बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां भ्रष्टाचार और वंशवाद की धुंध के बीच ‘सत्ता की नैतिकता’ का सवाल उठ खड़ा हुआ है। दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट का फैसला, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी राबड़ी देवी और पुत्र तेजस्वी यादव के खिलाफ IRCTC घोटाले में आरोप तय किए गए हैं। ये सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र में जवाबदेही की बहाली का प्रतीक बन गया है। चुनावी मौसम में आया यह फैसला बिहार की राजनीति की दिशा तय कर सकता है, क्योंकि इस बार अदालत के दरवाजे पर खड़ा यह मामला राजनीतिक षड्यंत्र नहीं, बल्कि वर्षों से दबे भ्रष्टाचार के सबूतों पर आधारित है।
लोकसेवा के नाम पर परिवारसेवा की परंपरा पर वार
लालू यादव का राजनीतिक जीवन भारतीय राजनीति के उस दौर की याद दिलाता है जब जातिवाद, परिवारवाद और तंत्र के दुरुपयोग को ‘नेतृत्व’ का पर्याय मान लिया गया था। रेलवे में भ्रष्टाचार के आरोप, घोटाले की परतें और सत्ता के माध्यम से निजी लाभ उठाने की प्रवृत्ति, यह सब उस दौर की कहानी है जब लोकसेवा के नाम पर परिवार सेवा की परंपरा रची गई थी। आज वही इतिहास दोहराया जा रहा है, बस फर्क इतना है कि अदालतें अब पहले से कहीं अधिक सशक्त हैं और जनता कहीं अधिक सजग।
तेजस्वी यादव का यह बयान कि यह सब राजनीतिक बदले की कार्रवाई है। दरअसल, ये उसी पुरानी रणनीति की पुनरावृत्ति है, जो हर बार तब अपनाई जाती है, जब कानून की जद में कोई तथाकथित बड़ा नेता आता है। लेकिन क्या यह सवाल नहीं उठता कि आखिर हर बार यही ‘राजनीतिक बदले’ की कहानी केवल उन्हीं दलों तक क्यों सिमट जाती है जिनकी राजनीति भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग से जुड़ी रही है? अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि IRCTC के दो होटलों के टेंडर में भारी अनियमितता की गई, टेंडर प्रक्रिया में हस्तक्षेप हुआ और लालू यादव ने अपने पद का इस्तेमाल निजी स्वार्थ के लिए किया। यह कोई राजनीतिक आरोप नहीं, बल्कि न्यायिक अभिलेख का हिस्सा है।
पुराना है राजनीतिक बदले का राग
तेजस्वी यादव आज खुद को युवा नेतृत्व और नई राजनीति का चेहरा बताते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह नई राजनीति उसी पुरानी व्यवस्था की विरासत नहीं है, जिसमें भ्रष्टाचार को जातीय समीकरणों की ढाल से ढका जाता रहा? अदालत के सामने पिता, माता और पुत्र तीनों का एक साथ खड़ा होना इस बात का प्रतीक है कि ‘परिवारवाद’ अब बिहार की सियासत में एक विचारधारा नहीं, बल्कि एक आपराधिक गठजोड़ का रूप ले चुका है। इस बार जनता के सामने दो विकल्प हैं एक तरफ न्याय की प्रक्रिया का सम्मान, दूसरी ओर राजनीतिक बदले का राग अलापकर जनता को फिर से गुमराह करने का प्रयास।
राष्ट्रीय दृष्टि से देखें तो यह मामला सिर्फ लालू परिवार का नहीं है। यह उस पुरानी राजनीतिक संस्कृति का मुकदमा है, जिसने भारत के लोकतंत्र को दशकों तक बंधक बनाए रखा। जब लालू यादव रेल मंत्री थे, तो यह कहा जाता था कि उन्होंने रेलवे को मुनाफे में ला दिया, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि वही दौर वह था जब रेलवे की ठेकेदारी प्रणाली में अपार अपारदर्शिता आई, और ‘प्रबंधन के गुरु’ की आड़ में अनुशासनहीनता और भाई-भतीजावाद पनपने लगा। यही कारण है कि अदालत ने अब उस ‘गौरवगाथा’ के पीछे छिपे भ्रष्टाचार को उजागर किया है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे रोचक पहलू यह है कि लालू परिवार हर बार खुद को ‘पीड़ित’ की तरह पेश करता है। जब चारा घोटाला हुआ था, तब भी यही कहा गया कि यह “राजनीतिक बदले” की कार्रवाई है। जब आय से अधिक संपत्ति का मामला चला, तब भी यही तर्क दोहराया गया। अब IRCTC घोटाले में भी वही लाइन दोहराई जा रही है। लेकिन आखिर कब तक? क्या कानून सिर्फ विरोधियों के लिए बनेगा? क्या न्यायालय तब तक सही माने जाएंगे जब तक वे किसी विपक्षी नेता के खिलाफ फैसला न दें? यही दोहरा मापदंड भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी बीमारी है-और लालू परिवार उस बीमारी का स्थायी प्रतीक बन चुका है।
बिहार की जनता अब उस दौर से बाहर निकल चुकी है जब भावनात्मक नारों और जातीय समीकरणों के दम पर वोट मिल जाते थे। आज मतदाता पूछता है कि कौन कानून का सम्मान करता है और कौन कानून को अपने पक्ष में तोड़ने की कोशिश करता है। जिस तरह से अदालत ने कहा कि लालू यादव ने लोकसेवक रहते हुए पद का दुरुपयोग किया, यह इस बात का सबूत है कि सत्ता में रहते हुए उन्होंने उस शपथ का उल्लंघन किया जो हर जनप्रतिनिधि संविधान के प्रति करता है।
भारतीय न्याय व्यवस्था की ताकत का प्रतीक
तेजस्वी यादव अब खुद को ‘युवा चेहरा’ और ‘भविष्य का नेता’ कहें या ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ की छवि गढ़ें, लेकिन वास्तविकता यह है कि उनकी राजनीतिक जमीन अभी भी उन्हीं भ्रष्ट परंपराओं पर टिकी है जो उनके पिता ने छोड़ी थी। बिहार के चुनाव से पहले इस तरह का फैसला जनता के मन में एक स्पष्ट रेखा खींच देगा, एक तरफ कानून के पक्ष में खड़ा भारत, दूसरी तरफ अपने अपराधों को राजनीतिक षड्यंत्र बता कर बचने की कोशिश करने वाला वंशवाद।
राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह मामला भारतीय न्याय व्यवस्था की ताकत का प्रतीक है। जिस देश में दशकों तक बड़े-बड़े नेता कानून से ऊपर माने जाते थे, आज वही लोग अदालत में खड़े होकर कहते हैं-“हम मुकदमे का सामना करेंगे।” यह लोकतंत्र की विजय है। यही वह नया भारत है, जहाँ कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितनी भी बड़ी राजनीतिक हैसियत रखता हो, न्याय से ऊपर नहीं।
लालू यादव और उनका परिवार चाहे जितना भी राजनीतिक सहानुभूति जुटाने की कोशिश करे, परंतु सच्चाई यह है कि यह मुकदमा उनके राजनीतिक पतन का प्रतीक बन चुका है। भ्रष्टाचार अब राजनीतिक तर्क से नहीं, बल्कि सबूतों से तय होगा। और बिहार की जनता, जिसने दशकों तक लूट, परिवारवाद और जातीय राजनीति झेली है, अब न्याय की इस प्रक्रिया को अपने आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना के रूप में देख रही है।