बिहार में सिर्फ जातीय समीकरण नहीं साधेगी BJP, उम्मीदवारों की लिस्ट में ये होगी असली कसौटी
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बिहार में सिर्फ जातीय समीकरण नहीं साधेगी बीजेपी, उम्मीदवारों की लिस्ट में ये होगी असली कसौटी

2025 का चुनाव मोदी फैक्टर, संगठन शक्ति और युवा नेतृत्व पर केंद्रित, जाति से ऊपर ‘जीतने वाले’ चेहरों की तलाश में पार्टी।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
13 October 2025
in चर्चित, मत, राजनीति, समीक्षा
बिहार में 12 रैलियों से हुंकार भरेंगे पीएम मोदी: राष्ट्रनिर्माण की पुकार बन जाएगा चुनावी अभियान

बिहार में मोदी की प्रत्येक रैली का असर लगभग 15-20 विधानसभा सीटों तक माना जा रहा है।

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बिहार विधानसभा चुनाव की गहमागहमी अब दिल्ली से लेकर पटना तक तेज हो चुकी है। एनडीए में सीट बंटवारे के बाद बीजेपी ने उम्मीदवारों की पहली सूची को अंतिम रूप देने की तैयारी पूरी कर ली है। रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और संगठन महासचिव बीएल संतोष की मौजूदगी में हुई केंद्रीय चुनाव समिति (CEC) की बैठक ने इस बात को साफ कर दिया कि बीजेपी इस बार बिहार चुनाव को सिर्फ जातीय समीकरणों के दायरे में सीमित नहीं रखेगी।

पार्टी का फोकस अब कौन किस जाति से है से आगे बढ़कर कौन जीत सकता है पर है। यानी जातीय संतुलन रहेगा, लेकिन उम्मीदवार चयन की प्राथमिक कसौटी होगी उनकी विजय क्षमता।

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एनडीए में सीट बंटवारा तय, अब लिस्ट पर फोकस

एनडीए में सीटों का बंटवारा लगभग तय हो चुका है। बीजेपी 243 में से 101 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि जदयू भी 101 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारेगी। शेष सीटें हम (HAM), लोजपा (रामविलास) और अन्य सहयोगी दलों को मिलेंगी।

पार्टी सूत्रों के मुताबिक, पहले चरण के उम्मीदवारों की घोषणा पटना में जल्द ही हो सकती है। दिल्ली में हुई बैठक में उम्मीदवारों की लिस्ट को लेकर घंटेभर चली गहन चर्चा में हर उम्मीदवार की ग्राउंड रिपोर्ट, जातीय समीकरण और व्यक्तिगत लोकप्रियता पर अलग-अलग रिपोर्ट पेश की गई।

सिर्फ जातीय गणित नहीं, ‘विजय क्षमता’ बनेगी प्राथमिकता

बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक रहे हैं। यादव, कुशवाहा, भूमिहार, ब्राह्मण, पासवान और मुसहर जैसे समुदायों का वोट शेयर हर पार्टी की रणनीति का केंद्र रहा है। लेकिन बीजेपी इस बार इस परंपरा को आंशिक रूप से तोड़ने के मूड में है। पार्टी का इरादा है कि वह जाति प्रतिनिधित्व को तो बनाए रखे, लेकिन टिकट वितरण में ‘वोट ट्रांसफर और ग्राउंड पर जीतने की संभावना’ को ही अंतिम पैमाना बनाया जाए।

एक वरिष्ठ बीजेपी पदाधिकारी ने कहा कि अब केवल जाति से जीत नहीं मिलती। जनता काम, छवि और कनेक्शन देखती है। पार्टी का मानना है कि जिसे जनता स्वीकारती है, वही उम्मीदवार सही है। इसका मतलब यह है कि पार्टी उम्मीदवारों के चयन में स्थानीय लोकप्रियता, संगठन से जुड़ाव और केंद्र की योजनाओं से तालमेल को भी उतनी ही गंभीरता से तौलेगी जितनी जाति को।

सिटिंग विधायकों को मिलेगा दोबारा मौका

दिलचस्प बात यह है कि पार्टी ने इस बार अपने अधिकांश सिटिंग विधायकों को फिर से मौका देने का निर्णय लिया है। हालांकि, 2020 में बीजेपी ने बड़ी संख्या में नए चेहरों को उतारा था, जिनमें से कई ने पहली बार में ही मजबूत जनाधार तैयार कर लिया। पार्टी के भीतर यह मूल्यांकन किया गया कि बिहार में सरकार-विरोधी लहर (Anti-incumbency) जैसी कोई स्थिति नहीं है। इसलिए जहां अन्य राज्यों में बीजेपी औसतन 25-30% विधायकों का टिकट काटती रही है, वहीं बिहार में यह अपवाद साबित हो सकता है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इससे पार्टी को दोहरा लाभ होगा। पहला यह कि संगठन के भीतर असंतोष नहीं फैलेगा और दूसरा कार्यकर्ताओं को संदेश जाएगा कि परिश्रम और जनता से जुड़ाव का इनाम पार्टी देती है।

युवा और महिला उम्मीदवारों पर जोर

बीजेपी की सूची में इस बार एक और बड़ा संदेश छिपा होगा, नई पीढ़ी को आगे लाने का। पार्टी की योजना है कि कुल उम्मीदवारों में से 10–15% सीटों पर महिला चेहरों को मौका दिया जाए। इनमें से कई वे होंगी जो स्थानीय निकायों या पंचायत राजनीति से उभरी हैं। इसके अलावा सोशल मीडिया और ग्राउंड कनेक्ट में सक्रिय युवा नेताओं को भी टिकट देने की तैयारी है।

पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि बिहार की युवा आबादी (18 से 30 वर्ष आयु वर्ग) अब निर्णायक मतदाता बन चुकी है। ऐसे में बीजेपी चाहती है कि उसका हर दूसरा उम्मीदवार नए बिहार की छवि पेश करे। शिक्षित, तकनीकी रूप से सक्षम और संगठन से जुड़े।

उम्र बनेगी टिकट कटने का बड़ा कारण

बीजेपी के आंतरिक दिशानिर्देशों के अनुसार, 70 वर्ष से अधिक उम्र के नेताओं को अब मार्गदर्शक मंडल की भूमिका में भेजा जा सकता है। हालांकि, यह नियम लचीला रहेगा। यदि किसी सीट पर वरिष्ठ नेता ही सबसे मजबूत विकल्प हैं, तो उन्हें अपवाद के तौर पर टिकट दिया जा सकता है। पार्टी इस बार यह स्पष्ट संदेश देना चाहती है कि राजनीतिक उत्तराधिकार योग्यता से तय होगा, न कि केवल परंपरा से।

एनडीए में तालमेल की परीक्षा

भले ही सीट बंटवारे पर सहमति बन चुकी है, लेकिन वास्तविक परीक्षा तब शुरू होगी जब प्रत्याशियों की घोषणा होगी। कई सीटों पर बीजेपी और जदयू का पारंपरिक प्रभाव क्षेत्र एक-दूसरे से टकराता है। खासकर सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल में। बीजेपी की चुनौती यह रहेगी कि सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के बीच आपसी समन्वय बना रहे और स्थानीय स्तर पर फ्रेंडली फाइट जैसी स्थिति न बने।

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि अगर बीजेपी यह तालमेल बनाए रखने में सफल रही तो वह जदयू की परंपरागत जमीन पर भी सेंध लगा सकती है, खासकर शहरी और अर्धशहरी सीटों पर।

मोदी फैक्टर अब भी सबसे बड़ा हथियार

बीजेपी की रणनीति का सबसे मजबूत स्तंभ अब भी नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता है। पार्टी इस चुनाव को विकास बनाम जाति के एजेंडे पर ले जाना चाहती है। केंद्र की योजनाएं प्रधानमंत्री आवास योजना, आयुष्मान भारत, उज्ज्वला योजना और हर घर जल बीजेपी के डिलीवरी मॉडल के प्रतीक के रूप में पेश की जाएंगी। हर जिले में मोदी के विकास और राज्य सरकार के प्रशासन का तुलनात्मक मॉडल तैयार किया जा रहा है।

बीजेपी संगठन की नज़र में, बिहार में ‘मोदी मैजिक’ अभी भी 10-12% तक का अतिरिक्त वोट बैंक जोड़ता है। यही कारण है कि पार्टी हर उम्मीदवार से यह उम्मीद रखेगी कि वह केंद्र की नीतियों को अपनी स्थानीय पहचान से जोड़ सके।

जाति राजनीति से आगे बढ़ने की कोशिश

बिहार की राजनीति से जाति को पूरी तरह मिटाना असंभव है, लेकिन बीजेपी यह संदेश देना चाहती है कि वह इसे कंट्रोल नहीं बल्कि रिफॉर्म करना चाहती है। पार्टी का उद्देश्य है कि जाति को राजनीतिक गणित से हटाकर प्रतिनिधित्व और विकास के मिश्रण के रूप में पेश किया जाए।

2014 से अब तक बिहार में बीजेपी का वोट शेयर लगभग 33% के औसत पर स्थिर है। पार्टी मानती है कि यदि वह जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर विकास और पहचान का नया नैरेटिव गढ़ पाती है, तो यह चुनाव उसके लिए निर्णायक साबित हो सकता है।

लिस्ट नहीं, संदेश होगा असली खेल

जब बीजेपी अपनी पहली सूची जारी करेगी, तो वह सिर्फ नामों की घोषणा नहीं होगी, बल्कि एक राजनीतिक घोषणा-पत्र की तरह होगी। यह सूची बताएगी कि पार्टी अब “वोट बैंक” नहीं, बल्कि “विकास बैंक” बनाने की दिशा में है। जहां विपक्ष अभी भी जाति-समुदाय आधारित समीकरणों में उलझा हुआ है, वहीं बीजेपी अपने पत्ते संगठन, युवा नेतृत्व और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता पर खेल रही है।

अगर यह रणनीति जमीन पर उतरी, तो 2025 का बिहार चुनाव बीजेपी के लिए केवल एक जीत नहीं, बल्कि राजनीतिक परिपक्वता की नई परिभाषा बन सकता है, जहां जाति नहीं, काबिलियत और कनेक्टिविटी तय करेगी कि किसे मिलेगा जनता का आशीर्वाद।

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