस की “कमजोर bargaining power” का सबूत बताती है। उसका तर्क है कि कांग्रेस अपने दम पर बिहार में खड़ी नहीं हो सकती, इसलिए उसे राजद के सहारे रहना पड़ता है। यही असली सच भी हैं। क्योंकि, बिहार में कांग्रेस के पास संशाधनों की तो कमी नहीं है। लेकिन, नेता नदारद हैं। जो भी नेता हैं बिहार में, वो मैदान में तो नहीं दिखते। हां, चुनाव के दौरान सक्रियता जरूर दिखाई देती है।
ये है हकीकत
कांग्रेस की पटना में बैठक का उद्देश्य इतिहास की विरासत को वर्तमान से जोड़ना बताया जा रहा है। सदाकत आश्रम का चयन इसी प्रतीकवाद का हिस्सा बताया जा रहा है। कांग्रेस को उम्मीद है कि तेलंगाना की तरह यहां भी बैठक से उसे ऊर्जा मिलेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ प्रतीकवाद से जनता का विश्वास जीता जा सकता है?
बीजेपी का कहना है कि बिहार की जनता अब विकास की राजनीति चाहती है, न कि अवसरवाद की। उनके मुताबिक कांग्रेस बिहार के लिए कभी गंभीर नहीं रही। वह सिर्फ चुनाव आने पर यहां सक्रिय होती है और बाकी समय दिल्ली में खो जाती है।
बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस ने बिहार की आत्मा को बार-बार अपमानित किया और अब चुनाव से पहले यहां आकर बैठकें कर रही है। रविशंकर प्रसाद के शब्दों में-“कांग्रेस को बिहार की याद सिर्फ अपने राजनीतिक फायदे के लिए आई है। जनता जान चुकी है कि यह पार्टी अब सिर्फ वंश और सत्ता के लिए जीती है।” 85 साल बाद पटना में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक जरूर हुई, लेकिन इसका प्रभाव क्या होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल तो बीजेपी जनता के बीच यह सवाल उठाने में सफल हो चुकी है कि क्या कांग्रेस सचमुच बिहार के लिए आई है, या फिर सिर्फ चुनावी टिकट और सत्ता की लालसा में?