कौन कहता है कि प्रतिभावान लोगों से गलतियां नहीं हो सकती हैं? जब से देश में मोदी सरकार पधारी है, अच्छे से अच्छे फ़न्ने खां को बनराकस बनते और बड़े से बड़े बुद्धिजीवियों को विरोध के नाम पर अपना दिमागी दिवालियापन दिखाते हुए देखा गया है।
अब एक नौटंकी से अधिक कुछ भी नहीं हैं नसीरुद्दीन
इस लेख में उस व्यक्ति के जीवन पर प्रकाश डालेंगे जो कभी देश के सबसे चर्चित कलाकारों में से एक थे, परंतु अब एक मज़ाक, एक नौटंकी से अधिक कुछ भी नहीं है। ये कथा है नसीरुद्दीन शाह की, जो कभी स्टार एक्टर्स में गिने जाते थे और जिनकी गिनती कभी ऑस्कर के दावेदारों में की जाती थी, परंतु आजकल इनकी औकात स्वरा भास्कर और ऋचा चड्डा जैसे बकैतों से अधिक नहीं है।
एक समय वेनिस फिल्म फेस्टिवल, नेशनल फिल्म अवार्ड्स, फिल्मफेयर अवार्ड्स इत्यादि में धूम मचाने वाले अचानक से फिल्म इंडस्ट्री के रवीश कुमार कैसे बन गए? ये कथा बड़ी विचित्र और रोचक है। 20 जुलाई 1950 को बाराबंकी में पैदा हुए नसीरुद्दीन शाह एक धनाढ्य परिवार से संबंधित थे। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा सेंट एनसेम स्कूल अजमेर एवं सेंट जोसेफ स्कूल नैनीताल से ग्रहण की। तद्पश्चात उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एवं नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अपनी शिक्षा ग्रहण की। इनके संबंधी, लेफ्टिनेंट जनरल जमीरउद्दीन शाह ने भारतीय सेना को भी अपनी सेवाएं दी थीं, वो अलग बात है कि उनके अपने अलग एजेंडे भी थे।
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नसीरुद्दीन शाह ने प्रारंभ समानांतर सिनेमा से किया था, वे श्याम बेनेगल एवं गोविंद निहलानी के फिल्मों के सबसे चर्चित चेहरे बन गए। निशांत, आक्रोश, स्पर्श, मिर्च मसाला, त्रिकाल, जुनून, इत्यादि में उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। परंतु जाने भी दो यारों से जो सफलता और प्रसिद्धि का स्वाद उन्होंने चखा, उसके पश्चात उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
नसीरुद्दीन ने फिर व्यवसायिक एवं आर्ट, दोनों में ही बराबर ध्यान दिया एवं अनेकों पुरस्कार प्राप्त किए। इन्हें इनकी सेवाओं के लिए पद्म भूषण एवं पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया। परंतु इनकी अभिनय का शिखर लोगों ने तब देखा जब 2008 में नीरज पांडेय ने अपनी प्रथम फिल्म, ‘अ वेडनेसडे’ में इन्हें एक आम आदमी के रूप में आतंकवाद से लड़ते हुए दिखाया।
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नसीर मियां शिखर से गिरते गए
लेकिन इस शिखर से व्यक्ति या तो और ऊपर जाता, या फिर नीचे गिरता है, नसीर मियां के साथ दूसरा कांड हुआ। जब 2014 के चुनाव निकट आए तो सभी ने अपने मत दिए कि किसे वोट करना है किसे नहीं, परंतु नसीरुद्दीन शाह उन लोगों के साथ सम्मिलित होने के लिए जिनका मत स्पष्ट था कि कैसे भी करके नरेंद्र मोदी को वोट नहीं देना है, क्यों नहीं देना है– क्योंकि वो गुजरात दंगों का दोषी हैं। ये जानते हुए भी कि 2012 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक विशेष SIT ने उन्हे निर्दोष सिद्ध किया था और नानावटी आयोग में भी उनके विरुद्ध एक साक्ष्य कोई पेश नहीं कर पाया था।
परंतु यहीं से प्रारंभ हुई नसीरुद्दीन शाह की दुर्गति। सरफ़रोश में जो गुलफाम हसन ये बने थे, वो वास्तविक जीवन में कब आत्मसात कर लिए इन्हें स्वयं पता नहीं चला। एक व्यक्ति के विरोध के नाम पर ये धीरे-धीरे भारत विरोधी बन गए, और अंट-संट बकने में विशेषज्ञ बन गए। उदाहरण के लिए इन्होंने फिल्म उद्योग के सितारों को सिर्फ इसलिए खरी-खोटी सुनाई क्योंकि उन्होंने भारत की अखंडता के विरुद्ध बयानबाजी करने वालों को आड़े हाथों लिया था।
कृषि कानून पर विदेशी बयानबाजी का विरोध करने वाले अभिनेताओं के विरुद्ध अनर्गल बातें करते हुए नसीरुद्दीन ने कहा, “हमारी फिल्म इंडस्ट्री के जो बड़े-बड़े धुरंधर हैं वो खामोश बैठे हैं। इसलिए कि उन्हें लगता है कि बहुत कुछ खो सकते हैं। अरे भाई जब आपने इतना धन कमा लिया कि आपकी 7 पुश्तें बैठकर खा सकती हैं तो कितना खो दोगे आप?”
लेकिन ये तो बस शुरुआत थी, क्योंकि नसीरुद्दीन शाह का मानना है कि जब तक देश में किसान आंदोलन विशाल और आक्रामक नहीं होता तब तक यह सरकार किसी की नहीं सुनेगी। नसीरुद्दीन आगे कहते हैं, “सब कुछ अगर तबाह हुआ तो आपको अपने दुश्मनों का शोर नहीं सुनाई देगा। आपको अपने दोस्तों की खामोशी ज्यादा चुभेगी। हम यह नहीं कह सकते कि अगर किसान कड़कड़ाती सर्दी में वहां बैठे हुए हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे उम्मीद है कि किसानों का ये प्रदर्शन फैलेगा और आम जनता इसमें शामिल होगी। वो होना ही है। मैं ऐसा मानता हूं कि खामोश रहना जुल्म करने वाले की तरफदारी करना है”।
नसीरुद्दीन शाह अब मोहल्ले के वो बुढ़ऊ हो गये हैं, जो चाहते हैं कि सब उनकी सुनें और उनके एक इशारे पर काम करें पर उनकी हरकतें ऐसी हैं कि लोग उनसे मीलों दूर रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं जिसके लिए स्वयं वही दोषी हैं।
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