झूठ और पाखंड को अपने चरित्र में समेटे पश्चिमी देश जब विकाशील देशों को उपदेश देने के मूड में आते हैं तो आदर्श और नैतिकता का ज्ञान बांटने लगते हैं। लेकिन जब इसी ज्ञान को स्वयं आत्मसात करने की बात आती है तो यही पश्चिम देश उस ज्ञान की धज्जियां उड़ाने से पीछे नहीं हटते हैं। यही रवैया उन्होंने पर्यावरण संबंधी नीतियों को लेकर भी अपनाया है, एक तरफ तो वो विकास की सीढ़ी चढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर ज्ञान बांटने लगे हैं। पहले तो स्वयं नीतियों का निर्माण करते हैं और बाद में स्वयं उन नीतियों के विरुद्ध जाकर काम भी करते हैं।
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पश्चिमी देश अब ज्ञान बांट रहे हैं
पश्चिमी देशों में आयी औद्योगिक क्रांति के समय अंधाधुंध विकास किया गया एवं जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से जलवायु में जबरदस्त परिवर्तन आया जिसने आगे चलकर भयवाह रूप ले लिया। इसके कारण न केवल पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हुई बल्कि पूरा परिस्थितिकि तंत्र भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ। अचानक बाढ़, भारी वर्षा, सूखा और भूस्खलन जैसी ख़तरनाक घटनाएं बार बार हुईं। इतने पर भी विकसित देश लगातार विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रवचन देने से नहीं चूकते हैं लेकिन स्वयं अभी भी जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर दिखायी नहीं पड़ते हैं।
ऐसा कहना कि जलवायु परिवर्तन पश्चिमी देशों के पाप का परिणाम है बिलकुल ग़लत नहीं होगा। साल 1992 में रियो अर्थ समिट में साझा किंतु विभिन्न उत्तरदायित्व(CBDT) को औपचारिक रूप देते हुए यह कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने की ज़िम्मेदारी हम सब की है, यानी उन देशों की भी जो शायद अभी कार्बन का उत्सर्जन उस स्तर पर कर ही नहीं रहे जिस स्तर पर पश्चिमी देश मौजूदा समय में कर रहे हैं या अतीत में किया करते थे। विकास की राह में आगे निकल गये विकसित देशों के समक्ष एक बेहतर विकसित अर्थव्यस्था है, जिसमें अब उतनी सम्भावनाएं नहीं रह गयी हैं जितनी अल्पविकसित और विकासशील देशों के समक्ष रह गयी है लेकिन स्वयं को बहुत बड़े ज्ञाता बताते हुए ये देश विकास की संभावनाओं से लबालब देशों को भी अपने कृत्यों की सजा दे रहे हैं।
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पश्चिमी देशों ने औद्योगिक प्रक्रिया पहले ही शुरू कर दी थी
पश्चिमी देशों ने अपनी औद्योगिक प्रक्रिया साल 1800 के शुरुआत में ही शुरू कर दी थी जिससे उनकी अर्थव्यवस्था एवं देश का विकास दोनों पटरी पर आ गया है किंतु ग़रीब देशों को इनके द्वारा बनाए नियम विकास में बाधक हैं जबकि पश्चिमी देशों को चाहिए कि स्वयं पूरी ज़िम्मेदारी लें क्योंकि औद्योगीकरण के सबसे बड़े लाभार्थी वे स्वयं रहे हैं।
Polluter pay principle के सिद्धांत पर चलने की बजाए पश्चिम देश पर्यावरण नीतियों में समानता के नियम पर अधिक बल दे रहे हैं। UNFCC के कॉन्फ़्रेन्स ओफ़ पार्टीज़-15 सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार यह तय किया गया था कि विकसित देश 2020 तक संयुक्त रूप से 100B अमेरिकी डॉलर एवं ग्रीन टेक्नोलॉजी अल्प विकसित एवं विकासशील देशों को प्रदान करेंगे ताकि कार्बन उत्सर्जन कम से कम हो परंतु वे असमर्थ रहे अतः आगे चलकर पेरिस में हुए COP-21 के दौरान 100B डॉलर के लक्ष्य को 2025 तक आगे बढ़ाया गया।
इतना ही नहीं CBDR सिद्धांतों से मुकरते हुए पश्चिमी देशों ने विकासशील देशों को पेरिस समझौते में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान को अपनाने के लिए मजबूर किया। जब CBDR ने जलवायु परिवर्तन को लेकर उन्हें उनकी शर्त याद दिलायी तो उन्होंने न केवल शर्तों को खारिज कर दिया बल्कि लक्ष्य को भी बदल दिया। अब पेरिस समझौते के अनुसार, हर देश जलवायु परिवर्तन का कारण बनने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए अपने लक्ष्य निर्धारित करेगा।
2030 तक भारत द्वारा वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के अतिरिक्त कार्बन सिंक (वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने का एक साधन) के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी है।
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किन्तु बात करें पश्चिमी देशों की तो उन्होंने विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करने के लिए कुछ खास नहीं किया है। वैश्विक आबादी का 17% से अधिक होने के बावजूद, भारत ने औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में केवल 4% का योगदान दिया है। दूसरी ओर, संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले ही 25% के लिए जिम्मेदार है और यूरोपीय संघ ने मिलकर 22% ऐतिहासिक उत्सर्जन का योगदान दिया है। एक तरह से पश्चिम ने मिलकर औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक CO2 उत्सर्जन का लगभग 50% योगदान दिया और वे अभी भी अपने कुकर्मों को जारी रखे हुए हैं।
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