डोनाल्ड ट्रम्प को फ़िलहाल भले ही पूरा भारत कोस रहा हो, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ICICI का टॉप मैनेजमेंट उनसे खासा प्रभावित और प्रेरित हुआ है। शायद इसीलिए इस दिग्गज प्राइवेट बैंक ने बचत खातों के लिए 50 हज़ार रुपये मिनिमम बैलेंस रखना अनिवार्य कर दिया है (ट्रम्प भी भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत का टैरिफ़ लगा चुके हैं)। बैंक का ये कदम ट्रम्प टैरिफ़ से कम नहीं है। ज़रा सोचिए जिस देश में 50 हज़ार रुपये की मंथली सेलरी आज भी ‘हैंडसम’ न सही, लेकिन अच्छी मानी जाती हो, वहां अगर कोई बैंक इतना ही पैसा बैंक में बेमतलब, बिना किसी काम के रखने को कहे तो ?
ICICI की प्राथमिकता स्पष्ट है– उसे आम आदमी का नहीं, अमीर आदमी का बैंक बनना है
ज़ाहिर है, ICICI अब कॉमनमैन नहीं बल्कि प्रीमियम क्लास का प्रीमियम बैंक बनने का फैसला कर चुका है। वैसे ICICI निजी बैंक है, ऐसे में वो कोई भी फैसला ले सकता है, वो चाहे तो पचास हज़ार की जगह 50 लाख रुपये का मिनिमम बैलेंस भी अनिवार्य कर सकता है। लेकिन क्या बात सिर्फ बैंक की आज़ादी तक ही सीमित है? क्या कोई भी निजी बैंक इस तरह के मनमाने फैसले ले सकता है, जिसका असर देश के बड़े वर्ग पर पड़ेगा ? दूसरे प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है– जी हां ले सकता है, इस पर कोई रोक नहीं है। लेकिन उससे भी बड़ा प्रश्न है कि क्या इसे सिर्फ कारोबारी फैसले की तरह ही देखा जाना चाहिए?
दरअसल ICICI Bank ने जो नए नियम जारी किए हैं, उनके अनुसार उसके नए Savings Accounts में शहरी क्षेत्र के ग्राहकों के लिए 50 हजार रुपये महीने, अर्धशहरी (कस्बों) के लिए 25,000 रुपये महीने, और ग्रामीण इलाकों के ग्राहकों के लिए कम से कम 10 हजार रुपये महीने का मिनिमम बैलेंस मेंटेंन करना होगा। अगर किसी भी स्थिति में खाते में 50 हज़ार रुपये से कम हुए तो बैंक घटे एमाउंट पर 6% तक पेनाल्टी काटेगा, जो कि 500 रुपये तक हो सकती है। यानी अब अगर ICICI बैंक में खाता खोलना है तो आपको कम से कम पचास हज़ार रुपये हमेशा रखने ही होंगे।
यानी एक तरह से ये रकम आपके ख़ास काम की नहीं रहेगी। अब जिस आदमी की तनख़्वाह ही 50 या 60 हज़ार रुपये होगी वो ये मिनिमम बैलेंस कैसे मेंटेन करेगा? ऐसा तो होगा नहीं कि वो सेलरी आते ही पूरा पैसा बैंक में जमा कर दे और चवन्नी भी न खर्च करे। इस लिहाज़ से तो लाख–सवा लाख रुपये महीना कमाने वाले भी ICICI बैंक में खाता नहीं खोल सकेंगे, हां सैलरी एकाउंट हो तो अलग बात है। यानी ICICI ने साफ़ कर दिया है कि उसे अब निम्न मध्यमवर्गीय या कुछ हद तक मध्यमवर्गीय लोगों की ज़रूरत नहीं है और अब उसका ध्येय अमीर– उच्च मध्यमवर्गीय लोगों का बैंक बनना है।
ICICI बैंक ने 50,000 रुपये का मिनिमम बैलेंस तो कर दिया, लेकिन देश में 90% लोगों की आय ही इतनी नहीं है
एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 90% वयस्कों यानी लगभग 82 करोड़ लोगों की कमाई सालाना ₹6 lakh रुपये यानी पचास हजार रुपये महीने से कम है।आयकर विभाग के डेटा(2023–24) के अनुसार देश में क़रीब 4 करोड़ लोगों ने ही 5 लाख सालाना से ज्यादा का रिटर्न दाखिल किया था, इसमें अगर 2-2.5 करोड़ ऐसे लोगों को भी जोड़ लें, जिन्होने रिटर्न फ़ाइल नहीं किया तो भी देश में 50 हज़ार महीना कमाने वालों की संख्या 6.25-6.35 करोड़ के बीच ही होगी।इसमें भी 5-10 लाख के स्लैब में तो केवल 1.1 करोड़ लोग ही थे, वहीं ITR डेटा के अनुसार 10-15 लाख के ब्रैकेट में लगभग 50 लाख टैक्सपेयर्स ही हैं।
अब अगर बेसिक कैलकुलेशन के लिहाज़ से देखें तो यही 50 लाख लोग ही ICICI बैंक में खाता खुलवा सकेंगे। लेकिन इसमें भी पेच है, ज़रा सोचिए अगर आपकी तनख़्वाह 1.25 लाख रुपये है, इसमें भी 50 हज़ार मिनिमम बैलेंस में चले गए, तो आपको घर खर्च– लोन की किश्त, बच्चों की पढ़ाई, इलाज– सारे खर्च 75 हज़ार रुपये में ही निपटानें होंगे। इस पर भी कोढ़ में खाज ये कि इस 50 हज़ार रुपये के बैलेंस पर बैंक आपको सिर्फ 2.5% काब्याजहीदेगा। कोई भी समझदार आदमी इस पैसे को FD , Mutual Funds या U lip जैसी निवेश की दूसरी स्कीमों में लगाना चाहेगा, जहां उसे कहीं बेहतर रिटर्न मिल सकेगा। कुल मिलाकर ICICI बैंक के इस एक कदम ने करोड़ों भारतीयों को उससे दूर कर दिया है। या यूं कहें कि ICICI ख़ुद यही चाहता है– आम आदमी का नहीं, बल्कि अमीर आदमी का बैंक बनना (क्योंकि असली कमाई वहीं से आनी है और आम आदमी को बैंक सिर्फ बोझ मानते हैं) इसकी गुणा–गणित भी बेहद आसान है।अगर ICICI प्रीमियम ग्राहकों यानी अमीर लोगों को आकर्षित करने में कामयाब रहता है तो, इससे कुछ दो सीधे और बड़े फायदे होंग।
पहला– मिनिमम बैलेंस के रूप में उसे बेहद कम ब्याज पर एक बड़ी रकम (कैश पूल) मिल जाएगी, जिसका इस्तेमाल वो कर्ज देने में कर सकेगा। आम तौर पर बैंक इस राशि (CASA) पर 2.5 प्रतिशत का ब्याज देता है, जबकि जब वो इसी राशि को कर्ज के तौर पर बांटेगा तो औसतन 9 प्रतिशत का ब्याज वसूलेगा– यानी सीधे तौर पर बैंक आपके ही पैसे से क़रीब साढ़े 6 प्रतिशत तक का लाभ कमाएगा। इसके अलावा ICICI इन अमीर कस्टमर्स से प्रीमियम सर्विसेज़ के नाम ज्यादा क्रॉस सेल प्रोडक्ट्स भी बेच सकेगा– जैसे क्रेडिट कार्ड, लोन, इंश्योरेंस, वेल्थ मैनेजमेंट और लॉकर सुविधाएं।
क्या ग़रीब ग्राहक बैंक पर सिर्फ बोझ हैं ?
ये तो अमीर ग्राहकों की बात हुई, अब ज़रा आम ग्राहकों का भी रुख़ समझ लेते हैं– दरअसल बैंक जब किसी का भी खाता खोलता है तो KYC वेरिफिकेशन, ब्रांच सर्विसेज़, ATM, चेकबुक, मैसेज सर्विसेज़ और दूसरी सुविधाओं पर उसे कुछ न कुछ राशि खर्च करनी पड़ती है। एक अनुमान के तौर पर ये खर्च 500 से 1500 रुपये तक हो सकता है। 31 मार्च 2023 के डेटा के अनुसार ICICI बैंक के पास 21.1 million बेसिक सेविंग एकाउंट थे, जिसमें 4.4 million यानी करीब 44 लाख खाते प्रधानमंत्री जन–धन योजना के तहत खोले गए थे। ये सभी ज़ीरो बैलेंस खाते हैं और इस लिहाज़ से ICICI को इनके संचालन के लिए एक बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। ज़ाहिर है ICICI ये खर्च बचाना चाहता है।
दूसरे बैंक भी ICICI के रास्ते पर चल पड़े तो जन–सामान्य की बैंकिंग का क्या होगा?
वैसे सिर्फ जानकारी के लिए आपको बता दें कि लुई वितां जैसी लक्ज़री फैशन ब्रैंड के बेहद चुनिंदा ग्राहक ही हैं, लेकिन इसकी नेटवर्थ क़रीब 240 बिलियन डॉलर है (फोर्ब्स-2025 के अनुसार) और इसके मालिक बर्नाड अरनो दुनिया के टॉप 10 अमीरों में से एक हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस ब्रैंड के ग्राहक आम लोग नहीं, बल्कि अच्छे खासे अमीर हैं और संख्या में बेहद कम ये लोग ही सालाना क़रीब 85 बिलियन डॉलर के लुई वितां प्रोडक्ट्स ख़रीद डालते हैं।
ICICI भी शायद इसी फॉर्मूले को फॉलो करना चाहता है। ज़ाहिर है ये ICICI बैंक का विशुद्ध कामर्शियल फैसला है, लेकिन देश में जन साधारण को बैंकिंग से जोड़ने का जो अभियान है, उसके लिहाज़ से ये फैसला ख़तरनाक साबित हो सकता है।
अब जरा इस स्थिति को देश में बैंकिंग की स्थिति की सापेक्षता में देखते हैं।
वर्ष 2011 तक देश में क़रीब 35 लोगों के ही बैंक खाते थे, यानी क़रीब एक तिहाई आबादी बैंकिंग से जुड़ी थी। 28 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री जन–धन योजना शुरू होने के बाद ये आंकड़ा बढ़ कर क़रीब 53 प्रतिशत तक पहुँच गया और विश्व बैंक की Global Findex रिपोर्ट 2025 के अनुसार भारत में करीब 89 % वयस्कों के पास बैंक खाते हैं या वो किसी रूप में बैंकिंग प्रणाली से सीधे तौर पर जुड़े हैं। यानी क़रीब 15 वर्षों में ढाई गुना से भी ज्यादा लोगों ने अपने बैंक खाते खुलवाए हैं। ऐसा मोदी सरकार के निर्देश के बाद बड़े पैमाने पर खोले गए ज़ीरो बैलेंस खातों की वजह से हुआ है, जहां मिनिमम बैलेंस रखने की कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन जरा सोचिए अगर निजी क्षेत्र के दूसरे बैंक भी इसी राह पर चलने लगे, तो देश की एक बड़ी आबादी बैंकिंग के लिए सरकारी बैंकों पर या फिर कम सुविधाओं वाले बेसिक जमा खातों पर ही निर्भर हो जाएगी और ये स्थिति आर्थिक आधार पर देश के विभाजन जैसी ही होगी।