दक्षिण भारत के कद्दावर नेता और अपनी भाषाई तथा जातिगत राजनीति के लिए उत्तर और दक्षिण भारत को बांटने का प्रयत्न करने वाले एम करुणानिधि को अब उनके पुत्र एम के स्टालिन ने 39 करोड़ रुपये की लागत से करुणानिधि के स्मारक बनाने की घोषणा की है। करुणानिधि को उनके निधन उपरांत देश को किए ऐसे किसी योगदान के लिए शायद ही कभी याद किया हो, न ही उन्होंने राज्यों को जोड़ने के कोई प्रयास किए थे और न ही भाषाई सीमा को समाप्त करने का कोई सुझाव ढूंढा। हालांकि, उन्होंने समाज को बांटने में जरूर योगदान दिया था।
क्षेत्र और भाषा विशेष राजनीति ही करुणानिधि की राजनीति का प्रमुख कारक था जो उन्हें यश, प्रसिद्धि और राजनीतिक ऊंचाइयों को प्राप्त करने में सर्वाधिक सहायक रहा। आज करुणानिधि के ऐसे ही कुकर्मों को तर्कसंगत और वैध बानने के लिए स्मारक बनवाया जा राहा है। यह विडम्बना ही है कि समाज में वर्गों के बीच में जातीयता, भाषा और क्षेत्रवाद के आधार पर फूट डालने पर गर्व किया जा रहा है। तरुणावस्था में ही वे ई वी रामास्वामी ‘पेरियार’ के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसी समय से इस भाव को अपनी अंतिम समय तक विरोध के रूप में जिंदा रखा।
वहीं अब जब स्टालिन ने अपने पिता करुणानिधि के लिए 36 करोड़ की लागत वाले स्मृति चिन्ह के रूप में बनाए जाने वाले स्मारक की घोषणा कर दी है तब तमिलनाडु की विपक्षी पार्टी भी उनके समर्थन में खड़ी दिखाई दे रही है। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि वोट बैंक है।
जिस राजनीतिक व्यक्ति ने अपने शासनकाल में मात्र भाषाई आधार पर लोगों में विद्वेष फैलाने का काम किया हो, परोक्ष रूप से भाषाई आधार पर अपने खुद के देश तक की मांग की हो, ऐसे व्यक्ति के लिए करुणानिधि के बेटे स्टालिन के अतिरिक्त और कौन सी सरकार स्मारक बनाने का कदम उठाने का निर्णय लेती।
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ज्ञात हो कि, करुणानिधि के स्मारक पर मौन रहने वाले तमाम विपक्षी तब उग्र थे जब गुजरात में Statue of Unity का काम पूरा हुआ था। इन्हीं लोगों ने तब कहा था कि इसके माध्यम से सरकार लागत जितना भी वसूल नहीं कर पाएगी। इस पर्यटन स्थल में अक्तूबर 2018 में शुरुआत के बाद एक वर्ष के भीतर इसने 82 करोड़ की कमाई की थी, और कोरोना काल की वजह से पर्यटकों की संख्या में कमी देखी गई पर पर्यटकों ने यहाँ आना नहीं छोड़ा।
सबसे बड़ी बात सरदार वल्लभ भाई पटेल, देश के लौह पुरुष जिन्होंने निस्वार्थ भाव से स्वतंत्रता के बाद, पटेल ने देश को मजबूत करने की दिशा में 500 से अधिक रियासतों को भारत में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ऐसे में उनके समय विरोध प्रकट वाले विपक्षी इस पर ऐसे शांत बैठा है जैसे साँप सूंघ गया हो।
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करुणानिधि ने दशकों तक उत्तर भारत के लोगों के खिलाफ विष उगलते रहे। हिंदी को लेकर हठ और विरोध सबके समक्ष निरंतर देखने को मिल ही जाता था। ध्यान केंद्रित करें तो राजनीति में करुणानिधि का उदय और शिखर पर पहुंचना भाषा विरोध के नाम पर पनपी राजनीति से ही हुआ था। भाषा से चिढ़ के साथ ही करुणानिधि उन नेताओं में आते थे जिन्हें हिन्दू रीति-नीति से कभी कोई सरोकार तो रहा नहीं पर हिन्दू देवी देवताओं, हिंदुओं के आराध्य प्रभु श्रीराम को लेकर उनके भद्दे बयान काफी प्रचलित रहे हैं।
उन बयानों में एक बयान सितंबर 2007 में दिया गया था। तब उन्होंने कहा, “लोग कहते हैं कि 17 लाख साल पहले एक आदमी हुआ था। उसका नाम राम था। उसके बनाए पुल (रामसेतु) को हाथ ना लगायें। कौन था ये राम? किस इंजीनियरिंग कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ था? कहां है इसका सबूत?”
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ऐसी विभत्स सोच वाले करुणानिधि को अब उनके बेटे 39 करोड़ की स्मारक के लिए राज्य के कोषागृह से निकले धन की स्वीकृति भी दे चुके हैं पर क्या करुणानिधि इस उदारता और सम्मान के वास्तव में असल अधिकारी हैं। यह जवाब हम सबको अपनी अंतरात्मा से अवश्य पूछना चाहिए और निस्संदेह वो उत्तर “न” ही होगा।