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फर्श पर एक छेद से लेकर बॉयो टॉयलेट तक- भारतीय रेलवे के शौचालय का सफर

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
11 September 2019
in मत
भारतीय रेलवे
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अरे भाई थोड़ा खिसको मुझे अगले डिब्बे के बाथरूम में जाना है”, एक बूढ़े व्यक्ति ने ट्रेन में आगे जाते हुए कहा। किसी ने पूछा क्या हुआ बाबा इस डब्बे वाले बाथरूम में क्या दिक्कत है? इस पर उस बूढ़े व्यक्ति के जवाब ने मुझे शर्मिंदा कर दिया। उन्होंने कहा कि बाबू तुम भी जानते हो कि भारतीय रेलवे  के शौचालयों की क्या हालात है, लोग शौच तो करते हैं, लेकिन पानी कहाँ डालते हैं?

अक्सर ही ट्रेनों में यात्रा कर रहे यात्रियों को ऐसे हालातों का सामना करना पड़ता है। सबसे जरूरी बात यह कि धरती पर किसी भी सजीव को जीवित रहने के लिए भोजन- पानी के अलावा मल त्याग करना जरूरी है। घर में तो सभी अच्छे से साफ-सुथरे वातावरण में रहना चाहते हैं और उसके लिए शौचालय भी बनवा लेते हैं, लेकिन जब कभी बाहर जाते हैं तो वहां की सफाई का ध्यान नहीं रखते बल्कि उसे और गंदा कर देते हैं। भारत में एक दिन में करोड़ों लोग यात्रा करते हैं। भारत में यात्रा करने का सबसे सस्ता और सुविधाजनक माध्यम ट्रेन है और लगभग 23 मिलियन लोग एक दिन में ट्रेन से एक जगह से दूसरे जगह जाते हैं। अब यात्रा के दौरान भी तो शौच जाते ही हैं, लेकिन ट्रेन में शोचालय की व्यवस्था इतनी बढ़िया नहीं हुआ करती थी।

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पटरियों के किनारे लगेंगे नीले-सफेद ब्लेड, रेलवे को आखिर क्यों लेना पड़ा फैसला?

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ब्रिटिश राज से चले आ रहे ट्रेन में शौच की व्यवस्था ने कई दशकों तक कोई बदलाव नहीं देखा था। परन्तु 2014 के बाद से इस व्यवस्था में क्रमिक विकास देखने को मिला। ट्रेनों में शौचालय की शुरुआत की भी एक कहानी है।
1909 में अखिल चंद्र सेन नाम के एक यात्री ने पश्चिम बंगाल के साहबगंज डिविज़नल कार्यालय को एक अनोखा पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने ट्रेन में शौच न होने की अपनी पीड़ा को बयां किया था।
यह पत्र आज भी दिल्ली के रेल संग्रहालय में मौजूद है।
अखिल चंद्र सेन ने लिखा था,
मान्यवर,
“मैं ट्रेन से अहमदपुर स्टेशन पहुंचा। कटहल खाने से मेरा पेट फूला हुआ था। इसलिए मैं शौच के लिए चला गया, मैं शौच कर ही रहा था कि गार्ड ने सीटी बजा दी, मैं एक हाथ में लोटा और दूसरे में धोती थाम भागा। मैं गिर पड़ा और स्टेशन पर मौजूद पुरुष और महिलाओं सभी ने मुझे देखा। मैं अहमदपुर स्टेशन पर ही छूट गया। यह बहुत ग़लत बात है, अगर यात्री शौच के लिए जाते हैं तब भी गार्ड कुछ मिनटों के लिए ट्रेन नहीं रोकते? इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि गार्ड पर भारी जुर्माना डाला जाए। वर्ना यह ख़बर अख़बार को दे दूंगा।”


इस पत्र के बाद ही यात्रियों को ट्रेनों में शौचालय की सुविधा दे दी गई। हालांकि, जिस शौचालय का निर्माण हुआ वो बेहद घटिया था। हालांकि, समय के साथ इसमें कुछ बदलाव भी हुए परन्तु ये उस तरह के नहीं थे जो वास्तव में किये जाने चाहिए थे।
तो चलिए जानते हैं भारतीय रेलवे के शौचालयों के दौर के बारे में…

शुरूआत में शौच करने के लिए ट्रेन के अंदर किसी एक जगह पर बस एक छेद कर दिया जाता था, जहां सभी यात्री शौच करते थे। फिर आया देसी यानि पायदान वाले शौचालय का दौर जो आज भी लगभग सभी ट्रेनों में मौजूद है। इसके बाद वेस्टर्न शौचालय यानि कमोड की व्यवस्था कर दी गई, जिसमें यात्रियों को और भी ज्यादा परेशानी होती है। इन सभी शौचालय में एक ही बात समान थी और वो ये कि यात्रियों का मल-मूत्र रेल की पटरियों पर गिरता था।

ट्रेन के भीतर बैठे यात्री चाहे खिड़की से बाहर झाँकते हुए खुले में शौच जाने वालों को नीची नजर से देखते हों, लेकिन सवारी डिब्बों के दोनों ओर बने शौचालयों की नालियाँ उनके ठीक नीचे खुलती हैं। रेलगाड़ी के शौचालय के जरिए मल-मूत्र रेलवे की पटरियों पर ही गिरता है। तेज चलती रेलगाड़ी के नीचे हवा से मल-मूत्र पटरी के ऊपर और आसपास बिखर जाता है। हवा इतनी तेज होती है कि मल पिछले डिब्बे के नीचे चिपक जाता है। डिब्बों के रख-रखाव करने वाले कारीगरों का इस गन्दगी का सामना करना पड़ता है, इसके साथ ही ट्रेन के डिब्बों का इस्पात भी कमजोर होता है।

रेलगाड़ी के शौचालयों से निकला पानी धीरे-धीरे रेलवे के डिब्बों के इस्पात को गलाता है। ऐसे डिब्बों की मरम्मत पर रेलवे का खर्चा भी ज्यादा होता है। वैसे शौचालयों में लिखा होता है कि स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में उसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। शौच जाने के वक्त इन सूचनाओं को कौन देखता है। लोग स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में भी शौचालय जाते हैं, जिसके कारण प्लेटफॉर्म के नीचे रेलवे पटरियों पर गंदगी फैल जाती है। इसे साफ करने के लिए रेलवे को काफी मात्रा में पानी भी बर्बाद करना पड़ता है।

पटरी के रख-रखाव का काम करने वाले रेलवे कर्मचारी मल-मूत्र और उसकी बदबू के बीच में अपना काम करते हैं। रेलवे को लगभग डेढ़ लाख सफाई कर्मचारी रखने पड़ते हैं। पटरी और स्लीपर से सूखा मल छुड़ाना आसान नहीं होता। उसे पानी, झाड़ू और हाथ की मेहनत ही हटा पाती है। यह काम कुछ खास जाति और समाज के लोग करते हैं, जिन्हें आए दिन अपमान झेलना पड़ता है। न्यायालयों में हाथ से मैला ढोने की प्रथा पर आय दिन बहस होती रहती है। इसमें रेलवे अधिकारियों को न्यायालय आड़े हाथों लेता है क्योंकि हाथ से मैला ढोने का काम करवाना गैरकानूनी है।

इतना ही नहीं इससे कई तरह की बीमारियाँ जैसे दस्त, हैजा, डायरिया आदि फैलती है। फरवरी 2013 में आई संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में हर साल 15 लाख से अधिक बच्चों की मौत इन बीमारियों की वजह से होती है। ऐसी बीमारियां तभी फैलती हैं जब रोगियों के मल के कण किसी-न-किसी रास्ते होते हुए नए लोगों के संपर्क में पहुँच जाता है। हमारे देश में 100 में से 45 बच्चों के शरीर का विकास ठीक से नहीं हो पाता, जिसका सबसे बड़ा कारण है मल से जुड़ी गन्दगी। दूषित पानी से फैलने वाले रोग हर साल तकरीबन चार करोड़ लोगों को बीमार करते हैं।

भारत ने जब वर्ष 1991 में अपनी सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था की बेड़ियों को तोड़ कर उदरवाद की नीति को अपनाया था तब भी स्वच्छता की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आने वाली सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने भी जीवन की इस बुनियादी जरूरत की ओर ध्यान नहीं दिया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो वर्ष 2014 से पहले किसी ने भी सफाई की ओर ध्यान नहीं दिया। यह प्रधानमंत्री मोदी ही थे जिन्होंने सफाई को एक आंदोलन बना दिया और आम व्यक्ति से लेकर उच्च पद पर बैठे सभी लोगों ने देश में सफाई पर ध्यान देना शुरू किया। यही सफाई अभियान ट्रेनों में भी चले। प्रधानमंत्री मोदी ने बायो-टॉयलेट प्रोजेक्ट को स्वच्छ भारत मिशन के साथ लॉन्च किया था। बायो टॉयलेट, परंपरागत टॉयलेट से अलग एक ऐसा टॉयलेट होता है जिसमें बैक्टेरिया की मदद से मानव मल को पानी और गैस में बदल दिया जाता है। इस प्रक्रिया में पानी की बचत होती है और साथ ही स्टेशन पर भी सफाई रहती है।

अभी तक भारतीय रेलवे के 60,906 ट्रेन के डिब्बों में 2 लाख से अधिक बायो टॉयलेट्स लगाए जा चुके हैं। इसके साथ ही रेल मंत्रालय ने कहा है कि बाकी ट्रेनों में भी इसे लगाने के लिए काम तेज गति से चल रहा है। भारतीय रेलवे की ‘बायो-टॉयलेट परियोजना’ स्वदेशी योजना है जिसे भारतीय रेलवे के इंजीनियरों और DRDO के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया जा रहा है। यही नहीं इस योजना के तहत बायो वैक्युम शौचालय बनाने का भी प्रावधान है। ये प्रयास यदि इसी तरह लगातार जारी रहे तो अगले वर्ष तक भारतीय रेल पूरी तरह से स्वच्छ हो जाएगा। परन्तु सरकार के साथ साथ हमें भी एक अच्छे नागरिक होने का कर्तव्य निभाते हुए शौचालय को साफ रखना होगा।

Tags: बायो टॉयलेटभारतीय रेलवेशौचालयस्वच्छ भारत अभियान
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