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गुमनाम हीरो डॉ शंभुनाथ डे: खत्म किया 200 साल का इंतजार, एक खोज से बचाई करोड़ों जिंदगी

Unsung Hero Dr Sambhunath De: हैजा के इलाज में मील का पत्थर खोजने वाले डॉ शंभुनाथ डे को आज देश जानता भी नहीं है। आइये जानें इस गुमनाम हीरो की कहानी...

Shyamdatt Chaturvedi द्वारा Shyamdatt Chaturvedi
15 April 2025
in इतिहास
Unsung Hero Dr Sambhunath De

Unsung Hero Dr Sambhunath De

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Unsung Hero Dr Sambhunath De: इतिहास के खजाने में बहुत सी इंसानी किताबें दबी होती हैं जो कई बार गुमनाम हो जाती हैं। इन इंसानी किताबों में होते हैं मिट्टी के वो लाल जो अपनी चमक से दुनिया को रोशन करते हैं। हालांकि, उनको ही गुमनामी का सामना करना पड़ता है। भारत की मिट्टी में जन्मे एक ऐसे ही ‘दीपक’ का नाम है डॉ शंभुनाथ डे। ये एक ऐसा नाम है जिसने सदियों से चली आ रही मौत की त्रासदी को रोकने के लिए कुछ ऐसा कर दिखाया जो मील का पत्थर बन गया। डॉ शंभुनाथ डे ऐसे भारतीय चिकित्सक या वैज्ञानिक (scientist sambhunath de) थे जिन्होंने ‘ब्लूडेथ’ यानी हैजा (cholera bacteria) के रहस्य से पर्दा उठा दिया। पर्दा ऐसा उठा कि आज घरेलू नुस्खों के जरिए भी हैजा या उससे जुड़ी बीमारी को मात दे देतें हैं। हां, वही घरेलू नुस्खा जिसे आप और हम आज के दौर में ORS कह देते हैं। पानी की कमी हो या दस्त लगे, कई बार तो BP लो होने पर भी ORS पिला दिया जाता है। लेकिन, किसी को भी इस हीरो के बारे में पता नहीं। तो आइये आज अंधेरे में खोई उस गुमनाम हीरो की कहानी (sambhunath de biography) बताते हैं जिसने लाखों जिंदगियों को बचा लिया….

आज से 200 साल पहले…

कहानी शुरू होती है आज से करीब 200 साल पहले…उन दिनों भारत विभाजित नहीं था। आज के पश्चिम बंगाल से लेकर बांग्लादेश तक का इलाज बंगाल कहलाता था। 1815 के आसपास इस पूरे इलाके में एक रहस्यमयी बीमारी ने घर कर लिया। देखते ही देखते ये गांव के गांव को अपना शिकार बनाते और उन्हें बीरान बना देती। गंभीर रूप से लोगों को उल्टी-दस्त होते और कुछ दिनों में मौत हो जाती। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। हालात इतने बदतर हुए कि इसे 1817 में महामारी घोषित (cholera epidemic) कर दिया गया। ये दौर 1824 तक चला। इसमें 10 हजार ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही लाखों भारतीयों की मौत हो गई।

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कैसे नाम पड़ा हैजा या कॉलरा?

“संस्कृत में ‘हर्ष’ या ‘हर्षज्वर’ नाम का उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग उल्टी, दस्त, पानी के रिसाव के लिए उपयोग किया जाता था। इसी कारण जब ये बीमारी बड़े पैमाने पर फैली तो हर्षज्वर शब्द विकृति होकर ‘हैजा’ बन गया। हालांकि, इस समय उल्टी, दस्त से जुड़ी सभी बीमारियों को हैजा कहा जाता था। इसी कारण 1817-24 के इसी दौर को बाद में पहली हैजा महामारी कहा गया। हालांकि, बाद में हुई सोध के बार इसका नाम इसकी बैक्टीरिया पर पड़ा। इसी कारण इसे आज हम कॉलरा भी कहते हैं। महामारी के पांचवें दौर में यानी  1883 विब्रियो कोलेरी नाम के बैक्टीरिया से इसका होना पाया गया और इस बीमारी का नाम कॉलरा पड़ गया।’

महामारी के बीच आया गुमनाम हीरो

1817 से लेकर अभी तक दुनिया में कई बार हैजा ने अटैक किया है। घोषित रूप से इस महामारी ने 6 बार में कई लाख लोगों की जान ली है। 19वीं सदी के शुरुआत में भी हैजा दुनिया के कई इलाकों में फैला हुआ था। इसी बीच 1 जनवरी साल 1915 को पश्चिम बंगाल के हुगली में पड़ने वाले गरीबटी गांव में एक बच्चे का जन्म होता है। पिता दशरथी डे और माता छत्तेश्वरी ने इस बच्चे का नाम शंभुनाथ डे रखा। तब उन्हें पता नहीं था कि उनका शंभुनाथ दुनिया को गंभीर समस्या  से मुक्ति दिलाने का काम करेगा।

आर्थिक स्थिति से लड़ा परिवार

परिवार का आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक ही थी। इस कारण दशरथी और छत्तेश्वरी ने शंभुनाथ की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी। हालांकि, कहते हैं न विपदा कभी भी आ सकती है। गरीबटी गांव में बाढ़ आ जाती है। इसने शंभुनाथ के माता-पिता की आर्थिक स्थिति को बिगाड़ दिया। व्यवसाय पर चोट लगने के बाद दशरथी एक दुकान में काम करने लगे और शंभुनाथ की पढ़ाई-लिखाई का खर्च निकालने लगे। इसमें उनका सहारा उनके छोटे भाई और शंभुनाथ के चाचा आशुतोष बने। वो भतीजे को शिक्षा की अलख की ओर ले गए।

माता-पिता और चाचा की मेहनत लाई रंग

माता पिता और चाचा की मेहनत की नतीजा ये हुआ कि शंभुनाथ ने गरीबटी हाई स्कूल से दसवीं पास कर ली। इतना ही नहीं उसे जिले की छात्रवृत्ति भी हासिल हुई। इसी के सहारे हुगली मोहसिन कॉलेज में दाखिला मिल गया। पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। अगले पड़ाव में होशियार लड़का कोलकाता मेडिकल कॉलेज पहुंच गया। हालांकि, कमजोर आर्थिक स्थिति को देखते हुए कोलकाता के सज्जन ने मुफ्त आवास और भोजन की व्यवस्था देकर भारत के भविष्य को सवारने लगे। 1939 में कोलकाता मेडिकल कॉलेज से शंभूनाथ की पढ़ाई पूरी हो गई।

गुरु बने ससुर और मार्गदर्शन

कॉलेज के दिनों में शंभूनाथ को पैथोलॉजी के प्रोफेसर डॉ एमएन डे मिले। ये वैसे तो उनके गुरु हुआ करते थे लेकिन बच्चे जैसा स्नेह रखते थे। एमएन डे अपने स्टूडेंट की प्रतिभा को पहचानते थे। उन्होंने ही 1939 में डिग्री पूरी होने के बाद शंभूनाथ को ट्रॉपिकल मेडिसिन में डिप्लोमा लेने की सलाह दी। 1942 में डिप्लोमा पूरा होने के बाद वह प्रैक्टिस करने लगे। इसी बीच एमएन डे की बेटी से उनका विवाह हो गया। कुछ साल प्रैक्टिस जारी रही लेकिन शंभूनाथ डे की रुचि तो रिसर्च में थी। आखिरकार साल 1947 में उनको लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का मौका मिल गया। 1949 में उन्होंने पैथोलॉजी में पीएचडी पूरी कर ली।

जब लंदन पहुंचे शंभूनाथ

जब भारत के मिडिल क्लास परिवार से आने वाला एक डॉक्टर लंदन पहुंचा तो उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें शोध करने के लिए प्रायोगिक हाइड्रोसिफलस विषय मिला। हालांकि, वो इस रिसर्च में होने वाली जानवरों की मौत से परेशान थे। पर कहते हैं न ऊपर वाला किसी न किसी को भेज ही देता है। डॉक्टर शंभूनाथ के सुपरवाइजर सर रॉय कैमरन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और पल्मोनरी एडिमा पर उन्हें ध्यान देने की बात कही। यहीं से शंभुनाथ के शोध को नई दिशा मिली। यहीं से रुचि बैक्टीरियोलॉजी में बढ़ गई। साल 1949 में उनकी PHD पूरी हुआ और वह भारत लौट आए।

भारत में शुरू की हैजा से जंग

शंभुनाथ की रुचि बैक्टीरियोलॉजी में थी। डिसेंट्री टॉक्सिन पर चल रहे शोध को देखकर हैजा के खिलाफ काम करने का मन बना लिया था। इसी कारण उन्होंने भारत लौटने से पहले ही लंदन कई उपकरण खरीद लिए थे जो बाद में उनकी रिसर्च के लिए काम आए। 1949 में भारत लौटने के बाद शंभुनाथ ने नील रतन सरकार मेडिकल कॉलेज में काम शुरू किया। अगले ही साल 1950 में उन्हें कोलकाता मेडिकल कॉलेज में पैथोलॉजी और बैक्टीरियोलॉजी विभाग में नियुक्ति मिल गई। यहां वो धीरे-धीरे विभाग के प्रमुख के पद पर पहुंच गए।

जब शंभुनाथ भारत आए उस समय बंगाल का एक बड़ा इलाका ‘ब्लू डेथ’ यानी हैजा की चपेट में थे। 1950 के उस दौर में अस्पताल मरीज से भरे पड़े थे। बीमारी का कोई कारगर इलाज नहीं था। इन हालातों को देखते हुए डॉ. शंभुनाथ मुसीबत को चुनौती देने का मन बनाया और इतिहास रचने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया।

साल 1950 में ही डॉक्टर शंभूनाथ ने हैजा के जीवाणु, वाइब्रियो कॉलेरी पर शोध शुरू किया। उनको 1884 में रॉबर्ट कॉख की खोज में खामी नजर आ रही थी। इस कारण उन्होंने इस शोध को अपनी चुनौती का आधार माना और रिसर्च को आगे बढाया। अगले ही साल 1951 में उन्होंने हैजा को लेकर पहला शोधपत्र प्रकाशित किया। शंभूनाथ ने सिद्ध कर दिया कि हैजा का जीवाणु यानी वाइब्रियो कॉलेरी रक्तप्रवाह के जरिए नहीं छोटी आंत में एक एक्सोटॉक्सिन छोड़ता है। ये आंतों के हालात को बदल देता है। इससे शरीर में पानी की कमी होने लगती है और खून गाढ़ा होने लगता है। इसकी नतीजा ये होता है कि मरीज को गंभीर दस्त होने लगते हैं।

रैबिट इंटेस्टाइनल लूप मॉडल का प्रयोग

साल 1950 से शुरू हुई खोज के बाद शंभूनाथ ने 1951 में पहला पेपर छापा। 3 साल बाद यानी साल 1953 में उन्होंने रैबिट इंटेस्टाइनल लूप मॉडल पर शोध पत्र प्रकाशित किया जो आगे चलकर साइटेशन क्लासिक बना। हालांकि, उन्होंने अपनी यात्रा को यही विराम नहीं दिया। लगातार इस विषय पर वो काम करते रहे। 1959 में शंभुनाथ की खोज ने चिकित्सा जगत में तहलका मचा दिया। उनके शोध ने साबित किया कि खुद जीवाणू नहीं बल्कि, हैजा का टॉक्सिन ही इस बीमारी का मुख्य कारण है।

शंभुनाथ के प्रयोगों के लिए ‘रैबिट इंटेस्टाइनल लूप मॉडल’ का उपयोग किया गया। इसमें उन्होंने खरगोश की आंत के एक हिस्से को बांधकर उसमें वाइब्रियो कॉलेरी डाला। प्रयोग में उन्होंने पाया कि हैजा का विष आंत के एक छोटे से हिस्से में फैलता है। इससे हैजा के साथ ही एस्चेरिचिया कोलाई के एंटरोटॉक्सिन की खोज में भी मदद मिली। आज इसे एंटरोटॉक्सिजेनिक ई कोलाई के रूप में जाना जाता है।

अब आता है ORS

डॉक्टर शंभूनाथ डे की खोज के कारण ही दुनिया में हैजा के इलाज के रास्ते खुले। उनके खोज के बदौलत ही ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (जिसे आमतौर पर ORS कहा जाता है) बनाया गया। यही एक सस्ता और घरेलू उपचार है। ORS ने न केवल हैजा, बल्कि अन्य दस्त जनित रोगों से होने वाली लाखों मौतों को रोका। यही वो इलाज था जिस कारण घरेलू थेरेपी से लाखों लोगों की जान बचाई गई। इसके बाद भी शंभूनाथ के इस विषय को लेकर करीब 30 पेपर प्रकाशित हुए।

घर में भी नहीं मिला सम्मान

भारत की मिट्टी में जन्मे महान डॉक्टर की खोज ने हैजा टीकाकरण और पुनर्जलीकरण के जरिए चिकित्सा के विकास के रास्ते खोले। कहते हैं ना ‘घर का जोगी जोगना, बाहर का जोगी सिद्ध।’ एक तरफ शंभूनाथ डे की खोज महामारी से लड़ने के लिए दुनिया के रास्ते खोल दिए थे। दूसरी तरफ भारत में ही उनकी प्रतिभा को नहीं पहचाना जा रहा था या उनकी प्रतिभा को वो सम्मान नहीं दिया गया।  1973 वह सेवानिवृत्त हो गए। इसके बाद अपने घर में ही उन्होंने क्लिनिकल पैथोलॉजी लैब स्थापित की और निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी। संसाधनों की कमी ने रिटायरमेंट के बाद उनकी शोध की सीमित कर दिया।

सराहना मिली पर नोबेल नहीं

डॉ शंभूनाथ डे ने उनके काम के कारण दो बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। 1978 में उन्हें फाउंडेशन ने हैजा पर विशेष संगोष्ठी में उनको बुलाया गया। इस दौरान उनकी खोज को दुनियाभर में सराहना मिली। हालांकि, इसके बाद भी विडंबना यह है कि इतनी बड़ी खोज करने के बावजूद भी उन्हें न तो देश में पहचान मिली न ही दुनिया  ने समय से उनको सम्मान दिया गया। जबकि, नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर जोशुआ लेडरबर्ग ने उनके काम को हैजा की पैथोलॉजी का पर्याप्त कारण बताया।

गुमनामी के 5 साल बाद मिला सम्मान

एक तरफ दुनिया में डॉ शंभूनाथ डे की खोज के बाद हैजा में लगाम लग रही थी। दूसरी तरफ अब उनका शरीर उनका साथ छोड़ता जा रहा था। 15 अप्रैल 1985 को 70 साल की उम्र में डॉ. शंभुनाथ डे ने इस दुनिया को अलविदा (Unsung Hero Dr Sambhunath De) कह दिया। मौत के कुछ समय बाद ही इंडियन जर्नल ऑफ टेक्नोलॉजी के संपादक का एक पत्र उनके घर में आता है। इसमें उनके काम के बारे में जानने की इच्छा जताई जाती है। हालांकि, संपादक को क्या पता था कि उनका पत्र जब तक मंजिल को पहुंचेगा। मंजिल की गुमनाम हो गई होगा। उनके निधन के 5 साल बाद यानी 1990 में करंट साइंस पत्रिका ने उनपर एक विशेष संस्करण प्रकाशित किया।

चुपके से दुनिया बदलने वाला सच्चा नायक

डॉ शंभुनाथ डे की कहानी  (life history of sambhunath de) सिखाती है “जो चुपके से दुनिया बदल दे, वही सच्चा नायक है।” भले ही उसे सही वक्त में पहचान न मिले। नोबेल पुरस्कार न मिलने के बाद भी उनको दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने सराहा। भले ही भारत में कई लोग उनसे अनजान हों लेकिन उनका काम इतिहास में हमेशा अमर रहेगा। उनकी खोज के कारण ही आज लाखों लोग की जान बच रही है। उनकी खोज ने हैजा को एक जानलेवा महामारी से सामान्य बीमारी में बदल दिया। अब आप जब भी ORS का पैकेट खोले याद रखिएगा कि डॉ शंभूनाथ ने सीमित साधनों के साथ ही असंभव जैसे इलाज को आपके लिए संभव बनाया है। आज, उनकी पुण्यतिथि पर हमें इस गुमनाम नायक को याद करते हुए उन्हें वह सम्मान देना चाहिए जिसके वे वास्तव में हकदार हैं।

1817 के बाद 6 बार आया महामारी का दौर

इस बीमारा का प्रकोप केवल बंगाल के रीजन में ही नहीं रहा। व्यापार और युद्ध के दौर में ये बर्मा (म्यांमार) और सीलोन (श्रीलंका) के बाद 1820 तक सियाम (थाईलैंड), इंडोनेशिया और फिलीपींस तक पहुंच गई। इसके बाद इसका सफर और आगे बढ़ा और इस बीमारी ने 1821 में इराक के बसरा और फिर तुर्की तक फैल गई। धीरे-धीरे इसका प्रसार यूरोप में भी घर कर गई। 1824 तक हैजा ने अपने “होम बेस” बंगाल को छोड़कर अरब, पूर्वी अफ्रीकी देशों के साथ और भूमध्यसागरीय तटों व्यापार रास्तों के जरिए पहुंच गई।

पहली बार बंगाल के रीजन से जन्मी ये बीमारी 6 बार दुनिया के अलग-अलग इलाकों से महामारी की रूप जन्म ले चुकी है। दूसरी बार ये बीमारी 1829 उत्तरी और दक्षिण अमेरिका को अपने आवेग में लिया। इसके बाद 1852, 1863, 1881 और 1889 में इसकी चार लहर आईं जिसमें उत्तरी और दक्षिण अमेरिका के साथ एशिया, यूरोप भी चपेट में आए। इसके बाद भी इस महामारी का दौर चल रहा है जिसे अघोषित रूप से महामारी का सातवां दौर कहा जा रहा है। इसने दुनिया के लाखों लोगों को प्रभावित किया है।

सदियों हुई खोज को डे ने दी दिशा

– हैजा सदियों से दुनिया भर में लाखों लोगों की जान ले रही थी।
– पहले यह माना जाता था कि यह बीमारी बुरी हवा के कारण होती है।
– साल 1854 में फिलिपो पाकिनी ने आंतों की श्लेष्मा में हैजा के बेसिलस के बारे में बताया।
– इसके बाद 1884-85 में डॉ जॉन स्नो ने दूषित पानी को इसका कारण बताया।
– साल 1884 में डॉ. रॉबर्ट कोच ने बैक्टीरिया विब्रियो कोलेरी का पहली बार संवर्धन किया।
– साल 1959 में डॉ शंभुनाथ डे की विब्रियो कोलेरी में हैजा विष की खोज की।
– शंभूनाथ की खोज के बाद हैजा के बारे में रिसर्च और इलाज को नई दिशा मिली।

ये भी पढें: गंभीर समस्या से पीड़ित हो रहे बिहार के बच्चे, नहीं बढ़ रही लंबाई…जानिए क्या है कारण

सावधान रहें सुरक्षित रहें

हैजा गंभीर संक्रामक बीमारी (Cholera Bacteria) है। ये विब्रियो कोलेरा नाम के बैक्टीरिया के कारण शरीर में स्थान बनाती है। इसका आक्रमण होने से आंतों का संक्रमण हो जाता है। हाजा होने के बाद तेज दस्त और उल्टी होने लगती है। इसी का नतीजा होता है कि इलेक्ट्रोलाइट्स की कमी होने लगती है। समय से इसके बारे में पता लगाकर इलाज नहीं किया गया तो ये मौत का कारण भी बन सकती है।

कारण- दूषित भोजन या पानी पीने से
लक्षण- गंभीर दस्त, उल्टी, पैर में ऐंठन
खतरा- इलेक्ट्रोलाइट्स की कमी, निर्जलीकरण, सदमा, मौत
उपचार- ओआरएस, एंटीबायोटिक्स, इंट्रावीनस फ्लूइड्स
बचवा- स्वच्छता, टीकाकरण, दूषित भोजन और पानी से दूरी

हैजा का इलाज सरल और सस्ता है, लेकिन देरी होने पर यह जानलेवा बन सकता है। स्वच्छता और सतर्कता ही सबसे बड़ा बचाव है। हैजा से बचने के लिए समय-समय पर हाथ धोएं अच्छे साबुन या हैंडवॉश का इस्तेमाल करें। कोशिश करें कि अल्कोहल बेस्ड सैनिटाइजर रखें। दूषित स्थानों में उगाए गए फल सब्जियों सेचें। बीमारी की चपेट में आने के बाद बिना छिलके वाले फल और सब्जियां खाने से बचें।

किसी भी बीमारे के लिए घरेलू उपाय और रोकथाम के प्राथमिक इलाज होता है। ये आपकी समस्या को कम कर सकता है लेकिन जड़ से खत्म करना उतना संभव नहीं है। इस लिए समस्या के बढ़ने पर आप डॉक्टर के पास जाएं और बीमारी का सही इलाज लें। आज कल हैजा के लिए बाजार में कई टीके भी उपलब्ध हैं।

नोट: ध्यान रहे की हमारा ये लेख गुमनाम हीरो वैज्ञानिक शंभुनाथ डे (Unsung Hero Dr Sambhunath De) के जीवन पर है। हैजा के रोकथाम और इलाज के लिए दिए गई जानकारी मीडिया रिपोर्ट पर आधारित है। समस्या होने पर आपको डॉक्टर से मिलना चाहिए। हमारी सलाह चिकित्सकीय नहीं है।

Tags: CholeraDr Sambhunath DeHaija
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