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क्या बेनेगल नरसिंह राउ थे संविधान के असली निर्माता ? इतिहास ने उनके योगदान को क्यों भुला दिया ?

बी.एन राउ कोंकण भाषी सारस्वत ब्राह्मण थे, जिन्हें संस्कृत और भारतीय धर्मग्रंथों का भी अच्छा ज्ञान था। संविधान सभा के सलाहकार के रूप में उन्होने अकेले ही संविधान का शुरुआती मसौदा तैयार किया था, बाद में इसे ही संशोधित कर के अंगीकार किया गया

TFI Desk द्वारा TFI Desk
26 November 2025
in इतिहास, ज्ञान
बी.एन राउ का संविधान निर्माण में बड़ा योगदान है

बेनेगल नरसिंह राउ को इतिहास में वो जगह नहीं मिली, जिसके वो हकदार थे

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इतिहास की एक बड़ी विशेषता ये है कि वो नायकों और खलनायकों को परिभाषित करने का जिम्मा आने वाली पीढ़ियों पर छोड़ देता है, और आने वाली पीढ़ियां ये काम अक्सर निरपेक्ष भाव से करने की जगह अपनी सहूलियत, सुविधा और लोकतांत्रिक मॉडल में कहें तो जन भावनाओं के आधार पर करती हैं।
बेनेगल नरसिंह राउ या बी.एन राउ भी ऐसी ही शख़्सियत हैं, जो इतिहास और वर्तमान के इसी द्वंद का शिकार बने। भारत और बर्मा जैसे दो–दो देशों के संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण (शायद सबसे बड़ी) भूमिका निभाने के बावजूद ‘वर्तमान पीढ़ी’ ने उन्हें ऐतिहासिक लिहाज़ से ‘हाशिए’ या कहें कि गुमनामी में ही रखा है।

भारत के संविधान को दुनिया के सबसे बड़े संविधानों में से एक माना जाता है जिसमें 448 अनुच्छेद, 25 खंड, 12 अनुसूचियां (शेड्यूल) और 100 से ज्यादा संशोधन शामिल हैं।
इस महान संविधान को सात विशेषज्ञों की एक कमिटी ने तैयार किया था और इसका नेतृत्व डॉक्टर भीमराव आंबेडकर यानी बाबा साहेब कर रहे थे। प्रशासनिक और क़ानूनी विशेषज्ञों की इस समिति में के एम मुंशी, एन गोपालस्वामी आयंगर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर,सैयद मोहम्मद सादुल्लाह, मैसूर के दीवान एन माधव राऊ और डीपी खेतान जैसी शख्सियतों के साथ बेनेगल नरसिंह राव भी शामिल थे। बाद में टी. टी. के. कृष्णामाचारी को भी इसमें शामिल किया गया। कृष्णामचारी बाद में नेहरू सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे।

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इस कमिटी का प्रमुख होने के नाते ही अंबेडकर बाद में भारतीय संविधान के निर्माता कहलाए, वहीं बी.एन. राउ का योगदान काफी हद तक अनदेखा कर दिया गया।

जबकि इस संविधान को लिखने में बेनेगल नरसिंह राउ की बहुत बड़ी भूमिका रही जिन्हें संविधान सभा के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था और फ़रवरी, 1948 तक उन्होने अकेले ही संविधान का प्रारंभिक ड्रॉफ्ट तैयार कर लिया था। बाद में इसी मसौदे को संविधान सभा ने लंबी चर्चाओं, बहसों और कुछ संशोधनों के बाद 26 नवंबर, 1949 को पारित कर दिया गया था।

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और इस नाते जब वो पूरी तरह तैयार हो चुके संविधान पर हस्ताक्षर करने जा रहे थे, तो उससे पहले उन्होने बीएन राव का विशेष रूप से धन्यवाद दिया। उन्होने कहा था कि “संविधान बनाने का जो श्रेय मुझे दिया जा रहा है, वास्तव में उसके असल अधिकारी बेनेगल नरसिंह राव भी हैं, जिन्होने न सिर्फ संविधान का बेसिक ड्रॉफ्ट तैयार किया, बल्कि कई संवैधानिक अड़चनों को भी अपनी बुद्धिमता से दूर किया।”

दरअसल बेनेगल नरसिंह राउ ने संविधान के जिस शुरुआती ड्रॉफ्ट को तैयार किया था, बाद में उसी का डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता वाली ड्रॉफ्ट कमिटी ने विस्तार किया और उसे अंतिम रूप दिया गया।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था – ‘संविधान का असल निर्माता’

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने बाद में संविधान को लेकर लिखे गए अपने एक संस्मरण में राव की तारीफ़ करते हुए लिखा था कि. ‘संविधान का ड्रॉफ्ट तैयार करने के लिए राव ने दुनिया भर के कई लिखित और अलिखित संविधानों का गहन अध्ययन किया और उनके अहम बिंदुओं को बाकी सदस्यों के लिए भी उपलब्ध कराया।’ वो लिखते हैं कि ‘अगर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर संविधान निर्माण में पायलट की भूमिका में थे, तो बेनेगल राऊ ने शख़्सियत थे, जिन्होने संविधान की एक स्पष्ट परिकल्पना दी और उसकी नींव रखी। संवैधानिक विषयों को साफ़–सुथरी भाषा में लिखने की उनमें कमाल की योग्यता थी।’

संस्कृत, भारतीय धर्मग्रंथों के भी विद्वान थे बी.एन राउ
बीएन राउ का जन्म ब्रिटिश राज
 के दौरान 26 फरवरी 1887 को एक हिंदू कोंकणी भाषी सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता बेनेगल राघवेंद्र राव उस वक्त देश के जाने माने चिकित्सक तो थे ही, संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति/धर्म के प्रकांड विद्वान भी थे। उनके कहने पर ही बेनेगल नरसिंह राव ने भी स्नातक में गणित के साथ–साथ संस्कृत को भी विषय के रूप में चुना और पिता के भरोसे पर खरे भी उतरे। वर्ष 1905 में उन्होने अंग्रेजी, भौतिकी और संस्कृत में ट्रिपल फर्स्ट डिग्री के साथ स्नातक की परीक्षा पास की और अगले ही साल 1906 में गणित में भी उन्होने पूरे मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया।

जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री भी रहे 

उनकी मेधा और लगन  को देखते हुए उन्हें इंग्लैड में जाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए स्कॉलरशिप मिली, जहां उन्होने ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज से आगे की पढ़ाई की। बाद में 1909 में उन्होने ICS (इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा पास की, उन्हें ब्रिटिश प्रशासन की तरफ़ से 1938 में ‘नाइटहुड’ की उपाधि भी मिली और वर्ष 1944 में वो जम्मू–कश्मीर रियासत के प्रधानमंत्री भी रहे। लेकिन महाराजा के साथ मतभेद होने की वजह से उन्होने जल्दी ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया।


बीएन राउ ने बर्मा का संविधान भी लिखा
उस वक्त तक बर्मा आज़ाद हो चुका था और सन 1946 में बर्मा के प्रधानमंत्री यू आँग सान ने उन्हें देश के संविधान लिखने में मदद करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होने न सिर्फ उनके आमंत्रण को स्वीकार किया, बल्कि इस काम को बख़ूबी अंजाम भी दिया। बाद में जुलाई 1946 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने उन्हें संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार बना दिया।

संविधान बनाने के लिए बिना वेतन काम किया
बेनेगल नरसिंह राउ ने सरकार को स्पष्ट कर दिया था  कि वो वैधानिक सलाहकार के रूप में काम करने के लिए कोई वेतन नहीं लेंगे। उनका मानना था कि अगर वो इसके लिए वेतन लेंगे तो उन्हें ख़ुद को निष्पक्ष साबित करना मुश्किल हो जाएगा, साथ ही अगर संविधान निर्माण में देरी हुई तो इसकी जिम्मेदारी संविधान सभा के दफ़्तर पर न आए।
इस पद पर काम करते हुए भारतीय संविधान के पहले 243 अनुच्छेद उन्होने लिखे और फिर इसके बाद डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता वाली ड्रॉफ्ट कमिटी ने इसे विस्तार देकर मौजूदा संविधान का रूप दिया।

बेनेगल नरसिंह राउ को वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे

बीएन राउ ने भले ही संविधान निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाई हो, लेकिन जिस वक्त संविधान को अंगीकार किया गया और भारत एक गणतांत्रिक देश बना, राउ उस पल का गवाह बनने के लिए भारत में मौजूद नहीं थे। क्योंकि 1949 में ही उन्हें संयुक्त राष्ट्र में भारत का स्थाई प्रतिनिधि बना दिया गया था, जहां वो 1952 तक तैनात रहे।
इसके बाद उन्होने हेग में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के जज के रूप में भी कुछ वक्त काम किया। 26 फ़रवरी 1953 को जेनेवा में कैंसर से उनका निधन हो गया।

अब इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस व्यक्ति ने भारत के संविधान निर्माण में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उसके योगदान को कभी उतना महत्व नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे।

शायद उनके नाम पर सियासी समीकरण नहीं साधे जा सकते थे, या फिर उन्हें संविधान सभा से जुड़े अन्य महापुरुषों की विराट छाया के पीछे छिपा दिया गया।
वजह जो भी हो– लेकिन वो शब्दों और भावनाओं के रूप में भारतीय संविधान में आज भी मौजूद हैं।

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