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धर्मांतरण रोकने के लिए मोदी सरकार को अपनाना चाहिए ‘रघुबर दास मॉडल’

यह तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था!

TFI Desk द्वारा TFI Desk
20 September 2022
in मत
धर्मांतरण

Source- TFIPOST

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भारत में धर्मांतरण विकराल रूप ले चुका है। देश के हर कोने से ऐसी तमाम खबरें आये दिन सामने आती रहती हैं। ईसाई मिशनरियां और इस्लामिस्ट देश में काफी लंबे समय से देश में धर्मांतरण का गंदा खेल खेल रहे हैं। गरीबों को लालच देकर धर्मांतरण कराने के कई मामले सामने आ चुके हैं। पूर्व की सरकारों ने ऐसे कुकृत्यों पर अपनी आंखें बंद रखी या यह कहा जा सकता है कि जानबूझकर इस मामले को साइडलाइन करते रहे। अपनी तुष्टीकरण की राजनीति के चक्कर में कांग्रेस जैसी पार्टियां ने इसमें हाथ तक नहीं डाला। लेकिन पीएम नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही हालात में जबरदस्त परिवर्तन देखने को मिला। भाजपा ने धर्मांतरण को लेकर अपनी आवाज बुलंद रखी। नतीजा यह हुआ कि कई भाजपा शासित राज्यों ने अवैध धर्मांतरण को लेकर राज्य स्तर पर कानून भी बना दिए। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति के लोगों को मिलने वाले आरक्षण की मांग वाली याचिका पर केंद्र सरकार को अपना पक्ष स्पष्ट करने की बात कही, जिसके बाद अब केंद्र सरकार की ओर से इसे लेकर कदम उठाए गए हैं।

और पढ़ें: धर्मांतरण और नक्सलवाद का प्रकोप झेल रहा छत्तीसगढ़ अब Islamism का ‘सुपर स्प्रेडर’ बनता जा रहा है

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सरकार गठित करेगी कमेटी

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र की भाजपा सरकार हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म के अलावा अन्य धर्मों में परिवर्तित हुए अनुसूचित जातियों और दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का आंकलन करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन करने की योजना बना रही है। रिपोर्ट के अनुसार, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और कार्मिक प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने योजना के लिए अपनी मंजूरी दे दी है। वर्तमान में, गृह, कानून, सामाजिक न्याय और अधिकारिता और वित्त मंत्रालयों के बीच विचार-विमर्श चल रहा है। आयोग तीन से चार सदस्यों का गठन करेगा, जिसमें कैबिनेट मंत्री शामिल रहेंगे। पैनल को अपनी रिपोर्ट जमा करने के लिए एक वर्ष का समय दिया जाएगा।

इस तरह के आयोग के गठन का कदम उन दलितों के लिए सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग कई याचिकाओं के मद्देनजर महत्व रखता है, जो ईसाई या इस्लाम में परिवर्तित होने वाले दलितों के लिए एससी आरक्षण का लाभ चाहते हैं। प्रस्तावित आयोग में तीन से चार सदस्य हो सकते हैं, जिसका अध्यक्ष केंद्रीय कैबिनेट मंत्री पद का कोई व्यक्ति होगा। पैनल के पास अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक वर्ष तक की संभावित समय सीमा होगी।

दरअसल, धर्म परिवर्तन के बाद ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों के लिए भी सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों और कल्याणकारी योजनाओं में आरक्षण के लाभ का मुद्दा लंबे समय से विवाद का केंद्र बना हुआ है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं। इसमें गैर-सरकारी संगठन सेंटर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस और कुछ दलित ईसाईयों तथा उनके ईसाई संगठनों की याचिका है। यह आयोग उन दलितों की स्थिति का आंकलन करेगा, जो ईसाई या इस्लाम धर्म अपना चुके हैं। इसके साथ ही आयोग वर्तमान एससी सूची में अधिक सदस्यों को जोड़ने के प्रभाव का भी अध्ययन करेगा।

सॉलिसिटर जनरल ने SC बेंच को किया सूचित

दरअसल, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के अनुच्छेद 341 के तहत हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाता है। मूल आदेश के तहत केवल हिंदुओं को एससी के रूप में वर्गीकृत किया गया था। बाद में 1956 में सिखों और 1990 में संशोधन कर बुद्ध धर्म के अनुयायियों को इस सूची में शामिल किया गया।

ध्यान देने वाली बात है कि 30 अगस्त को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच को सूचित किया कि वह याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुद्दे पर सरकार के रुख को रिकॉर्ड में रखेंगे। इस बेंच में जस्टिस अभय एस ओका और विक्रम नाथ भी शामिल थे। बेंच ने सॉलिसिटर जनरल को तीन सप्ताह का समय दिया और मामले को 11 अक्टूबर के लिए लिस्ट किया गया। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय से जुड़े सूत्रों ने कहा कि इस मुद्दे पर एक आयोग का गठन इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि यह मुद्दा महत्वपूर्ण है लेकिन इसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने और स्पष्ट स्थिति पर पहुंचने के लिए कोई निश्चित डेटा उपलब्ध नहीं है।

और पढ़ें: ‘Crypto Christians को अनदेखा न करें’, मद्रास HC ने अवैध धर्मांतरण के खिलाफ उठाई आवाज

‘रघुबर दास मॉडल’ पर बढ़ना चाहिए आगे

हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से काफी लंबे समय बाद अब इस मामले पर कदम उठाया गया है। अगर सरकार के एजेंडे के तह में धर्मांतरण रोकना है और सरकार इसे रोकने की ओर बढ़ रही है तो उसे ‘रघुबर दास मॉडल’ पर आगे बढ़ना चाहिए। ज्ञात हो कि भारत के अधिकांश हिस्सों की तरह झारखंड भी जनसांख्यिकी परिवर्तन का शिकार था। झारखंड में पिछले 10-12 वर्षों के दौरान एक बड़ा जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुआ, जिसमें ईसाइयों की जनसंख्या में 29.7% की वृद्धि हुई और मुसलमानों की जनसंख्या में 21% की वृद्धि हुई। धर्मांतरण के खतरे से निपटने के लिए रघुबर दास ने अपने कार्यकाल के दौरान कई बड़े कदम उठाए। उन्होंने वर्ष 2017 में धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक नामक धर्मांतरण विरोधी बिल पारित किया। इसके अलावा, झारखंड के पूर्व सीएम ने धर्मांतरण के लिए विदेशी धन का उपयोग करने वाले चर्च द्वारा संचालित संगठनों पर लगातार नकेल कसी। अपने इस कदम के ठीक बाद रघुबर दास ने घोषणा की कि जो लोग धर्म परिवर्तन कर चुके हैं, वे आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाएंगे। दास ऐसा कदम उठाने वाले पहले सीएम बने थे। उनके द्वारा प्रस्तावित योजना का उद्देश्य आदिवासी आबादी को अपना धर्म बदलने से रोकना था। ऐसे में अब मोदी सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम अब उसी का संकेत दे रहा है।

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Tags: धर्मांतरणमोदी सरकारसुप्रीम कोर्ट
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