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गरीबपुर का युद्ध – जब भारत के शौर्य के समक्ष तितर बितर हो गए पाकिस्तानी

भारत के पराक्रम का प्रतीक है गरीबपुर का युद्ध

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
20 November 2021
in ज्ञान
गरीबपुर युद्ध

Source- Google

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“अगर अब भी आप चाहती हैं कि हम ईस्ट पाकिस्तान में दाखिल हों, तो मैं आपको शत प्रतिशत गारंटी देता हूं हार की!”

ये शब्द थे तत्कालीन भारतीय थलसेना के अध्यक्ष, जनरल सैम मानेकशॉ के, जिन्होंने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की चिंता का सैन्य समाधान निकालने के विषय पर अपने विचार स्पष्ट रखे थे। स्वयं जनरल मानेकशॉ के शब्दों में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चेहरा गुस्से से लाल हो चुका था। उन्होंने अकेले में बात करने के लिए उन्हें रोका। जनरल मानेकशॉ ने त्यागपत्र देने का प्रस्ताव रखा तो इंदिरा गांधी ने उन्हें शांत कराकर उनसे वास्तविकता पूछी। जनरल सैम ने स्पष्ट कहा, “मेरा काम है जीतने के लिए लड़ना, हारने के लिए नहीं। अगर लड़ाई के लिए उचित समय दिया गया, तो विजय हमारी ही होगी!” आज के दिन ही सन् 1971 के उस ऐतिहासिक विजय की नींव एक युद्ध में पड़ी थी, जिसकी तैयारी अप्रैल 1971 से ही प्रारंभ हो चुकी थी।

कट्टरपंथियों ने पूर्वी पाकिस्तान में लगा दिया था मार्शल लॉ

मौजूदा समय में भारत के पराक्रम का प्रताप केवल दक्षिण एशिया में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में है। भारत के शौर्य का लोहा तो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे शक्तिशाली देश भी मानते हैं। चीन जैसे कथित महाशक्ति को आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर हमने ऐसी धूल चटाई है कि आज भी वह इस बात को खुलेआम स्वीकारने से कतराता है। परंतु इन सबकी नींव पड़ी थी गरीबपुर के युद्ध से, जो भारत और बांग्लादेश के पराक्रम का प्रतीक भी है और जिसकी कहानी आरंभ हुई थी सन् 1970 के पाकिस्तानी आम चुनावों से।

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अब आप भी सोच रहे होंगे कि भारत का विकास और पाकिस्तान के चुनाव से क्या लेना देना? दरअसल, सन् 1970 के आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान में कद्दावर नेता शेख मुजीबुर्रहमान ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और उनके सीटों की संख्या इतनी थी कि उन्होंने पाकिस्तान के आम चुनावों में भी बहुमत प्राप्त किया और सरकार बनाने का दावा पेश किया।

परंतु, पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान और पश्चिमी पाकिस्तान के कट्टरपंथी नेता जुल्फिकार अली भुट्टो के लिए एक पूर्वी पाकिस्तान के नेता द्वारा शासन संभालना असहनीय था। उन्होंने न केवल सत्ता सौंपने से मना कर दिया, अपितु सम्पूर्ण पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में मार्शल लॉ भी लगा दिया।

और पढ़ें : पाकिस्तान की भारत से घृणा स्वाभाविक है, परंतु भुट्टो परिवार के लिए ये दुश्मनी पर्सनल है!

बांग्लादेश से भागने लगे थे हिंदू शरणार्थी

जब पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला भाषी निवासियों का विरोध चरमोत्कर्ष पर था, तो इससे बौखलाए पाकिस्तानियों ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ चलाया, जिसकी वीभत्सता को पढ़कर आपको हिटलर और स्टालिन भी देवता समान लगेंगे! पाकिस्तान के अत्याचारों से तंग आकर भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान के निवासी, विशेषकर हिन्दू शरणार्थी भारत में आकर शरण लेने लगे। भारत ने इस समस्या को हर मंच पर उठाने का प्रयास किया, पर किसी ने उसकी एक नहीं सुनी। ऐसे में एक ही विकल्प बचा था – युद्ध।

जनरल सैम मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी को इस बात के लिए तो मना लिया कि युद्ध के लिए समय चाहिए, परंतु उसके पीछे भी एक ठोस कारण था। यह वो समय था जब देश में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानि रॉ की स्थापना हुई थी। इस एजेंसी और भारतीय सुरक्षाबलों के संयुक्त नेतृत्व में मुक्ति वाहिनी के क्रांतिकारियों को अतिरिक्त सहायता दी जाने लगी, ताकि वे युद्ध लड़ने योग्य हो सके। उन्होंने न केवल मुक्ति वाहिनी को लड़ने योग्य बनाया, अपितु पूर्वी मोर्चे को भी अपने लिए सशक्त बनाया, जिसमें लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह राठौड़ की महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये वही सगत सिंह हैं, जिन्होंने 1967 में बतौर मेजर जनरल चीन के विरुद्ध नाथू ला के मोर्चे पर भारतीय सेना का नेतृत्व किया था, और उन्हें पटक-पटक कर धोया भी था।

गरीबपुर के युद्ध में हुई थी भारत की प्रचंड जीत

फिर आया युद्ध का दिन– 20 नवंबर 1971। पाकिस्तान को जब आभास हुआ कि मुक्ति वाहिनी पहले जितनी कमज़ोर नहीं है, तो उन्होंने गरीबपुर में ठहरे कुछ क्रांतिकारियों पर टैंक सहित धावा बोल दिया। परंतु वो कहते हैं न, जोश में होश नहीं खोते। पाकिस्तानियों को तनिक भी आभास नहीं था कि वहां भारतीय सेना पहले से ही अत्याधुनिक पीटी 76 टैंकों के साथ उनके स्वागत में तैयार बैठी थी। ये टैंक प्रभावी होने के साथ-साथ इतने हल्के थे, जैसे तालाब पर तैरते घी के डब्बे, जिन्हें पंजाबी में ‘पिप्पा’ बोला जाता था।

और पढ़ें: हवलदार मेजर निहाल सिंह- वो भारतीय सैनिक जो रेजांग ला युद्ध के बाद चीन की कैद से भाग निकले

लेफ्टिनेंट कर्नल डी एस जामवाल के नेतृत्व में भारतीय सेना की टैंक रेजीमेंट, विशेषकर 14 पंजाब रेजीमेंट पाकिस्तानी सेना के स्वागत में तैयार खड़ी थी। पाकिस्तान के पास अत्याधुनिक M24 Chaffee टैंक थे, परंतु पीटी 76 की चपलता के आगे वे एक क्षण भी नहीं टिक पाए। पाकिस्तान के लिए कोढ़ में खाज ये भी था कि गरीबपुर में उस समय धुंध छाई हुई थी, जिससे उन्हें ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था –

The Indian military had employed PT-76 tanks which were superior than M24 Chaffee tanks. 8 Chaffe tanks belonging to Pakistan army were destroyed and 3 were captured.

— Animesh Pandey (Modi Ka Parivar) 🇮🇳 (@PandeySpeaking) November 19, 2020

दुम दबाकर भाग गया था पाकिस्तान

इस युद्ध में भारत और बांग्लादेश की प्रचंड विजय हुई और पाकिस्तान स्वभाव अनुसार दुम दबाकर भाग गया। 8 Chaffee टैंक ध्वस्त किए गए और भारत ने 3 टैंकों को अपने नियंत्रण में ले लिया। गरीबपुर के युद्ध में भारत को भी काफी नुकसान हुआ। संयुक्त कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल टी एस सिद्धू बुरी तरह घायल हुए, जबकि शत्रुओं से लड़ते हुए मेजर दलजीत सिंह नारंग वीरगति को प्राप्त हुए। बाद में उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

गरीबपुर के 1971 के युद्ध में भारत के प्रचंड विजय और भारतीय पराक्रम की नींव रखी और जल्द ही ये अब सिल्वर स्क्रीन पर भी आएगी। गरीबपुर के युद्ध में भाग लेने वाले तत्कालीन कैप्टन बलराम सिंह मेहता के संस्मरण ‘The Burning Chaffees’ पर ‘एयरलिफ्ट’ के निदेशक राजा कृष्ण मेनन जल्द ही ‘Pippa’ लेकर आ रहे हैं, जिसमें ईशान खट्टर कैप्टन बलराम मेहता की भूमिका में दिखाई देंगे। उम्मीद जताई जा रही है कि यह फिल्म हमारे देश के शौर्य के साथ वैसे ही न्याय करेगी, जैसे विष्णुवर्धन ने कैप्टन विक्रम बत्रा के साथ ‘शेरशाह’ में किया।

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Tags: गरीबपुर का युद्धबांग्लादेशभारत
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