लहर में लहर मोदी लहर! वर्ष 2014 के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी चुनावों को एक ही लहर के बूते पर जीतती आई है, वो है मोदी लहर। जीते भी क्यों न आज उस पार्टी के पास वो नेतृत्व है जिसका लोहा देश क्या विश्व भी नतमस्तक होकर मानता है। ऐसे में यदि उस नेता की कार्यशैली चुनावी लहर में तब्दील हो रही हो और वो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर रही हो तो कोई क्यों ही इस लहर का उपयोग करने से स्वयं को वंचित करेगा, खासकर भाजपा और उसके घटक दल। एक ओर जहां वर्ष 2014 के बाद से अनेकों चुनावी परिणामों में लहर बड़े प्रभावी ढंग से दिख रही है तो वहीं कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां लहर और समीकरण दोनों ही काम नहीं आ पाए क्योंकि कई भाजपा शासित राज्यों के प्रमुख चेहरे रघुवर दास सिंड्रोम से पीड़ित हैं तो कोई अपनी कार्यशैली को प्रभावी नहीं बना पाने के त्रास से जूझ रहा है। ऐसा ही एक और राज्य है छत्तीसगढ़, जहां वर्तमान में कांग्रेस सरकार है और उस राज्य में चुनाव निकट हैं। छत्तीसगढ़ में भी इस बार पुनः यही आंकलन सामने आ रहा है कि भाजपा को हर जगह चुनाव जिताने के लिए सिर्फ पीएम नरेंद्र मोदी ही काफी नहीं होंगे।
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छत्तीसगढ़ में बदतर हो सकती है स्थिति
दरअसल, गुरुवार को भाजपा आलकमान ने दिल्ली में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कोर समूहों के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक की। मध्यप्रदेश की बैठक में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा, महासचिव (संगठन) बी एल संतोष और पार्टी के राज्य प्रभारी पी मुरलीधर राव सहित राज्य के नेताओं ने भाग लिया, जिसमें परिषद में रिक्तियों को भरने जैसे तैयारी कार्यों में तेजी लाने का निर्णय लिया। छत्तीसगढ़ में जहां पार्टी विपक्ष में है और वहां स्थिति अलग है। राज्य इकाई ने पुनरुद्धार का कोई संकेत नहीं दिखाया है, एक गुट ने तो ये भी आरोप लगाया है कि पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के नेतृत्व वाला प्रमुख गुट दूसरों को विश्वास में लेता ही नहीं।
यूं तो वर्ष 2018 की करारी चुनावी हार के बाद से ही छत्तीसगढ़ में भाजपा नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट होती है पर आंतरिक गुटबाजी हावी होने के कारण सारे समीकरण ध्वस्त हो जाते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ रमन सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में उन्हें करारी हार मिलने के साथ ही उनकी कार्यशैली में रह गई कमी में सबसे बड़ी कमी यह निकल कर सामने आई कि वो रघुवर दास सिंड्रोम से ग्रसित थे। जब तक रमन सिंह बतौर मुख्यमंत्री सत्ता में थे उनके कार्यकाल में केंद्र सरकार की कई सफल योजनाओं को लागू किया गया था, जिसका फायदा आम जनता को मिला था। यहां तक कि किसान भी उनके नेतृत्व से खुश थे। चूंकि वो रघुवर दास सिंड्रोम से ग्रसित होने के कारण अपने कार्यकाल में किये गये विकास पूर्ण कार्यों का सही तरह से प्रचार नहीं कर पाए और कहीं न कहीं जनता से उनके जुड़ाव में कमी पाई गई, ऐसे में जनता ने उन्हें नकार दिया।
राज्य स्तर पर भाजपा की गुटबाजी
रघुवर दास सिंड्रोम तो उनके पतन का एक कारण है, इसके अलावा अन्य कारण भी हैं जो राज्य में भाजपा की हार के बाद विस्फोटक के रूप में सबके सामने आए। हर पार्टी अपने नेता और संगठनात्मक ढांचे के कारण सफलता और असफलता हासिल करती है। राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तर पर दोनों ही हाथों में भाजपा के लड्डू थे, पर नीचले बूथ स्तर पर संगठन गुटबाजी और कलह का शिकार था, जिसका असर सीधे तौर पर चुनावी परिणाम में देखने को मिला। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2018 में पार्टी राज्य की 49 सीटों में से सिर्फ 15 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई।
ऐसे में यह तो सिद्ध हो गया कि नेतृत्व तो है ही, पर जब तक धरातल पर संगठन नीचले स्तर तक पहुंच बनाकर नहीं रखता है या गुटबाजी का शिकार होता है तो परिणाम न कोई लहर बदल पाएगी न ही आंधी। दिल्ली को ही देख लीजिये, बीते 25 सालों से राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता का वनवास काट रही भारतीय जनता पार्टी बीते दो विधानसभा चुनावों क्रमशः 2015 और 2020 दोनों में ही बुरी तरह से पराजित हुई है। 70 विधानसभा सदस्यीय दिल्ली विधाभसभा में भाजपा 2 अंकों का भी आंकड़ा हासिल नहीं कर पाई है। भाजपा ने वर्ष 2015 में 3 तो वर्ष 2020 में 8 सीटों पर जीत हासिल की थी और इसका एक ही कारण था संगठन में आंतरिक कलह और गुटबाजी, जिसका लाभ आम आदमी पार्टी बड़े चाव से उठा ले गई।
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सिर्फ पीएम मोदी का चेहरा ही क्यों?
यदि भाजपा की आंतरिक कलह का लाभ दिल्ली में जन्मीं 10 साल पुरानी पार्टी “AAP” यूं ही उठा ले रही तो ऐसा कुछ छत्तीसगढ़ में भाजपा भी कर सकती थी। यह सर्वविदित है कि भाजपा राज्य में कांग्रेस सरकार के आंतरिक मतभेदों या शासन की विफलताओं का उपयोग करने में सक्षम नहीं है। मौजूदा नेतृत्व न केवल मतदाताओं का विश्वास हासिल करने में विफल रहा है, बल्कि संगठन में भी सभी को साथ लेकर चलने में विफल दिखाई दे रहा है। जिस भूपेश बघेल सरकार की गुटबाजी बीते वर्ष बीच बाजार थी, भाजपा उसका लेश मात्र भी उपयोग नहीं कर पाई। यदि डॉ रमन सिंह राज्य इकाई के साथ बघेल और टी एस सिंह देब की कलह को अपने फायदे के लिए भुना पाते तो शायद हाल ही में हुआ विधानसभा उप चुनाव भाजपा जीतती, न कि कांग्रेस। खैरागढ़ उपचुनाव में हालिया हार, जिसे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा विधानसभा चुनाव के लिए सेमीफाइनल करार दिया गया था, ने राज्य नेतृत्व की स्थिति को अनिश्चित बना दिया है।
यही कारण है कि आगामी 2023 के राज्य विधाभसभा चुनाव पर ध्यान केंद्रीत करते हुए यह अनुमान लगया गया है कि राज्य इकाई का एक वर्ग रमन सिंह का कड़ा विरोध करने के साथ ही राष्ट्रीय नेतृत्व में मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना [छत्तीसगढ़ में] चुनाव में जाने का विकल्प चुन सकता है। इस महीने की शुरुआत में, राष्ट्रीय पार्टी नेतृत्व ने राजस्थान के कोर ग्रुप नेताओं के साथ इसी तरह की बैठक में संकेत दिया था कि भाजपा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा किए बिना चुनाव में जा सकती है। ऐसे में अब लहर पर निर्भर न होते हुए भाजपा को संगठन को भुनाने की कोशिशों पर ध्यान आकर्षित करना चाहिए, क्योंकि भाजपा को हर जगह चुनाव जिताने के लिए सिर्फ पीएम मोदी ही तारणहार नहीं बनेंगे, यह स्पष्ट हो चुका है!
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