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नोबेल अर्थशास्त्री रिचर्ड एच थैलर का विमुद्रीकरण का आंकलन बेहद सटीक था

Vasudeva Reddy द्वारा Vasudeva Reddy
15 October 2017
in Uncategorized
रिचर्ड एच थैलर, विमुद्रीकरण
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रिचर्ड एच थैलर, कुछ दिनों पहले तक बहुत से लोगों के लिए अनजाना नाम था लेकिन इनका नाम हाल ही के समय में आर्थिक हलकों में एक चर्चित विषय है। यदि आप ‘मुझे क्या लेना-देना’ वाले व्यक्ति हैं, और रिचर्ड एच थैलर का नाम नहीं सुने हैं, तो यह वो व्यक्ति हैं जिन्होंने हमारे रघुराम राजन को पीछे छोड़ इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल जीता है। तो क्या ? हर साल कोई ना कोई नोबेल जीतता है, तो यह आपको कैसे प्रभावित करेगा ? सच कहूँ तो, नहीं करेगा। हालांकि स्वतंत्र भारत में आर्थिक मसले पर हुए सबसे बड़े फैसले विमुद्रीकरण पर उनकी राय आपको समझने में मदद करेगी कि यह एक अच्छा कदम है या नहीं।

8 नवंबर को जब रिचर्ड एच थैलर ने ट्वीट किया कि “यह ऐसी नीति है जिसका मैं लंबे समय से समर्थन कर रहा था। कैशलेस की ओर यह पहला कदम है और भ्रष्टाचार कम करने की अच्छी शुरआत।” जाहिर है, उन्होंने इस कदम का समर्थन किया। यह नहीं भूलना चाहिए कि जब उन्हें पता चला कि आरबीआई 2000 के नोट 1000 एवं 500 के नोट के बदले जारी कर रही है तो उन्होंने ट्वीट किया “वास्तव में?” बेशक थेलर को यह स्पष्ट नहीं था कि 2000 का नोट एक स्थाई कदम था।

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अब रिचर्ड एच थैलर कोई भगवान तो है नहीं जिनके शब्दों या ज्ञान को आंख बंद करके भरोसा कर लिया जाए लेकिन वह निश्चित रूप से उन फेसबुक अर्थशास्त्रियों के मुकाबले बेहतर ही हैं। विमुद्रीकरण की सफलता और विफलता को एक तरफ रखते हुए मुझे नहीं लगता कि इस कदम के इरादे पर कोई तर्क करेगा। सिस्टम से कालेधन को बाहर निकालने के लिए आम जनता की भागीदारी के लिए तैयार होना स्पष्ट था। मैं एक बैंकर हूँ, और मेरे पास दैनिक आधार पर हजारों लोगों के साथ पहला अनुभव था। आपको मुझ पर भरोसा करना होगा जब मैं कहूंगा कि पूरी की पूरी जनता घंटों लाइन में खड़े होने के बाद भी इस कदम के समर्थन में थी।

रिचर्ड एच थैलर के कहने या नहीं कहने, इसकी प्रशंसा एवं आलोचना होने के बावजूद, विमुद्रीकरण हमारी सरकारी एजेंसियों के परिचालन क्षमता के गति निर्धारण में एक मील का पत्थर था जिससे पता चले कि आपातकाल के दौरान जनता की मांगों को पूरा करने लिए वह कितनी दूर तक जा सकते हैं।

क्विज सामान्य लोगों के लिए यह अव्यवस्थित और असुविधाजनक था। उन 50 दिनों के दौरान आरबीआई ने 74 अधिसूचना जारी की, प्रतिदिन एक अधिसूचना से भी ज्यादा। हां, यह तैयारी की कमी और मुसीबतों को कम आंकने की वजह से पैदा हुई थी। उस समय सरकारी निकायों ने प्रभावी ढंग से कार्य किया। सरकार और आरबीआई ने जमीनी स्तर पर तेजी से बदलाव की बात सुनी उस की निगरानी की और तत्काल जवाब भी दिया। मुझे लगता है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में सरकारी एजेंसियों और सरकार ने पहली बार प्रभावी ढंग से काम किया और जरूरत पड़ने पर दैनिक आधार पर नियमों में संशोधन किया। सूचना प्रभाव उत्कृष्ट था, निर्णय लेने का काम भी त्वरित था और कार्यान्वयन में तेजी थी, यह बैंकों की परिचालन क्षमता और सभी सरकारी संगठनों के लिए वास्तव में सही परीक्षा थी।

जनवरी में हमारे वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फेसबुक पर कहा “दर्द और असुविधाओं की अवधि खत्म होने जा रही है और आर्थिक गतिविधियां बहाल की जा रही है।” उचित योजना के माध्यम से लोगो जिन दर्द और असुविधाओं से बचाया जा सकता था सरकार ने उसे स्वीकार किया। तो मैं 9 महीने पुराने उस बात की चर्चा क्यों कर रहा हूं जब पूरी दुनिया उसे भूलने में लगी है? क्योंकि मैंने 9 महीने पहले जब इन्ही शब्दों को कहता तो आप उसको अपरिपक्व राय कहकर नजरअंदाज कर दिए होते, हाँ जब आप मौद्रिक लागत लाभ विश्लेषण के बारे में बात करते हैं तो विमुद्रीकरण बहुत सफल नहीं था। इन सबके बाद यह पूरी तरह से गलत कदम नहीं था और इसे पूरी तरह विफलता के रूप में देखा जाना सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता है।

रिचर्ड एच थैलर की तरह आम जनता ने घोषणा के दौरान विमुद्रीकरण को काले धन पर एक मास्टर स्ट्रोक के रूप में स्वागत किया गया बाद में आतंकवादी फंडिंग के खिलाफ एक जंग और नकद रहित अर्थव्यवस्था की ओर भी इसे जोड़ा गया। लेकिन वित्तमंत्री ने 30 अगस्त को जब कहा कि “जप्त करना इस अभियान का उद्देश्य नहीं था बल्कि अर्थव्यवस्था को मुख्यधारा में लाना था।” लोग यहीं से दिग्भ्रमित हो गए। मैं जानता हूं कि यह वैसा ही हुआ जैसे जिस दिशा में गेंद जा रही हो उस दिशा में गोल पोस्ट रख दिया जाए। लेकिन जब बात कम से कम मुख्यधारा के अर्थव्यवस्था की है तो वित्त मंत्री की बातों में पूरी सच्चाई है।

विमुद्रीकरण से सिस्टम में लौटे हुए नोट के प्रतिशत से हमें इसकी सफलता को नहीं मापना चाहिए। क्या 99% की जगह 85% नोट सिस्टम में वापस आते तो क्या आप इसे सफल कहते ? शायद। लेकिन मैं इसे एक संक्षिप्त दृश्य कहता हूँ। बैंकों में नए फंड की बाढ़ सी आ गई। उन्हें बहुत से फंड मिले, और तो उन्होंने बचत खाते में ब्याज की दरें 4% से कम की जहाँ मैं याद कर सकता हूँ। आप पूछ सकते हैं, बचत दरों में कमी कैसे आम आदमी की मदद कर सकती है ? अगर आप किसी विकसित देश को देखते हैं, तो कोई भी विकसित देश फिक्स डिपॉज़िट पर 4% ब्याज की पेशकश नहीं करता, सामान्य खातों और बचत खातों को चेक करना तो भूल ही जाइए। हाँ, बैंक की ब्याज दरों को कम करके ही कोई देश अपने आप विकसित नहीं हो सकता, लेकिन इसके पीछे एक तर्क है। बैंक की ब्याज दरें सीधे मुद्रास्फीति के स्तर से जुड़ी होती हैं, अगर बैंक की ब्याज दरें नीचे आ रही है इसका मतलब है कि उस देश की मुद्रास्फीति भी नीचे आ रही है। आप उसे देख सकते हैं। और हाँ, निचली मुद्रास्फीति और नियंत्रित मुद्रास्फीति एक बुरी चीज नहीं है, खासकर भारत जैसे देश के लिए जो कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है।

कम मुद्रास्फीति का कम होना अचानक से लोगो की क्रय शक्ति कम होने के कारण नहीं, बल्कि पैसे वालो लोगो के द्वारा किये गए अत्यधिक खरीद कम होने के कारण होता है। परंपरागत रूप से, ज्यादातर लोग जो बड़े व्यापार करते थे और कर बचा लेते थे और जिनके पास जमा की हुई रकम थी (यहाँ भ्रष्टाचार के बारे में बात नहीं कर रहा था, तो मैं वेतनभोगी वर्ग को नजरअंदाज कर रहा हूँ)। रियल स्टेट विनियमन अधिनियम (रेरा) और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को ला कर सरकार ने रणनीतिक रूप से व्यापारी वर्ग पर निशाना जमाया। लोगो को बैंक अकाउंट से आधार को जोड़ने को कहकर सरकार देश के हर व्यक्ति के रिकॉर्ड पर ध्यान रखने को तैयार है। ढीले छोर को सरकार धीरे धीरे बांध रही है और कमियों को बंद कर रही है। हम प्रत्यक्ष रूप से कर दाताओं के बढ़ोतरी देख सकते हैं और लाखों व्यवसाय जो जीएसटी के तहत पंजीकृत हुए हैं उनके पैसे के प्रवाह की लेखापरीक्षा कर सकते हैं। हम तेजी से संरचित अर्थव्यवस्था की और4 बढ़ रहे हैं।

आप अपने आर्थिक ज्ञान या राजनैतिक पूर्वाग्रह के आधार पर विमुद्रीकरण को सफलता या विफलता के रूप में घोषित कर सकते हैं। लेकिन मैं अब यह आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि काले धन के खिलाफ लड़ने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था पहले से बेहतर ढंग से संगठित है। ज्यादातर असंगठित इकाईयां जो जमीन के नीचे काम करते थे अब वो जीएसटी के अंदर आ गए हैं जिसके परिणाम स्वरूप वो सभी कर कानून के दायरे में आ चुके हैं। यह मायने नहीं रखता कि कितना काला धन विमुद्रीकरण के द्वारा पता लगाया जा सकता है, किन्तु हमारा देश काले धन की अगली पीढ़ी से निपटने के लिए बेहतर ढंग से संरचित है क्योंकि देश में सभी पैसों को प्रणाली में अपना रास्ता मिल गया है और वह दर्ज हो चुका है।

तो रिचर्ड एच थैलर का 140 शब्दों का मूल्यांकन का अर्थ विमुद्रीकरण पर अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा लिखे गए पूरी किताब से तुलना करने में बेहतर था। विमुद्रीकरण निश्चित रूप से कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर पहला कदम था और भ्रष्टाचार को कम करने के लिए एक अच्छी शुरआत थी।

Tags: अर्थशास्त्रथैलरनोटबंदीनोबेलरिचर्ड एच थैलरविमुद्रीकरण
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