भारत एक समृद्ध सांस्कृतिक विविधता और 130 करोड़ की आबादी वाला देश है, यही नहीं दुनिया में जहां भी भारतीय गए हैं वहां उन्हें उनकी बुद्धिमत्ता और कार्य कुशलता के लिए सराहा गया है, फिर चाहे वह अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया ही क्यों न हो। परन्तु जब खेल की बात आती है तो हमारे पास बात करने और गौरवान्वित होने के लिए क्रिकेट के अलावा और कोई खेल है ही नहीं। आजकल तो क्रिकेट पर भी बात करने लायक स्थिति नहीं है। परन्तु आपने कभी सोचा है कि क्यों 130 करोड़ की आबादी वाला देश ऐसे 130 खिलाड़ी भी तैयार नहीं कर पा रहा है जो विश्व स्तर पर भारतीय फुटबॉल टीम को आगे लेकर जाएं और उन देशों की श्रेणी में शामिल हो सकें जो अपने आप को फुटबॉल का योद्धा कहते हैं।
दरअसल, भारत में फुटबॉल की शुरुआत अंग्रेजों द्वारा की गई थी। पहले यह सिर्फ अंग्रेजी अधिकारियों के मनोरंजन का एक खेल हुआ करता था परन्तु धीर-धीरे 1880 के दशक में तत्कालीन अंग्रेजी राजधानी कोलकाता में टाउन क्लब (1884), आर्यन क्लब (1886) और मोहन बागान क्लब (1889) जैसे नये प्रयोग होने लगे जिसके बाद फुटबॉल अंग्रेजों तक ही सीमित न रहकर आम लोगों तक पहुंचने लगी परन्तु अभी भी फुटबॉल का कोलकाता से पूरे भारतभर में विस्तार होना बाकी था।
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आजादी के बाद फुटबॉल की यात्रा
भारत में आजादी के बाद अगर फुटबॉल के खिलाड़ियों के खेलने के जोश को देखें तो यह दुनिया की किसी भी टीम से कहीं अधिक अच्छी और उच्च कोटि का था। इसे लेकर हम इस बात से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि 1948 में भारत ने पहली बार ओलम्पिक खेलों में फुटबॉल में हिस्सा लिया था। उस समय भारतीय खिलाड़ियों के पास खेलने के लिए जूते तक नहीं हुआ करते थे परन्तु फिर भी वे खेलने के लिए जाते हैं और फ्रांस से दो पेनल्टी शूट मिस होने के कारण 1-2 के स्कोर से मैच हार जाते हैं।
इस मैच में भारतीय खिलाड़ियों के जोश और प्रदर्शन को देखने के बाद सभी देशों ने तारीफ की थी। परन्तु यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारे खिलाड़यों के पास जूते क्यों नहीं थे। इसका सीधा उत्तर है तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का फुटबॉल को फंड न देना। यही नहीं इसके बाद भी कई सालों तक भारतीय फुटबॉल टीम पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना देना चाहिए था।
सरकार ने कैसे फुटबॉल को अनदेखा किया इसका एक और उदाहरण 1950 में दिखा जब भारतीय टीम ने फीफा वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई तो किया था लेकिन टूर्नामेंट में भाग नहीं ले पायी। इसी समय अफवाह फैली की खिलाड़ियों के पास जूते ही नहीं थे लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि मौजूदा कंजूस सरकार टीम के लिए फंड ही नहीं देना चाहती थी।
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भारतीय फुटबॉल का स्वर्ण युग
भारतीय फुटबॉल के इतिहास को अगर देखा जाए तो 1956 से 1962 तक का समय स्वर्णयुग के रूप में जाना जाता है। इसके पीछ के कारण थे हमारे उस समय के खिलाड़ी जिनमें नेविल डिसूजा, पीटर थंगराज, प्रदीप बनर्जी, यूसुफ खान और चुन्नी गोस्वामी जैसे कई लोग शामिल थे। जिन्होंने भारतीय फुटबॉल को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि विश्व स्तर पर सम्मान भी दिलाया। उदाहरण के लिए हम सन् 1956 में मेलबर्न में आस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेले गए मैच में नेविल डिसूजा द्वारा लगाई गई हैट्रिक को देख सकते हैं। परन्तु इसके बावजूद भी हम कभी वर्ल्ड कप नहीं जीत पाए बल्कि हम एशियन देशों से भी पिछड़ते चले गए और आज स्थिति यह हो गई है कि जापान जैसे कम आबादी वाले देश हमसे आगे निकल चुके हैं।
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भारतीय फुटबॉल की वर्तमान स्थिति
भारतीय फुटबॉल की वर्तमान स्थिति को अगर देखा जाए तो हमें निराशा ही देखने के लिए मिलती है। ऐसा इसलिए क्योंकि हमें कोई भी उस स्तर का सुधार देखने के लिए नहीं मिलता है जिससे कि आने वाले समय में भारतीय फुटबॉल की स्थिति बेहतर हो सके। बल्कि वही सड़ी गली कांग्रेस की राजनीति देखने को मिलती है उदाहरण के लिए हम NCP प्रफुल्ल पटेल के हस्तक्षेप को देख सकते हैं किस प्रकार उनकी वजह से फीफा से इंडिया को बाहर कर दिया गया था।
हलांकि मौजूदा केंद्र सरकार ने जल्द ही इस मामले को संज्ञान में लिया और फीफा में वापसी कर ली। परन्तु सड़ी गली राजनीति से फुटबॉल को दूर करना बहुत आवश्यक है वरना नेहरू युगीन राजनीति फुटबॉल को दीमक की तरह अंदर ही अंदर खोखला करती रहेगी।
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