कल्पना करो कि आपने डेब्यू किया विश्व कप में, ताबड़तोड़ रन भी बनाए, विकेट भी चटकाए, और टीम क वर्ल्ड कप भी जिताए। लेकिन अगले ही टूर्नामेंट में उस परफ़ॉर्मेंस का आधा छोड़िए, इज्जत के दो रन भी न बन रहे। कुछ ऐसी ही स्थिति पैन इंडिया यानि बहुभाषीय सिनेमा की भी इस साल रही है।
“KGF”, “RRR”, “कार्तिकेय 2” इत्यादि जैसी फिल्मों के बलबूते इस वर्ष सभी ने पैन इंडिया उद्योग से बहुत उम्मीदें लगाई थी। परंतु इनके अधिकतम दांव खटारा सुतली बम जैसे फुस्स निकले। एक भी बहुभाषीय फिल्म ब्लॉकबस्टर तो छोड़िए, केवल हिट होने में हाँफ जा रही थी। सोचिए, जब “पोन्नियन सेल्वन” का द्वितीय संस्करण और “विरूपाक्ष” जैसी फिल्म औसत निकले, तो फिर बाकियों का क्या हाल रहा होगा?
डूबते को बॉलीवुड का सहारा!
यहाँ आइरनी देखिए, भारतीय सिनेमा का चेहरा इस पूरे समय किसने बचाया? उन्ही हिन्दी फिल्मों ने, जिन्हे जद्द बद्द सुनाने में कुछ स्वघोषित ठेकेदार एक सेकेंड न गँवाते! निस्संदेह इस उद्योग का तार्किकता और हमारी संस्कृति से छत्तीस का आंकड़ा रहा है, परंतु इसी उद्योग ने इन छह महीनों में हमारे भारतीय सिनेमा के सम्मान की रक्षा की है, और हम यहाँ “आदिपुरुष” या “पठान” जैसे कचरे की बात तो बिल्कुल नहीं कर रहे।
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परंतु ये संभव कैसे है? अब तक की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर कौन सी है? सोचिए सोचिए! वही, सुदीप्तो सेन, “केरल स्टोरी” वाले! जितना बड़के फेमिनिस्ट ने मिलके न कमाया होगा, उतना तो केवल अदा शर्मा और योगिता बिहानी की ऑनेस्ट एक्टिंग ने बॉक्स ऑफिस से बटोर लिया। परंतु ये अकेले नहीं थे! लक्ष्मण उटेकर तो लगता है ऋषिकेश मुखर्जी स्कूल ऑफ फिल्मांकन से ससम्मान ग्रैजुएट होके निकले हैं। अन्यथा “ज़रा हटके ज़रा बचके” की सफलता के बारे में किसने सोचा था? विकी कौशल और सारा अली खान अभिनीत इस फिल्म ने सबको चौंकाते हुए अब तक 110 करोड़ से अधिक का कलेक्शन किया है।
इतना ही नहीं, अपने ग्वालियर वाले कार्तिक भैया, यानि कार्तिक आर्यन भी पुनः ट्रैक पर आ गए हैं। “शहज़ादा” में फिसलने के बाद बंधु ने “सत्यप्रेम की कथा” के माध्यम से सबको चौंकाया, और कियारा आडवाणी ने भी अपने अभिनय से इनका भरपूर साथ दिया!
पर इन सबमें समान बात जानते हैं? कोई भी फिल्म 70 करोड़ से अधिक के लागत वाली है। जहां 100 करोड़ से नीचे में बात ही नहीं होती, वहाँ छोटे बजट की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर उधम मचाया है। कोई भी बड़ा सुपरस्टार नहीं था, परंतु इनकी कथा सबसे बड़ी स्टार थी।
आँकड़े झूठ न बोलते!
अगर आपको संदेह है, तो तनिक आंकड़ों पे नजर डाल लें, वे तो बिल्कुल झूठ नहीं बोलेंगे।
उदाहरण के लिए शाहरुख खान। “पठान” जैसी ‘सफलता’ के बाद भी इनकी दृष्टि “जवान” पे टिकी है, जिसे वे पहले ही पोस्टपोन करा चुके हैं। PR के जिस खेल में ये किसी तरह अपनी नैया पार लगा लिए, वहाँ ओम राऊत और मियां मनोज मुंतशिर “आदिपुरुष” के साथ औंधे मुंह गिर पड़े! पर इनके बारे में फिर कभी! “भोला”
और “तू झूठी मैं मक्कार” फ्लॉप तो नहीं हुई, पर लागत निकालने में और जनता के हृदय में स्थान बनाने में अंतर होता है!
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हालाँकि, वैचारिक मोर्चे पर बॉलीवुड में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। अब आप माने या नहीं, परंतु केवल स्टार पावर और एजेंडावाद से कुछ नहीं होगा। इस बात का कड़वा अनुभव सलमान खान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को हुआ, जो न घर के रहे, न घाट के! यहां तक कि अनुभव सिन्हा, अनुराग कश्यप और सुधीर मिश्रा जैसे लोग भी दर्शकों के लिए तरस गए। बच्चा लोग, खोखले नारों से कुछ नहीं होगा, दमदार कहानी से ही सफलता सुनिश्चित होगी!
जिस स्क्रिप्ट का हृदय सही स्थान पे हो, उसी की गूंज चहुंओर होगी। जो फिल्म फुलेरा के चिंटू और दक्षिण बॉम्बे की मैंडी दोनों को सुहाए, वही सच्ची और सफल फिल्म सिद्ध होगी। ये बात सुदीप्तो सेन, लक्ष्मण उटेकर और समीर विद्वान्स समझ गए, बाकी का नंबर कब आएगा?
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