अक्टूबर 1947 में, जब कबीलाइयों के हमले के बाद महाराजा हरिसिंह की सेना के मुस्लिम सैनिक बग़ावत कर हमलावरों से मिल चुके थे, तब स्वयंसेवकों ने श्रीनगर की सुरक्षा का बीड़ा उठाया।
21-22 अक्टूबर 1947 की दरम्यानी रात जब कश्मीर गहरी नींद के आग़ोश में था, तब पाकिस्तान के एबटाबाद की तरफ़ से लारियों का सिलसिला मुज़फ़्फ़राबाद की तरफ़ बढ़ रहा था। इन लारियों में हथियारबंद कबाइलियों के साथ पाकिस्तानी फ़ौजी मौजूद थे। कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला हो चुका था और महाराजा हरिसिंह की सेना के मुस्लिम सैनिक दग़ाबाज़ी कर अपने पाकिस्तानी मुसलमान भाइयों के साथ मिल चुके थे।
रियासत की सेना के हिंदू कमांडरों की हत्या की जा चुकी थी, जबकि भारतीय सेना अभी तक दिल्ली में ही थी और कश्मीर में कबाइलियों को रोकने वाला कोई नहीं था। कश्मीर का भविष्य अंधेरे में डूबा प्रतीत हो रहा था, लेकिन ख़ौफ़ और हैवानियत के इस माहौल में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता अपनी जान की परवाह किए बिना डटे रहे। आज अगर कश्मीर भारत का अखंड और अविभाज्य हिस्सा है, तो उसमें संघ के उन कार्यकर्ताओं की भूमिका कभी नहीं भुलाई जा सकती है।
प्रो. बलराज मधोक के मार्गदर्शन में कश्मीर में सक्रिय हुआ RSS
जम्मू कश्मीर में संघ वर्ष 1940 से ही सक्रिय था और इसका श्रेय जाता है प्रो. बलराज मधोक को, जिनके मार्गदर्शन में संघ ने इस सीमांत राज्य में कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। बलराज मधोक स्कर्दू (बालटिस्तान) के रहने वाले थे, एवं उनकी शिक्षा लाहौर और श्रीनगर में भी हुई थी।
बलराज मधोक को पाकिस्तान की तरफ़ से होने वाले ऐसे किसी हमले की आशंका 15 अगस्त, 1947 यानी स्वतंत्रता और भारत विभाजन के साथ ही हो चुकी थी, लिहाज़ा उन्होंने अपने प्रयत्नों से पाकिस्तान की सैनिक गतिविधियों की सूचनाएँ जुटानी भी शुरू कर दी थीं।
श्रीनगर बचाने के लिए स्वयंसेवकों ने थामी रायफल
22 अक्टूबर को जब पाकिस्तान प्रायोजित कबीलाइयों के लश्करों ने मुज़फ़्फ़राबाद के रास्ते श्रीनगर की तरफ़ बढ़ना शुरू किया, उस वक़्त भी संघ के स्वयंसेवकों ने हरीश भनोट ने इस हमले की सटीक जानकारी बलराज मधोक को दी। बलराज मधोक ने महाराजा हरिसिंह को स्थिति से अवगत करवाया, लेकिन मुस्लिम सैनिकों की बग़ावत के बाद महाराजा के पास कबीलाइयों का सामना करने लायक़ सेना नहीं बची थी।
भारतीय सेनाओं के आने में देर थी, ऐसे में महाराजा ने संघ से मदद माँगी। जल्दी ही 200 से धिक स्वयंसेवक एक संकेत मात्र पर वहाँ पहुँच गए, जिन्हें बाद में बादामीबाग छावनी ले जाया गया और उस वक़्त प्रयोग होने वाली 303 रायफलों को चलाना सिखाया गया। बताया जाता है कि ये युवा स्वयंसेवक तब तक रियासत की सेना के साथ डटे रहे, जब तक कि भारत की फ़ौज वहाँ नहीं पहुँच गई। बाद में भारतीय सेना के मोर्चा सँभालने के बाद भी स्वयंसेवक उनकी मदद में निरंतर जुटे रहे और अपनी शहादतें भी दीं।
श्रीनगर एयरस्ट्रिप की मरम्मत का कार्य, जिसके बाद कश्मीर पहुँची भारतीय सेना
पाकिस्तान के हुए इस प्रथम युद्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों के वैसे तो कई योगदान हैं, लेकिन एक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। दरअसल पाकिस्तान ने हमले का जो वक़्त चुना था वो यूँ ही नहीं था। अक्टूबर का वक़्त इसलिए चुना गया था, क्योंकि तब आम तौर पर कश्मीर घाटी में बर्फ़बारी शुरू हो जाती थी। उस वक़्त जम्मू और कश्मीर को जोड़ने के लिए बनिहाल में आज की तरह सुरंग मौजूद नहीं थी और इस रास्ते से सिर्फ़ बनिहाल दर्रे के ज़रिए जाया जा सकता था, जो बर्फ़बारी की वजह बंद हो जाता था। यानी भारत को कश्मीर और श्रीनगर से जोड़ने का एक मात्र तरीक़ा सिर्फ हवाई रास्ता था। लेकिन श्रीनगर की इकलौती हवाई पट्टी पर भी भारी बर्फ जमा हो चुकी थी, साथ ही उसकी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी ऐसे में वहाँ भारतीय वायुसेना के विमानों के लिए लैंड करना या टेकऑफ करना संभव नहीं था।
भारत के लिए ज़रूरी था कि किसी भी क़ीमत पर श्रीनगर एयरस्ट्रिप पर क़ब्ज़ा बनाकर रखा जा सके, ताकि कश्मीर का संपर्क शेष भारत से न कट सके। ऐसे में दिल्ली से कहा गया कि जितने भी मज़दूर श्रीनगर में मौजूद हैं, सबको बर्फ हटाने के काम में लगा दिया जाए, परंतु श्रीनगर में स्थितियाँ कुछ ऐसी थीं कि कोई भी मज़दूर इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ।
अनिश्चितता की इस स्थिति में आख़िरकार सेना ने RSS से मदद माँगी। सेना की तरफ़ से 150 स्वयंसेवकों की माँग की गई, ताकि सुबह होने से पहले सारी बर्फ हटाई जा सके, तब संघ ने महज़ आधे घंटे में ही 500 स्वयंसेवक भेज दिए। भीषण ठंड के बीच रात के डेढ़ बजे स्वयंसेवकों ने बर्फ़ हटाने का काम शुरू किया और महज़ कुछ घटों में ही पूरा रनवे साफ़ कर दिया गया।
आख़िरकार 27 अक्टूबर को सुबह सिख रेजीमेन्ट के 329 सैनिक हवाई जहाज से श्रीनगर उतरे और एयरफील्ड को अपने कंट्रोल में ले लिया। इसके बाद एक-एक कर ऐसे 8 हवाई जहाज़ों ने वहाँ लैंड किया। उन सभी विमानों में सैनिक और सैन्य साजोसामान मौजूद था। संघ के स्वंयसेवको ने इस साजोसामान को रखने-उतारने में भी सेना की मदद की। इसके बाद जल्दी ही स्वयंसेवक सेना के साथ मिलकर हवाई पट्टी को चौड़ा करने के काम में भी जुट गए, ताकि बड़े विमानों की आवाजाही भी संभव हो सके। इसके बाद जो हुआ हम सब जानते हैं।
भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम के आगे कबाइली और कबाइलियों के भेष में आए पाकिस्तानी फौजियों के पैर उखड़ गए और इस तरह कश्मीर को बचा लिया गया। लेकिन आज जबकि कश्मीर पर पाकिस्तान के पहले हमले के 77 वर्ष हो चुके हैं, और जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, तब संघ के उन कर्मठ स्वयंसेवकों और संघ की राष्ट्रनिष्ठ कार्यशैली को भी याद रखे जाने की आवश्यकता है, जिन्होंने न सिर्फ़ भारतीय सेना की मदद की, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर रायफले थाम कर जंग भी लड़ी और कश्मीर को पाकिस्तानियों के क़ब्ज़े से मुक्त कराने के लिए बलिदान भी दिया।