नूपुर शर्मा की एक टिप्पणी ने कई ऐसे चेहरे और सोच को उजागर कर दिया जो अंदरखाने कितनी मलीन बुद्धि के थे अभी तक किसी को उसका अनुमान तक नहीं था। न्याय देने का काम जिनके जिम्मे है वो जब अपने विचार थोप एक अभियुक्त पर ऐसी टिप्पणी कर दे जो आधिकारिक रूप से रिकॉर्ड में भी जाने योग्य न हो तो आप स्थिति का अनुमान स्वयं लगा सकते हैं। नूपुर शर्मा की एक याचिका पर न्यायमूर्ति पारदीवाला और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अगुवाई वाली पीठ ने उनकी कथित टिप्पणी के लिए उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। उसके बाद इनकी टिप्पणियों ने देश में अलग माहौल बना दिया और अब अंततः पूर्व जजों, पूर्व नौकरशाहों और अन्य कई सेवानिवृत्त अधिकारियों ने जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला को आईना दिखाते हुए बताया है कि कैसे निजी राय पूरी न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा कर देती है।
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“इन टिप्पणियों से आती है अहंकार की दुर्गंध”
दरअसल, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, नौकरशाहों और सैन्य अधिकारियों के एक समूह ने मंगलवार को CJI एनवी रमन्ना को एक खुला पत्र लिखा। पत्र में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच की आलोचना करते हुए भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं करने की बात का उल्लेख करते हुए इसके बजाय न्यायिक लोकाचार का उल्लंघन करने की बात को इंगित किया गया। पत्र में याचिकाकर्ता नूपुर शर्मा के खिलाफ “दुर्भाग्यपूर्ण और अभूतपूर्व” टिप्पणी करने की बात को प्रमुखता से उठाया गया है।
CJI को लिखे पत्र में 15 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, 77 सेवानिवृत्त नौकरशाहों और सशस्त्र बलों के 25 सेवानिवृत्त अधिकारियों ने कहा कि नूपुर शर्मा की याचिका को ठुकराने में SC बेंच का रुख संविधान द्वारा मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। पूर्व न्यायाधीशों और नौकरशाहों के एक समूह ने बयान जारी करते हुए कहा, “ये टिप्पणियां बहुत परेशान करने वाली हैं और इससे अहंकार की दुर्गंध आती है। इस तरह की टिप्पणी करने का उनका (जस्टिस पारदीवाला और न्यायमूर्ति सूर्यकांत) का क्या काम है? न्यायपालिका के इतिहास में ये दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां बेमेल हैं और सबसे बड़े लोकतंत्र की न्याय प्रणाली पर ऐसा दाग हैं जिसे मिटाया नहीं जा सकता।”
पत्र में आगे कहा गया कि “इस मामले में तत्काल सुधारात्मक कदम उठाए जाने का आह्वान किया जाता है क्योंकि इसके लोकतांत्रिक मूल्यों और देश की सुरक्षा पर संभावित गंभीर परिणाम हो सकते हैं।” बयान में इन टिप्पणियों की निंदा करते हुए कहा गया, ‘‘हम जिम्मेदार नागरिक के तौर पर यह मानते हैं कि किसी भी देश का लोकतंत्र तब तक ही बरकरार रहेगा जब तक कि सभी संस्थाएं संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करती रहेंगी। उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाशीधों की हालिया टिप्पणियों ने लक्ष्मण रेखा पार कर दी है और हमें एक खुला बयान जारी करने के लिए मजबूर किया है।”
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पूर्व जस्टिस ढींगरा ने भी लगाई क्लास
इस पत्र से पूर्व जस्टिस एस. एन. ढींगरा ने जस्टिस पारदीवाला और न्यायमूर्ति सूर्यकांत के रुख पर विरोध जाहिर करते हुए कहा था कि “मेरे ख्याल से ये टिप्पणी बेहद गैर-जिम्मेदाराना है। उनका कोई अधिकार नहीं है कि वो इस तरह की टिप्पणी करें जिससे जो व्यक्ति न्याय मांगने आया है उसका पूरा करियर चौपट हो जाए या जो निचली अदालते हैं वो पक्षपाती हो जाएं। उन्होंने याची (नूपुर) को सुना तक नहीं और आरोप लगाकर अपना फैसला सुना दिया। मामले में न सुनवाई हुई, न कोई गवाही, न कोई जांच हुई और न नूपुर को अवसर दिया गया कि वो अपनी सफाई पेश कर सकें। तो इस तरह की टिप्पणी पेश करना न केवल गैर-जिम्मेदाराना है बल्कि गैर कानूनी भी है और अनुचित भी। ऐसी टिप्पणी करने का किसी व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं है।”
निस्संदेह, पत्रकारिता और न्यायपालिका दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां निजी राय देना वर्जित होता है और यह दोनों क्षेत्रों की अवमानना भी होती है। इस पूरे प्रकरण में जिस प्रकार जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस सूर्यकांत ने नूपुर शर्मा पर द्वेषभावना के साथ सुनवाई के दौरान गैर-ज़रूरी टिप्पणी की थी वो निंदनीय तो है ही, साथ ही सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणी का कोई आधार भी नहीं था, स्वयं कोर्ट ऑर्डर भी यही स्पष्ट करता है। यदि बयानों में लेश मात्र भी औचित्य होता तो सुनवाई में उसका उल्लेख किया गया होता। अपनी सोच और कुंठा जाहिर करना न्यायोचित नहीं था, यही कारण है कि ऐसे तत्वों के कारण न्यायपालिका की छवि और धूमिल न हो इसके लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, नौकरशाहों और सैन्य अधिकारियों के एक समूह ने यह बेड़ा उठाया और CJI एनवी रमन्ना को पत्र लिखकर इस अतिआवश्यक विषय को उनके संज्ञान में लाया है।
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