1962 के भारत चीन युद्ध से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। इस युद्ध ने कई मायनों में हमारे नेत्र खोले थे। इस युद्ध ने देश को अवगत कराया था कि केवल अहिंसा और प्रेम के बल पर सब कार्य नहीं होते। इस युद्ध ने देश को कहीं न कहीं नीतिगत पंगुता से परिचित कराया था, जिसके जनक थे जवाहरलाल नेहरू।
परंतु इस युद्ध की नींव कब पड़ी? कई कहेंगे कि इस युद्ध कि नींव पड़ी थी 1950 में, जब तिब्बत पर चीन ने आक्रमण किया। कई का मानना होगा कि इस युद्ध की नींव पड़ी थी पंचशील समझौते से। परंतु आधिकारिक रूप से इस युद्ध की नींव पड़ी 30 मार्च 1959 को, जब एक व्यक्ति ने भारत में शरण ली, और वहीं से चीन और भारत में तनातनी का वो युग प्रारंभ हुआ जो अंत में युद्ध में परिवर्तित हुआ।
यह व्यक्ति कोई और नहीं, तिब्बत के धर्मगुरु, दलाई लामा हैं, जिनका मूल नाम है टेनजिंग ग्योत्सो [Tenzin Gyotso]। कुछ लोग इन्हे लामो थोन्डुप [Lhamo Thondup] के नाम से भी जानते हैं। इनका जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के Taktser क्षेत्र में हुआ था। इनके जन्म के समय ही तिब्बत के तत्कालीन अध्यक्ष एवं 13 वें दलाई लामा का आकस्मिक निधन, और उनके उत्तराधिकारी को चुनने के लिए तत्कालीन [उपराष्ट्रपति] पाँचेन लामा, Thubten Nyima को एक लंबी यात्रा करनी पड़ी। बौद्धिक रीतियों के अनुसार एक विशिष्ट बालक ही तिब्बत का उत्तराधिकारी होगा, और जल्द ही वे Amdo प्रांत पहुंचे, जहां वर्तमान दलाई लामा का गृह निवास स्थित था।
मात्र 4 वर्ष की आयु में टेनजिंग ग्योत्सो तिब्बत के 14वें धार्मिक राष्ट्रपति यानि दलाई लामा बन चुके थे। उन्होंने अपना बचपन तिब्बत के राजधानी ल्हासा के भव्य Potala Palace में बिताया, परंतु 1950 में उन्होंने आधिकारिक रूप से तिब्बत का शासन संभालने का निर्णय, जब वे मात्र 15 वर्ष के थे। परंतु उन्हे क्या पता था कि परिस्थितियों में कितना परिवर्तन आ चुका था।
चीन पर अब चीनी राष्ट्रवादी पार्टी यानि Kuomintang का नहीं, माओ जेडोंग के कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था। उन्होंने जल्द ही तिब्बत पर आक्रमण किया, और उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। तब तिब्बत में शासन दलाई लामा के हाथ में था, और तत्कालीन पाँचेन लामा भी मात्र 12 वर्ष के थे। तिब्बत अब पूर्णतया चीन के अधीन था।
तिब्बत में चीन की गतिविधियों को बढ़ता देख भारत के गृह मंत्री सरदार पटेल काफी समय से चिंतित थे। बात केवल साम्राज्यवाद के प्रकोप की नहीं थी, बात थी भारत के अक्षुण्णता की। इस दृष्टिकोण से उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अनेकों बार चेताने का प्रयास भी किया –
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सरदार पटेल के पत्र के अंश अनुसार,
“तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था, इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर हमेशा उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।”
चीन की आक्रमणकारी नीति के बारे में बताते हुए आगे लिखते है, “चीन की कुदृष्टि हमारे हिमालयी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है, क्योंकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है, जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं’।
लेकिन जिस व्यक्ति के लिए निजाम शाही के चंगुल से हैदराबाद प्रांत को छुड़ाने से अधिक अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि चमकाना महत्वपूर्ण हो, वो राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी छोटी बातों पर क्यों ध्यान देता? सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के विचार से सहमत नहीं थे लेकिन इसी ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ विचार के कारण नेहरू जी गुमराह हो चुके थे। वह यह मानने लगे थे कि यदि भारत तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता है, तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जायेंगे। इसीलिए जब 1956 में दलाई लामा ने प्रथमत्या भारत से शरण मांगी, तो नेहरू ने ये कहकर मना कर दिया कि इससे हमारे चीन के साथ ‘मैत्रीपूर्ण संबंध’ बिगड़ जाएंगे।
जी हाँ। एक वास्तविक शरणार्थी को सिर्फ इसलिए शरण देने से मना कर दिया गया क्योंकि वह अपने ‘मित्र’ चीन को नाराज नहीं करना चाहता था। परंतु इसका परिणाम क्या मिला, हम सभी जानते हैं।
अब 1959 में तिब्बत में चीन के विरुद्ध विद्रोह हुआ, जिसे कुचलने के लिए चीनी प्रशासन ने कमर कस ली थी। तिब्बती विद्रोहियों की कमर तोड़ने का एक ही उपाय था – दलाई लामा का अंत। लेकिन दलाई लामा को संयोगवश भनक पड़ चुकी थी, और वे शीघ्र ही तिब्बत से निकलने की योजना बना चुके थे।
लेकिन CCP के गुप्तचरों को भ्रम में रखना इतना सरल था, और ऐसे में आश्चर्यजनक रूप से CIA की एक विशेष टुकड़ी दलाई लामा की सहायता के लिए आगे आई। आखिरकार 30 मार्च 1959 को CCP की पहुँच से बाहर निकल दलाई लामा भारत में प्रवेश किये, और उन्होंने असम के तेजपुर में शरण ली। फ़िर पहले मसूरी और बाद में 1960 में जाकर धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित शासन की स्थापना भी की।
यहीं से कहीं न कहीं आधिकारिक रूप से भारत और चीन के बीच युद्ध की आधिकारिक नींव पड़ चुकी थी। चीन तो पहले ही अक्साई चिन पर दृष्टि गड़ाए हुए था, लेकिन अब उसके पास पूरा बहाना था, और रही सही कसर पीएम नेहरू की अदूरदर्शिता ने पूरी कर दी।
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