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2009 में, हर पार्टी सेक्युलर थी, अब हिन्दू विरोधी पार्टियां भी हिंदुत्व कार्ड खेल रही हैं

Vikrant Thardak द्वारा Vikrant Thardak
12 February 2020
in समीक्षा
हिन्दुत्व
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11 फरवरी को दिल्ली चुनावों के नतीजे सबके सामने आए जिसमें आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर राजधानी में एकतरफा जीत हासिल की। राजनीतिक जानकारों ने दावा किया कि ये चुनाव काम पर लड़ा गया और दिल्ली की जनता ने हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे रखने वाली भाजपा को जोरदार पटखनी दी। हालांकि, ऐसे लोग यह भूल गए कि चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में ये केजरीवाल थे जिन्होंने हिन्दुत्व कार्ड खेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। केजरीवाल का LIVE TV चैनल पर बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ करना हो, या फिर उनकी बेटी का सामने आकर गीता का पाठ करने की बात कहना हो, केजरीवाल ने भी अपने आप को सच्चा हिन्दू दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

इन चुनावों के बाद एक बार फिर यह बात साबित हो गयी है कि अब अगर आपको चुनावों में जीतना है, तो आपको देश के बहुसंख्यक हिंदुओं के पक्ष में बात करनी ही होगी, यानि हिंदुओं को आप फॉर granted नहीं ले सकते। भारत की राजनीति में वर्ष 2014 तक यही तो होता आया था। हिन्दू वोटर तो जातियों में बंटा था, इसलिए मुस्लिम वोटों को हासिल करने के लिए जमकर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की जाती थी। UPA-2 शासन काल के दौरान तो कांग्रेस के अति-सेक्युलर नेताओं ने हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक ही समझ लिया था।

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वर्ष 2006 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिया गया एक बेहद विवादित बयान भला कौन भूल सकता है? तब उन्होंने कहा था कि ‘मुस्लिमों का सशक्तिकरण होना आवश्यक है और देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का ही है’। इसके अलावा वर्ष 2007 में कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में दायर किए एक हलफनामे में इस बात को भी स्वीकार किया था कि भगवान राम मात्र एक काल्पनिक चरित्र हैं, और यह कहकर इस पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के केस को कमजोर करने की कोशिश की।

कांग्रेस के हिन्दू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण की कहानी सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती। हम वर्ष 2010 में कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के हिन्दू आतंकवाद वाले बयान को भी नहीं भूल सकते। तब उन्होंने मालेगांव ब्लास्ट के पीछे तथाकथित हिन्दूवादी आतंकियों का हाथ होने की आशंका जताई थी। जब विवाद बढ़ा तो वे बड़ी ही आसानी से अपने बयान से मुकर गए। देश में हिन्दू बहुल आबादी होने के बावजूद कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया? कांग्रेस को पता था कि हिन्दू तो जातियों में बंटा है, और मुस्लिम वोट्स को आसानी से हासिल करने का यह अच्छा तरीका है।

वर्ष 2012-13 में जब गुजरात के तत्कालीन CM नरेंद्र मोदी का एक हिन्दू और विकासवादी नेता के तौर पर उदय हुआ, तो ऐसा पहली बार लगा मानो सभी हिंदुओं ने एकजुट होकर वोट डाला। उसके बाद से हिंदुओं ने बड़े बड़े कथित सेक्युलर नेताओं के हाथों की कठपुतली बनना छोड़ दिया जिसका नतीजा यह निकला कि देश में भाजपा का जबरदस्त उदय हुआ। वर्ष 2014 में भाजपा की एकतरफा जीत से लेकर देश के अलग-अलग राज्यों में भाजपा सरकार आने से यह स्पष्ट हो गया कि अब देश में मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है।

हालांकि, देश की कुछ तथाकथित सेकुलर पार्टी अभी भी देश के इन नए राजनीतिक समीकरणों को समझ नहीं पाई थीं। वर्ष 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव इन सब के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। देश की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले राज्य में हिन्दुत्व के एजेंडे के साथ उतरी भाजपा ने चुनावी नतीजों में सबको चौंका दिया।

भाजपा ने 384 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें से पार्टी को 312 पर जीत मिली। इससे भाजपा के विरोधियों को एक बात समझ में आ गयी कि अब चुनावों में उनका सेक्युलर कार्ड नहीं चलने वाला। उसके बाद जब उसी साल दिसंबर में गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए, तो हमें  सॉफ्ट हिंदुत्व वाले राहुल गांधी देखने को मिले। राहुल गांधी एकदम जनेऊधारी हिन्दू के रूप में दिखाई देने लगे, यहां तक कि उनका दत्तात्रेय गोत्र भी सार्वजनिक हो गया। उन चुनावों में राहुल गांधी का टैम्पल रन सबने देखा।

इसके बाद वर्ष 2018 में जब मध्य प्रदेश में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने बड़ा ही हैरानी भरा वादा किया कि अगर वे चुनाव जीते तो राज्य में गौशाला का निर्माण करवाएँगे। दूसरी तरफ यह भी सच ही था कि वर्ष 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने निहत्थे गौरक्षकों पर गोलियां चलवा दी थी। कांग्रेस पार्टी के हिंदुओं के प्रति रुख में इस बड़े बदलाव का सबसे बड़ा कारण पीएम मोदी का हिन्दुत्व वाला एजेंडा ही था, जिससे सभी विपक्षी पार्टियों का जनाधार पूरी तरह हिल गया था। वर्ष 2019 के चुनाव में पीएम मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की जीत का सबसे बड़ा कारण भी हिंदुओं की एकता ही थी। यूपी से लेकर हरियाणा तक, बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक, सब राज्यों के वोटर्स ने जात-पात से ऊपर उठकर BJP को वोट दिया और भाजपा को वर्ष 2014 से भी बड़ा बहुमत मिला। हाल ही में सम्पन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान भी केजरीवाल ने बड़ी ही चालाकी से सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेला। उन्होंने एक बार भी भाजपा के राष्ट्रवाद के एजेंडे के विरोध में कुछ नहीं बोला। ये वही केजरीवाल हैं जो वर्ष 2016 में मुस्लिमों को लुभाने के लिए पटियाला में मुस्लिमों के बीच जाकर स्कल कैप लगाकर फोटो खिंचवा रहे थे। इन चुनावों में केजरीवाल के सिर पर कोई टोपी दिखी क्या?

ममता बनर्जी का हिन्दू विरोध भी सब ने देखा था। उन्हीं के राज में पश्चिम बंगाल में हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया था। यहां तक कि दुर्गा आरती पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन अब वे ना सिर्फ स्वयं दुर्गा आरती के आयोजनों में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं बल्कि उन्होंने मुस्लिमों को लुभाने वाली राजनीति को कब का छोड़ दिया है। मतलब ये है कि कल तक हिन्दू विरोधी रही ममता बनर्जी अब हिंदुत्व का कार्ड खेल रही हैं राज्य में हिन्दू मतदाताओं को लुभाने के लिए।

स्पष्ट है कि अब भारत की राजनीति से वो दिन हमेशा के लिए चले गए हैं जब मात्र मुस्लिम वोटर्स को लुभाने के लिए हिंदुओं को बदनाम करने की राजनीति की जा रही थी। अब चुनाव के नियम बदल चुके हैं, अब कोई हिंदुओं के वोट्स को फॉर ग्रांटेड  नहीं ले सकता। अगर किसी पार्टी को हिंदुओं के वोट्स चाहिए तो उसे हिंदुओं के पक्ष में बोलना ही होगा। केजरीवाल इसे अच्छे से समझ चुके हैं और इसीलिए वे दिल्ली में अपनी सत्ता बचान में सफल हो पाये हैं, वहीं जो अभी भी सेक्युलर होने का राग अलाप रहा है, उसे इस देश की जनता ने सिरे से नकार दिया है।

Tags: अरविंद केजरीवालमुस्लिम तुष्टिकरणराहुल गाँधीहिंदुत्वहिन्दू धर्म
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